मुजफ्फरपुर में एक सड़क दुर्घटना में 9 बच्चों के मारे जाने के बाद यह सवाल एक बार फिर खड़ा हो गया है. कहा जा रहा है कि गाड़ी चलाने वाला शराब के नशे में था.
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जिस राज्य में शराब पर रोक हो, वहां शराब पीकर मरने या दुर्घटना करने की खबर आये, तो शराबबंदी का मजाक उड़ना तय है. इस समय बिहार ऐसा ही राज्य बनता जा रहा है. मुजफ्फरपुर में एक सड़क दुर्घटना में 9 बच्चों के मारे जाने के बाद यह सवाल एक बार फिर खड़ा हो गया है. कहा जा रहा है कि गाड़ी चलाने वाला शराब के नशे में था. पुलिस जांच के बाद ही इसकी सच्चाई सामने आ पायेगी, लेकिन अभी इस आरोप की पुष्टि नहीं की जा सकती. यह भी संभव है कि इसकी सच्चाई सामने न आ पाए, क्योंकि गिरफ्तारी में विलम्ब से सबूत के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया है. चूंकि यह मामला एक भाजपा नेता से जुड़ा हुआ है, इसलिए राजनीतिक कारणों से यह और तूल पकड़ता जा रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इसमें कूद गए हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर तंज कसते हुए कहा है कि आपकी अंतरात्मा की आवाज किसे बचा रही है- आरोपी भाजपा नेता को या बिहार में शराब की सच्चाई को?
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मौजूदा घटना ने एक बार फिर बिहार में शराबबंदी की सफलता-विफलता और उपयोगिता-अनुपयोगिता पर बहस खड़ी कर दी है. बिहार में अप्रैल, 2016 से अब तक कम से कम 71,000 लोग शराब का सेवन करने, रखने या तस्करी के आरोप में जेल भेजे गए हैं. इसी तरह चौदह लाख लीटर से ज्यादा शराब जब्त की गयी है. यह अनुमान का विषय होगा कि कुल शराब का कितना प्रतिशत बरामद होता होगा, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि यह शत-प्रतिशत तो नहीं ही होता होगा. यह बरामदगी अपने आप में सरकार की सफलता और उसकी सीमा को उजागर करती है.
यहां गौरतलब है कि पिछले साल नीतीश कुमार की शराबबंदी अभियान के समर्थन में सड़क पर मानव श्रृंखला बना कर बिहारवासियों ने पूरी तरह उसे सफल दिखा दिया था. इस अभियान में बिहार के स्कूली शिक्षकों, छात्रों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की अहम भागीदारी रही थी. समझा जा सकता है कि यह अभियान काफी हद तक सरकारी संसाधनों के बूते चलाया गया, आम आदमी की इसमें ज्यादा भागीदारी नहीं थी. इसके बावजूद ऐसे कम ही लोग होंगे, जो नीतीश सरकार के इस अभियान को गलत ठहराएंगे, लेकिन इस अभियान के प्रति किसानों-मजदूरों में उत्साह का अभाव अपने आप बहुत कुछ कह जाता है.
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यह तो नहीं कहा जा सकता कि बिहार में नीतीश सरकार की शराबबंदी का गांव-गांव तक सकारात्मएक असर नहीं है. धर-पकड़ और बेइज्जती के कारण शराब पीने से लोग घबराते हैं. अगर किसी ने शराब पी भी ली, तो प्रायः घर में ही बंद रहने को अभिशप्त हैं. साफ है शराब पीकर सड़क-चौराहे पर गाली-गलौज और मार-पीट करने की घटनाएं अब पहले की तरह देखने-सुनने को नहीं मिलतीं. सड़क दुर्घटनाओं में भी कुछ कमी आई है. शराब पर खर्च होने वाले पैसे बहुत से गरीबों के घर आने लगे हैं. पर यह तस्वीर का एक पहलू है. दूसरा पहलू यह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद बिहार में शराबबंदी पूरी तरह कारगर नहीं है. शराब की बरामदगी अपने आप में इसका सबूत है और यह कुल कारोबार का छोटा हिस्सा ही माना जा रहा है.
बताया जाता है कि बिहार में शराब हर जगह उपलब्ध है, अब तो वह घर पर पहुंच जाती है, बस उसकी कीमत दोगुनी देनी पड़ती है. यानी जो पैसा पहले सरकार के खाते में जाता था, वह अब शराब कारोबारियों के खाते में जा रहा है. प्रशासन का आतंक ऐसा है, कोई इसके बारे में खुलकर बात करने को तैयार नहीं है. दरअसल, अपर्याप्त पुलिस बल वाले प्रशासन को अपनी खाल बचाने की चिंता है. उल्टे पुलिस प्रशासन में भ्रष्टाचार बढ़ जाने का खतरा पैदा हो गया है. अगर शराब कारोबारियों को संगठित गिरोह खड़ा हो गया, तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार में संगठित अपराध जोर पकड़ लेगा. फिलहाल अभी ऐसी नौबत नहीं आई है, लेकिन दूसरे राज्यों का अनुभव कोई सुखद संदेश नहीं देता.
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बिहार में कई राज्यों की तुलना में देसी शराब का सेवन जरूर ज्यादा होता था, लेकिन अंग्रेजी शराब का सेवन वहां काफी कम था. अब शराबबंदी के बाद शराब की कमी या महंगाई के कारण बिहार में गांजे का सेवन बढ़ गया है और उसकी कीमत भी. बिहार में पुलिस प्रशासन का जोर इस समय गांजे के सेवन पर रोक लगाने के बजाय शराबबंदी पर है. अब चिंता यह जताई जा रही है कि नशा पान करने वाले किसी दूसरे नशे की ओर न बढ़ चलें. पंजाब में जब अफीम पर रोक लगाई गयी थी, तो वहां ड्रग्स का कारोबार तेज हो गया. आज पंजाब की एक बड़ी आबादी इसकी गिरफ्त में आ चुकी है. बिहार में भी अफीम और कफ सीरप का उपभोग बढ़ने लगा है.
शराबबंदी के कारण बिहार सरकार के राजस्व में कमी आना स्वाभाविक था और उसकी भरपाई सरकार को कहीं न कहीं से करनी ही थी. इसकी परिणति करों की बढ़ोतरी के रूप में हुई. किसानों द्वारा दिये जाने वाले भू-राजस्व को भी कई गुना बढ़ा दिया गया है. ऐसे में बिहार में यह कहा जाने लगा है कि जो राशि पहले शराब पीने वालों से वसूली जाती थी, अब वह राशि उन्हें देनी पड़ती है, जो शराब नहीं पीते. नीतीश सरकार के इस दावे में ज्यादा दम नहीं है कि शराब पर खर्च होने वाला सारा पैसा बच जाता है और वह राशि कपड़ा, दूध-मिठाई इत्यादि में खर्च होने लगी है. अच्छा होता नीतीश सरकार व्यावहारिक कदम उठाती. शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के बजाय वह इसे नियंत्रित और सीमित करने का प्रयास करती. सामाजिक लक्ष्य भी सिद्ध हो जाता और राजस्व का नुकसान भी नहीं होता. अब तक किसी भी राज्य में शराबबंदी सफल नहीं रही है. नीतीश सरकार के लिए भी यह धीरे-धीरे सिरदर्द बन जायेगी, पर वह व्यावहारिक यथार्थ को स्वीकार करने से इंकार करेगी, क्योंकि यह सरकार के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)