जब एनएनसी नेताओं ने दिल्ली में नेहरू जी से मुलाकात की तो उस दौरान नेहरू जी ने उनकी स्वायत्ता देने की बात पर तो सहमति दर्ज की लेकिन उनकी आज़ादी की मांग को नकार दिया था.
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भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक बहुत पुरानी आदिवासी परंपरा रही है. ये राज्य भारत के उन राज्यों में से है जहां आदिवासियों और उनकी संस्कृति का दबदबा रहा है. इन राज्यों में चुनावों में भी इनका खासा योगदान रहता है. उत्तर-पूर्व के भारतीय राज्यों में जितनी आदिवासी जनजातियां मौजूद हैं उनके बीच में शायद नागा एकमात्र ऐसी जनजाति है जो अपने नियमों से चलने वाली और प्रभावशाली है. यही वजह है कि 1950 में जब भारत कश्मीर समस्या से निपट रहा था, उस दौरान उनके सामने एक समस्या और उभर रही थी जो कश्मीर समस्या से कहीं पुरानी बल्कि भारत की सबसे पुरानी संघर्ष की दास्तान है. ये समस्या, नागा समस्या थी.
इनका क्षेत्र भारत-बर्मा सीमा तक फैला हुआ था. नागा की संख्या जितनी भारत में थी उतनी ही बर्मा में भी मौजूद थी. उस दौरान ये जनजातियां चावल के बदले नमक का सौदा किया करती थीं. खास बात ये थी कि आज़ादी के दौरान कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन में नागाओं का कोई विशेष योगदान नहीं था. यहां तक कि इस क्षेत्र में ना कभी सत्याग्रह हुआ ना कभी इस क्षेत्र से कोई गांधीवादी नेता बाहर निकला. हालांकि कुछ जनजातियों ने ब्रिटिश शासन का विरोध किया था लेकिन ये कुछ वक्त के लिए ही रहा उसके बाद यह दोनों ही एक-दूसरे को सम्मान की नज़र से देखने लगे थे.
ब्रिटिश सरकार के सत्ता छोड़ देने के बाद जब पूरे भारत में पहले चुनाव की सरगर्मी बढ़ रही थी और भारत एक स्वतंत्र लोकतंत्र की ओर कदम बढ़ा रहा था, उस दौरान, कुछ नागा जातियां अपने भविष्य को लेकर चिंतित नज़र आ रहीं थीं. जनवरी 1946 में क्रिश्चियन तरीके से पढ़ाई करने वाले और प्रभावी अंग्रेजी बोलने वाले एक समूह ने नागा नेशनल काउंसिल यानि एनएनसी का निर्माण किया. लड़ाकू परंपरा और अंग्रेजों सहित सभी बाहरी लोगों से युद्ध का इतिहास रखने वाली नागा जनजाति पूर्ण स्वायत्ता पर भरोसा रखने वाली जाति मानी जाती रही है. वो शुरू से ऐसे राज्य की मांग करती रही है, जहां शासन नागाओं का, नागाओं के लिए, नागाओं द्वारा चलाया जाए.
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जब एनएनसी नेताओं ने दिल्ली में नेहरू जी से मुलाकात की तो उस दौरान नेहरू जी ने उनकी स्वायत्ता देने की बात पर तो सहमति दर्ज की लेकिन उनकी आज़ादी की मांग को नकार दिया था. रामचंद्र गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी के अनुसार बाद में नागा नेता गांधीजी से भी मिले थे. इसके बाद कई तरह की बातें सामने आईं थीं जिसमें एक यह थी कि गांधी ने नागाओं की आज़ादी पर सहमति दर्ज की थी और उनका कहना था कि अगर उनके खिलाफ नई दिल्ली की कोई सरकार सेना भेजती है तो गांधी खुद इसका विरोध करेंगे.हालांकि गांधी की संकलित रचनाओं में छपे बयान में उन्हें यह कहते हुए पाया गया है कि ‘निजी तौर पर मैं सोचता हूं कि आप मुझसे संबंधित है, भारत से संबंधित हैं. लेकिन अगर आप ऐसा नहीं मानते हैं तो कोई आपको मजबूर नहीं कर सकता है.’ महात्मा गांधी ने नागा प्रतिनिधिमंडल से यह भी कहा था कि आज़ादी का मतलब आर्थिक आत्मनिर्भरता है. गांधीजी ने उनसे कहा था, ‘आप लोग सभी तरह की हस्तकलाओं में निपुणता हासिल कीजिए, वही शांतिपूर्ण आजादी का रास्ता है, अगर आप राइफल, बंदूक और तोपों की बात करेंगे तो वो एक बेवकूफाना बात होगी.' इस प्रतिनिधिमंडल में एक नागा नेता था जिसका नाम था फिज़ो. फिजो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारत लौटा और नागा नेशनल काउंसिल में शामिल हो गया. उसने नागाओं की आज़ादी के लिए जिस तरह से जुनून दिखाया, उसकी बदौलत उसने बहुत जल्द ही काउंसिल में अहम जगह बना ली. बाद में फिज़ो काउंसिल का अध्य़क्ष बना और उसने आजादी की मांग को और तेज कर दिया और जो लोग उसकी इस मांग का विरोध कर रहे थे उन नेताओं का दमन कर दिया गया. सन् 1951 में फिजो और उसके समर्थकों ने नागा पहाड़ियों का व्यापक दौरा किया. यह दौरा नागा आज़ादी का समर्थन करने वालों के हस्ताक्षर और अंगूठे जुटाने का दौरा था. बताया जाता है इस अभियान में जुटे दस्तावेज के बंडलों का वज़न अस्सी पाउंड था जिसमें लगभग 100 फीसद जनता ने नागा आजादी का समर्थन किया था.
दरअसल उत्तर-पूर्व में यह आज़ादी का आंदोलन इसलिए भी उग्र हुआ क्योंकि जब भारत को आज़ादी के साथ बंटवारे का घाव मिला और कश्मीर की समस्या की सौगात मिली तो दिल्ली में बैठी सरकार इन घावों को सहलाने में लगी हुई थी और उन्होंने नागा समस्या पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और इस समस्या को हल्के में लिया. हालांकि जब 1951 में नेहरू चुनाव प्रचार के दौरान असम के तेजपुर में आए थे तो वहां पर फिजो अपने तीन प्रतिनिधिमंडल सदस्यों के साथ नेहरू से मिले और उनसे आज़ादी की मांग की थी. तब नेहरू ने इसे इतिहास के पहिये मोड़ने वाली बात कहते हुए विचार दिया था कि दुरुह पहाड़ी इलाकों में आजादी की मांग को स्वीकार करना एक खतरनाक फैसला हो सकता है.
नागालैंड एक दिसंबर 1963 को भारत संघ का 16वां राज्य बनाया गया था.उसी समय से राज्य को 371ए के तहत विशेष अधिकार मिला हुआ है. इस कानून में राज्य की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं और रीति-रिवाजों की पूरी सुरक्षा का जिक्र है. यहां दीवानी और आपराधिक मामलों में न्याय करते समय भी पारंपरिक कानूनों की सहायता लेने का प्रावधान है.
इतने सालों के बाद भी नागालैंड में संविधान को चुनौती वैसे ही दी जा रही है. अभी हाल ही में नागालैंड आदिवासी होहो और नागरिक संगठन की कोर कमेटी ने संवैधानिक व्यवस्था को सीधी चुनौती देते हुए अपने घोषणापत्र में यह कहा था कि राजनीतिक समाधान या नगा शांति समझौता उनके लिए चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है. जिस समाधान की बात नागालैंड के नेता कर रहे हैं, उसकी धुरी नगालिम देश है, जिसे मणिपुर और असम के कुछ जिलों के अलावा म्यांमार के कुछ इलाकों को मिलाकर बनाने की बात कही जाती रही है. पिछले साल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने नागालैंड हॉर्नबिल फेस्टिवल में कहा था कि मसले का जल्द समाधान निकलेगा. फिर सितंबर में वहां के राज्यपाल ने भी मसले को दो महीने में सुलझाने की बात कही. लेकिन नवंबर में केंद्र सरकार के साथ हुई आखिरी बैठक में केंद्र ने किसी भी रूप में नगालिम की मांग से इनकार कर दिया और इस साल की शुरुआत में वहां लगे आफ्सपा की अवधि जून 2018 तक बढ़ा दी.
ऐसे में अगर इतने पुराने इतिहास पर गौर किया जाए तो यह साफ हो जाता है कि नागालैंड में सही ढंग से सरकार वही चला पाएगा जो यहां की क्षेत्रीय समस्या और परंपरा का समर्थन करता हो.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)