भारत में नौटंकी की दो मुख्य शैली मानी जाती है हाथरस शैली और कानपुर शैली. नौटंकी का जन्मस्थल ही उत्तरप्रदेश माना गया है. हाथरस औऱ कानपुर उसके मुख्य केंद्र रहे थे. पंडित नथाराम गौड़ को स्वांग विधा का जनक भी माना जाता है.
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माधुरी दीक्षित की फिल्म 'आजा नचले' को फ्लॉप फिल्मों में शुमार किया जाता है, लेकिन इस फिल्म के आखिरी बीस मिनट में लैला-मजनू की जो नौटंकी दिखाई गई है उसका प्रस्तुतिकरण तारीफ के काबिल है. वजह यह है कि गाने में जिस नौटंकी शैली का इस्तेमाल किया गया था, उसमें कहीं भी फूहड़ता नहीं थी. यह फिल्मी ग्लैमर के साथ-साथ बहुत शालीनता के साथ परदे पर उभरती है. खास बात यह है कि इसमें खालिस तो नहीं कहेंगे, लेकिन नौटंकी के दोहा औऱ चौबोला का प्रयोग नज़र आता है. वैसे इस फिल्म से कई साल पहले फणिश्वर नाथ रेणू के उपन्यास 'मारे गए ग़ुलफाम' और फिर उस पर बनी राज कपूर अभिनीत फिल्म 'तीसरी कसम' में कानपुर शैली की नौटंकी और उसकी अदाकारा के इर्द-गिर्द ही कहानी घूमती है.
वैसे तो नौटंकी का फिल्मों में आगमन भारत में फिल्मों के पितामह दादा साहब फाल्के की पहली फिल्म 'राजा हरीशचंद्र' से ही हो गया था. उसके बाद कई फिल्मों में अलग-अलग तरीकों से इसका इस्तेमाल हुआ. राजकुमार अभिनीत हीर-रांझा में तो पूरी फिल्म के संवाद ही कविता में कहे गए हैं. मुगल-ए-आज़म भी नौटंकी से प्रेरित होकर ही बनाई गई थी. यहां तक कि हाल ही में विवादों में पड़ी फिल्म पद्मावत (पहले पद्मावती) भी पहले एक चर्चित नौटंकी के रूप में काफी सराही गई है. वक्त के साथ स्टेज पर होने वाली नौटंकी शैली में भी फूहड़ता का प्रवेश होता चला गया और अब यह कला एक प्रकार से लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है.
नौटंकी की शुरूआत कब हुई इसके बारे में सही तरह से तो कह पाना मुश्किल है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि ये स्वांग शैली का ही एक विकसित रूप है. स्वांग शैली वो शैली थी, जिसमें अभिनेता किसी किरदार के जैसा रूप धरकर उसी की तरह अभिनय करता था. मसलन, उस दौर में लिखी गई नौटंकी अमर सिंह राठौड़, भक्त मोरध्वज, राजा हरीशचंद्र जैसी रचनाओं में इन्ही अमर किरदारों का स्वांग किया जाता था.
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भारत में नौटंकी की दो मुख्य शैली मानी जाती है हाथरस शैली और कानपुर शैली. नौटंकी का जन्मस्थल ही उत्तरप्रदेश माना गया है. हाथरस औऱ कानपुर उसके मुख्य केंद्र रहे थे. पंडित नथाराम गौड़ को स्वांग विधा का जनक भी माना जाता है. हाथरस के निकट दरियापुर गांव में जन्मे नथाराम मिडिल क्लास पास करके दरियापुर से हाथरस आए थे. उन्होंने देशभक्ति, वीररस, ईश्वर की भक्ति जैसे विषयों पर कई स्वांगों की रचना की, जिनमें अमर सिंह राठौर, भक्त मोरध्वज, हरिश्चंद्र, भक्त पूरनमल, दुर्गावती, आल्हा का ब्याह, नल चरित्र, रानी पद्मावती जैसी रचनाएं प्रमुख हैं. इन स्वांगों की प्रसिद्धि का उस दौर में यह आलम था कि अनेक लोगों ने इससे प्रभावित होकर औऱ प्रेरित होकर हिंदी तक सीख डाली थी.
नौटंकी की तुलना पश्चिम के ओपेरा से भी की जा सकती है. नौटंकी में भी संगीत औऱ गायन ही मुख्य होते हैं. हाथरस शैली का जनक जहां नथाराम गौड़ को माना जाता है, वहीं कानपुर शैली की शुरुआत करने वाले श्रीकृष्ण पहलवान हैं. हाथरसी शैली मे स्वांग औऱ गायन को तरजीह दी जाती है, जबकि कानपुर शैली में संवाद भी कविता में कहे जाते हैं जैसा हिदी सिनेमा में एकमात्र बनी फिल्म हीर-रांझा में प्रयोग किया गया है. इसी लुप्त होती कला की एक साधक जो एक साधारण से गरीब परिवार से उठकर नौटंकी का जाना-माना नाम बन गई, जिनके नाम से ही नौटंकी देखने वालों का तांता लग जाता था. जिसकी एक झलक पाने के लिए लोग पैसा देकर टिकट खरीदते थे और ना मिलने पर मारामारी हो जाती थी. और किस तरह से वो इतनी चर्चित कलाकार सरकारी ढुलमुल रवैये और नौटंकी मे खत्म होती लोक कला औऱ प्रवेश करती फूहड़ता की वजह से दरकिनार कर दी गई. इस कलाकार की कहानी को बहुत ही खूबसूरती से बयान करता है प्रसिद्ध लेखक भजन मोरवाल का उपन्यास सुर बंजारन.
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सुर बंजारन कथाकार भगवानदास मोरवाल का छठा उपन्यास है. यह उपन्यास लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच चुकी लोक-कला के बार में ही नहीं बताता, बल्कि एक अंजान औऱ गुम होती विरासत का सांस्कृतिक इतिहास भी दर्शाता है. हाथरस शैली की नौटंकी, उसकी परम्परा और सुरों की शुरुआत उसके शिखर पर पहुंचने और लुप्त होने की दास्तान को बयां करने वाला यह शायद हिंदी का पहला उपन्यास है. उपन्यास की नायिका रागिनी के ज़रिये कथाकार ने उन असंख्य अलक्षित सुरों की गाथा को सामने रखने का प्रयास किया है जो आज गुमनामी के अंधेरे में खोए अपने-अपने सुरों के मीड़, गमक, खटका को तलाश रहे हैं. जिनके कानों में आज भी कहीं चौबोला, दौड़, दोहा, बहरतबील, दादरा, ठुमरी, छन्द, लावनी, बहरशिकस्त, सोहनी जैसे छन्द और ढोलक की थाप और झील-नक्काड़े की धमक गूंजती है.
हाथरस नौटंकी की अदाकारा की जिंदगी को बयान करता यह उपन्यास अपने केंद्रीय पात्र के बहाने एक लोक विरासत की अदभुत कहानी को प्रस्तुत करता है. साथ ही यह उस नौटंकी कला के जनक, नौटंकी का इतिहास सब कुछ इतनी सहजता के साथ बताता चलता है कि पढ़ने वाले को इस बात का अहसास ही नहीं होता है कि उसके सामने इतनी आसानी से इतना ज़टिल इतिहास खोल कर रख दिया गया है. मसलन आजमगढ़ में हिंदुस्तान थिएटर की पहली पेशकश स्त्री पात्रों से भरपूर और संगीत शिरोमणि हिन्दी भूषण पंडित नथाराम गौड़ द्वारा रचित सांगीत पद्मावति उर्फ फरियादे बुलबुल तय की गई. इस नौटंकी का किस्सा भी बड़ा मज़ेदार है. मेरठ के पहले सांगीतकार यानी नौटंकी मर्मज्ञ रामसहाय शाह ने मशहूर अवधी कवि मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत को आधार बनाकर रत्नसेन पद्मावती नाम का सांगीत लिखा था. इस सांगीत में पद्मावती के सती होने की कथा नहीं थी. इस प्रसंग को स्वांग की पूरक-कथा के रूप में बाद में मुनीर खां ने लिखा. मजेदार यह है कि जायसी के पद्मावत औऱ पंडित नथाराम शर्मा गौड़ द्वारा रचित सांगीत पद्मावती के कथानक का दूर-दूर तक आपस में कोई संबंध नहीं है. ये दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अलहदा हैं.
यही नहीं उपन्यास में नौटंकी शब्द की उत्पत्ति को भी बहुत अच्छी तरह से बताया गया है जो किस्सागोई की तरह होने की वजह से पाठक को आसानी से याद रह जाती है. नौटंकी शाहजादी का किस्सा है बड़ा जोरदार. जानकारों का ऐसा मानना है की स्वांग या संगीत का नाम जो नौटंकी पड़ा है वह इसी नौटंकी के नाम पर पड़ा है, क्योंकि इस स्वांग में शाहज़ादी का नाम ही नौटंकी है. आगे किताब में इसी चर्चा को जारी रखते हुए इसे बहुत खूबसूरती के साथ नौटंकी विधा के जोड़ा गया है, जिससे ये स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि आखिर नौटंकी शाहजादी से ही इस विधा का नाम नौटंकी क्यों पड़ा- ‘वैसे मुझे यह बात अब सही मालूम होती है दादा कि क्यों सांगीत या स्वांग को नौटंकी के नाम से नवाज़ने का हक इस नौटंकी शाहज़ादी को जाता है. मेरे कहने का मतलब यह है कि एक साथ जितना दौडड, दोहा, चौबोला, कव्वाली, गज़ल, झूलना, लावनी, लंगड़ी, दुबोला, छन्द और सबसे बड़ी बात आल्हा का इस्तेमाल इसमें हुआ है, उतना शायद किसी औऱ सांगीत में हुआ हो. आगे लेखक बेहद ही खूबसूरती के साथ स्वांग के जनक नथाराम गौड़ का बखान भी कहानी के एक पात्र से करवा देते हैं और उनकी तुलना शेक्सपियर से कर जाते हैं.
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उपन्यास नौटंकी के उस स्वर्णिम काल को भी दिखाता है जब लोग नौटंकी की न सिर्फ कद्र किया करते थे, बल्कि इसके लिए दीवाने थे. उपन्यास में नायिका रागनी का नाम सुनते ही भीड़ धक्का-मुक्की पर उतर जाती है. और वो जिस शहर में भी शो करने जाती है वहां उसके पहुंचते ही एक बार शहर में उसकी गाड़ी घुमाई जाती है, जिससे लोगों को इस बात की तसल्ली हो जाए की उन्हें धोखा नहीं दिया जा रहा है और रागिनी खुद ये शो करने जा रही हैं. खास बात ये है की ये लोग जो रागिनी को दीवानों की हद तक चाहते हैं ये सब उसकी आवाज़ के लिए पागल हैं. उसकी अदाकारी के कायल हैं. कहीं भी कोई फूहड़ता नज़र नहीं आती है.
वहीं उपन्यास आगे चलकर नौटंकी के पतन और उस विडम्बना का भी करुणामयी पाठ प्रस्तुत करता है, जिसने हमारे समाज में एक हिकारत और उपहास भरा मुहावरा गढ़ लिया है. एक ऐसा मुहावरा जिसने मान्य छन्दों की खनक को बदरंग कर दिया है. भगवानदास मोरवाल अपनी इस कृति में इस बात को भी बड़ी ही संजीदगी, लेकिन सहजता के साथ रखते हैं. साथ ही वो जातिवाद पर भी प्रहार करते हैं- 'पता नहीं कलाकारों के नाम पर कहां–कहां से बेड़नियों औऱ कंजरियों को लाकर भर्ती कर लेते हैं. बेड़नी तो गुलाब बाई भी थी नेमसिंह. मगर उसने इस नौटंकी का सिर नहीं झुकने दिया, बल्कि कानपुर की नौटंकी का आज अगर सिर ऊंचा है तो इसी गुलाब बाई की वजह से है. बेड़िया जाति को हमारा समाज जिस बुरी नज़र से देखता था, गुलाब बाई ने उसे बदल दिया. एक बात कहूं बहना, इसमें कसूर बेचारी इन आर्टिस्टों का भी नहीं है, ये भी क्या करें. सबकी कुछ-न-कुछ मजबूरी है. वैसे भी इस लाइन में आने वाली ज्यादातर बहनें दलित, गरीब, मुसलमान औऱ उन जातियों से हैं जिन्हें कभी इस समाज ने इज़्जत ही नहीं दी. इक्का-दुक्का आर्टिस्ट को छोड़ दें तो ऐसी कोई आर्टिस्ट नज़र नहीं आती, जो किसी बामन-बनिया परिवार से आती हो. हां, मर्द आर्टिस्ट आपको इन परिवारों से मिल जाएंगे. इसीलिए इस पेशे में हम औरतों को इज्ज़त की नज़र से नहीं देका जाता है. नौटंकी का मतलब आज सिर्फ कूल्हे मटकाना भर रह गया है.
एक जगह उपन्यास का एक किरदार रागिनी के साथ जो संवाद हैं उसमें भी नौटंकी के पतन और उसे लेकर लोगों की बदलती मानसिकता दिखाता है- 'दरअसल, स्वांग–नौटंकी के कलाकारों को हमारा समाज ऐसा ही समझता है. इन कलाकारों की इन्हें कला दिखती ही नहीं है. पता नहीं रागिनी तुम्हें पता है या नहीं, पर यह सच है कि इस इलाके में हम कहीं शो करने जाते हैं, तो लोग आपस में यही कहते हुए तमाशा देखने आते हैं कि रंडीन का नाच देखने जा रहे हैं. राधेश्याम शर्मा के चेहरे पर अपमान और विषाद की गहरी लकीरें उभर आई'.
अगर कहानी के हिसाब से देखा जाए तो भी इस उपन्यास में एक खूबी है वो है कहानी की तरलता. लेखक ने जो कहानी का प्रवाह रखा है वो कहानी में गुंथे इतिहास को जटिल होने से रोकता है औऱ पाठक कहानी का आनंद लेने के साथ साथ नौटंकी के इतिहास से भी रू ब रू हो जाता है. एक अहम पहलू और भी है, कहानी कहीं भी कुछ नकारात्मक नहीं दिखाती है. यहां तक कि कोई किरदार भी धूसर रंग लिए हुए नज़र नहीं आता, बल्कि जिस तरह नौटंकी जिसके साथ तमाम प्रकार की अश्लीलता को जोड़कर देखा जाता है. उसके इतिहास को कहानी में जिस तरह से पिरोया गया है, उससे पुरूष वर्ग की शालीनता को बेहद ही संजीदगी के साथ दिखाया गया है. खासकर रागिनी के पति का चरित्र जो जब कहानी में आता है तो एक पल को लगता है कि ये कुछ नकारात्मक रवैया अपनाएगा, लेकिन ऐसा होता नहीं. हालाकि लेखक उपन्यास के एक किरदार के मुंह से ये बात बुलवा भी देता है और इस तरह वह पुरुष वर्ग और कहानी के चरित्र को अच्छी तरह से बयान कर देता है. 'मैंने उस दिन तुझसे कहा था कि तू जिस सुख की बात कर रही है वो जिंदगी का एक पहलू है. दूसरे पहलुओं को भी देखना ज़रूरी है. इसका मतलब यही है कि सुख का मतलब खाली मर्द की चाह ही नहीं होती है, वह भी होती है जो बुरे वक्त में काम आए. वैसे एक बात कहूं काली, ऐसा आदमी औरत को बहुत सुख देता है जो दुनिया औऱ समाज की परवाह नहीं करता है'.
उपन्यास का अंत कलाकार के प्रति शासन के उदासीन रवैये को दिखाते हुए एक नैराश्य उतपन्न करता है. अपनी प्रखर संवेदना, रंगीन क़िस्सागोई और अपनी सरल भाषा लिए कथाकार भगवानदास मोरवाल की यह रचना एक अनूठी उपलब्धि है. अनूठी इसलिए कि नौटंकी अर्थात सांगीत को केन्द्र में रखकर आख्यान रचना एक चुनौती भरा काम है. मगर लेखक ने इस चुनौती को स्वीकारा भी औऱ सफलतापूर्वक निभाया भी है. लेखक का प्रयास इस अंजान कहानी को अपनी परिणति तक पहुंचाने में बखूबी कामयाब रहा है.
एक अलक्षित और उपेक्षित लोक-कला में समाहित जीवन की ओर लौटते हुए, इसके बहुविध रूपों और भाव-प्रवाह को लेखक, न केवल समृद्ध किया है बल्कि इससे पाठक व हमारा साहित्य दोनों समृद्ध होंगे-ऐसा विश्वास है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)