कानून और व्यवस्था ही नहीं बल्कि जेलों के मामले में भी उत्तर प्रदेश बेदम है. उत्तर प्रदेश की आधी से ज्यादा जेलों में अपनी निर्धारित संख्या से 150 प्रतिशत से ज्यादा बंदी हैं और राज्य सरकार के पास इससे निपटने का कोई ठोस उपाय दिखाई नहीं देता.
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कानून और व्यवस्था ही नहीं बल्कि जेलों के मामले में भी उत्तर प्रदेश बेदम है. उत्तर प्रदेश की आधी से ज्यादा जेलों में अपनी निर्धारित संख्या से 150 प्रतिशत से ज्यादा बंदी हैं और राज्य सरकार के पास इससे निपटने का कोई ठोस उपाय दिखाई नहीं देता. सुप्रीम कोर्ट में गौरव अग्रवाल की दायर की गई जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान यह बात सामने उभरकर सामने आई कि देश की ज्यादातर जेलें अतिरिक्त बोझ से दबी हुई हैं. यह याचिका देश की 1382 जेलों की अमानवीय परिस्थितियों को लेकर दायर की गई है. अब तक जारी रिपोर्टों के मुताबिक उत्तर प्रदेश और बिहार की जेलों की सबसे खस्ता हालत है.
इस साल मई के महीने में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए अपने हलफनामे में उत्तर प्रदेश सरकार ने इन बातों को खासतौर पर रखा है:
* उत्तर प्रदेश के चार जिलों में नई जेलों का निर्माण किया जा रहा है. यह जिले हैं- अंबेडकर नगर, सरस्वती संघ, कबीर नगर और इलाहाबाद. इनमें कैदियों को रखने की निर्धारित क्षमता 4723 होगी. लेकिन इस हलफनामे में उत्तरप्रदेश सरकार ने कहीं भी यह नहीं लिखा है कि इन जेलों में निर्माण का काम किस स्तर तक पहुंच चुका है और यह निर्माण कब पूरा होगा.
* उत्तर प्रदेश सरकार अपनी मौजूदा जेलों में 59 नई बैरक बनाने का काम भी कर रही है जिससे 1780 बंदियों के लिए अतिरिक्त जगह बन सकेगी. लेकिन यहां पर भी उत्तरप्रदेश सरकार ने किसी भी समय-सीमा का उल्लेख नहीं किया है.
* राज्य सरकार ने कहा है कि ललितपुर जिले की जेलों में बंदियों को रखने की 4500 की क्षमता है लेकिन अब नए निर्माण के तहत इसकी क्षमता 16,500 बंदियों तक बढ़ाई जा सकेगी. इसके लिए नई जेलों के लिए जमीन की या तो पहचान कर ली गई है या फिर उन्हें खरीदा जा चुका है.
कोर्ट में यह बात कही गई कि उत्तरप्रदेश सरकार ने जो जवाब सौंपा है, उससे राज्य सरकार की अ-गंभीरता साफ तौर पर दिखाई देती है. अपने किसी भी जवाब में उत्तरप्रदेश सरकार ने समय- सीमा का कोई उल्लेख नहीं किया है. इससे पहले जेलों में कैदियों की हालत का खुलासा 2017 में आगरा के आरटीआई एक्टिविस्ट नरेश पारस की उस रिपोर्ट से हुआ था जिसमें उत्तर प्रदेश की प्रदेश से कैदियों की मौत की मांगी गई रिपोर्ट में हुआ था. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2012 से जुलाई 2017 तक पूरे प्रदेश में जेल में बंद कैदियों की मौत 2 हजार से अधिक है जिनमें एक महिला कैदी भी शामिल है. इन मृतकों में 50 फीसद विचाराधीन बंदी थे. इनकी उम्र 25 से 45 साल के बीच थी. सबसे ज्यादा मौतें क्षय रोग और सांस की बीमारी के चलते होना बताई गई थी. पूरे उत्तर प्रदेश में 62 जिला जेल, पांच सेंट्रल जेल और तीन विशेष कारागार हैं.
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इसी तरह बिहार की कम से कम 14 जेलें भीड़ की समस्या का सामना कर रही हैं. इनमें पटना की मॉडल सेंट्रल जेल से लेकर पूर्णिया, बेतिया, सीतामणि, कटियार, भागलपुर, माटीपुरा, छपरा, किशनगढ़, औरंगाबाद, गोपालगंज, जमोई और झांझरपुर तक की उप-जेलें शामिल हैं.
सुप्रीम कोर्ट में दायर जबाव में बिहार की तरफ से यह जबाव आया कि कुछ नई जेलों का निर्माण किया जा रहा है. लेकिन यह बात साफ नहीं की गई कि यह काम कब तक पूरा होगा और इस काम के लिए अतिरिक्त स्टाफ का चयन कब तक होगा.
यह बात जाहिर है कि राज्य सरकारों के लिए जेलें कहीं प्राथमिकता की सूची में नहीं आतीं. देश की सर्वोच्च अदालत के दखल के बावजूद जिन राज्यों में जेल सुधार को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखती, उनमें उत्तर प्रदेश और बिहार की जेलें अव्वल हैं. लेकिन जेलों की परवाह करने की फुरसत भला किसके पास है?
(डॉ. वर्तिका नंदा जेल सुधारक हैं. वे देश की 1382 जेलों की अमानवीय स्थिति के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका की सुनवाई का हिस्सा हैं. जस्टिस एमबी लोकूर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने जेलों में महिलाओं और बच्चों की स्थिति की आकलन प्रक्रिया में उन्हें शामिल किया. जेलों पर एक अनूठी श्रृंखला- तिनका तिनका- की संस्थापक. खास प्रयोगों के चलते भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति से स्त्री शक्ति पुरस्कार से सम्मानित. दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल. तिनका तिनका तिहाड़ और तिनका तिनका डासना- जेलों पर उनकी चर्चित किताबें.)