पंचायत के तालिबानी फ़रमान के ख़िलाफ़ बाग़ी छोरियां
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पंचायत के तालिबानी फ़रमान के ख़िलाफ़ बाग़ी छोरियां

पंचायतों को चाहिए कि वो लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर काम करें, सोचें कि कैसे लड़कियों को आगे पढ़ाया जा सकता है.

ये खिलखिलाते हुए चेहरे, आत्मविश्वास से भरी हुई नन्हीं नन्हीं बच्चियां समाज के ठेकेदारों को आईना दिखाने के लिए निकली हैं. ये बच्चियां निकल पड़ीं हैं अपने ख़्बावों में रंग भरने के लिए, ये लड़कियां कह रही हैं कि हम आपकी तथाकथित मर्यादा का बोझा अब नहीं उठा सकते हैं.

जो तस्वीर आपने देखी ये राजस्थान के धौलपुर के बल्दियापुर गांव की है. जहां कुछ दिन पहले गांव की पंचायत ने तालिबानी फ़रमान सुनाते हुए गांव की लड़कियों पर जीन्स पहनने और मोबाइल इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी, लेकिन बच्चियों के हौसले तो देखिए ये सिर उठाकर खड़ी हो गई हैं पंचों के तालिबानी फ़रमान के सामने. गांव की लड़कियों ने पंचायच के फ़रमान को सिरे से नकारते हुए निकल पड़ीं जीन्स पहनकर हाथों में मोबाइल लेकर.

गांव की लड़कियां पंचों से सीधे सवाल कर रही हैं कि मान मर्यादा का सारा ज़िम्मा हमारा ही क्यों है ? आख़िर आपकी नज़र सबसे पहले हमारे कपड़ों पर ही क्यों जाती है ? हमारे कपड़ों से आपकी इज्ज़त क्यों जुड़ी है ? आख़िर हमारे फ़ोन इस्तेमाल करने से आपकी नाक कैसे कट रही है ? दरअसल लड़कियों ने अब पंचायत के ख़िलाफ़ ही मोर्चा खोल दिया है और पंचों से पूछ रही हैं कि तुम्हारी नज़र हमारे कपड़ों पर ही क्यों टिकी है. तुम गांव के 5वीं तक के स्कूल को हाई स्कूल करने की मांग क्यों नहीं करते हो. तुम गांव में अस्पताल की मांग क्यों नहीं करते हो. तुम गांव में विकास के लिए क्यों नहीं लड़ते हो.

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दरअसल गांव की पंचायत का तालिबानी फ़रमान कोई नया नहीं है. इससे पहले भी पंचायतें लड़कियों को लेकर इस तरह के फ़रमान सुनाती रही हैं और गांव वाले एक सुर में इस तुग़लकी फ़रमान को सही मानते आए हैं, लेकिन पंचायतों को अब अपनी सोच से निकलना होगा क्योंकि अगर उन्होंने अपनी सोच नहीं बदली तो लड़कियां ऐसे ही उनके सामने सिर उठाकर खड़ी होती रहेंगी और उनको मुंहतोड़ जवाब मिलता रहेगा.

पंचायतों को चाहिए कि वो लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर काम करें, सोचें कि कैसे लड़कियों को आगे पढ़ाया जा सकता है. जो लड़कियां पंचों को मुंह तोड़ जवाब दे रही हैं वो किसी मेट्रो सिटी की नहीं है, बल्कि छोटे से गांव की ही हैं. लेकिन उन्हें पता है कि ग़लत क्या है और सही क्या है. शायद लड़कियों की इसी सोच से पंचायत डरी हुई है कि कहीं लड़कियां अपना अच्छा बुरा, सही ग़लत ना समझने लगे. लड़कियों के पर काटने के लिए ही इस तरह के बेहूदे फ़ैसले लिए जाते हैं, जिनको समाज का बड़ा तबका समर्थन भी करता है.

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परिवार, समाज की इज्ज़त के नाम पर सबसे पहले लड़कियों को ही घर में क़ैद करने की कोशिश की जाती है. अपराध बढ़ रहे हैं तो लड़कियों को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, बलात्कार की कोई भी घटना आती है तो तरह तरह से जस्टीफाई किया जाता है कि कैसे पीड़ित लड़की की ग़लती निकाल ली जाए. अच्छे पढ़े-लिखे लोगों को कहते सुना है कि लड़कियों को अच्छे कपड़े पहनने चाहिए, लड़कियों को मर्यादा में रहना चाहिए. अपराधी पर सवाल उठाने के बजाए पीड़ित को ही अपराधी साबित करने की कोशिश की जाती है.

सरकारें 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' के नाम पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा रही है, लेकिन क्या वो समाज की सोच में बदलाव ला पा रही है. जहां गाहे-बगाहे पंचायतें इस तरह के फ़रमान सुनाती रहती हैं. बेटियों को घरों में क़ैद करने से कुछ नहीं होगा. बेटियों के पहनावे तय करने से कुछ नहीं होगा ज़रूरत मानसिक रूप से विकसित होने की है.

माता-पिता, परिवार और समाज को चाहिए कि वो बेटियों को बेटों की तरह पाले, उन्हें इतना मज़बूत और समझदार बनाएं कि वो अपना अच्छा बुरा समझ सके, वो फ़ैसला कर सके कि सही ग़लत क्या है. अगर पंचायत को डर है कि लड़कियों के जीन्स पहनने से और मोबाइल रखने से मर्यादा भंग हो रही है तो उन्हें लड़कों पर भी इज्ज़त की ज़िम्मेदारी डालनी होगी. अगर आप एक पलड़े पर सारा बोझ डालेंगे तो बैलेंस गड़बड़ हो जाएगा और अब तक यही होता आया है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)

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