उत्तर-पूर्व के राज्यों में पिछले कई सालों से सत्ता पर काबिज सरकारों ने आदिवासियों के लिए बातें तो बहुत कीं, लेकिन उनके लिए कुछ ठोस निकलकर नहीं आ पाया है.
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उत्तर-पूर्वी राज्यों में आदिवासियों का समर्थन सत्ता में काबिज होने में महती भूमिका निभाता है. ये वो राज्य हैं जहां आदिवासियों की संख्या और संघर्ष सालों पुराना है. त्रिपुरा में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी 25 साल पुरानी वाम सरकार को पीछे छोड़ते हुए सत्ता पर कब्ज़ा हासिल करती दिखाई दे रही है उससे लगता है कि लेफ्ट का जनता के साथ जुड़े रहने का फॉर्मूला भी पुराना हो गया है. और आदिवासी भी अब उनसे उकता से गए हैं तभी मणिक सरकार की ईमानदारी भी वाम सरकार के कुछ काम नहीं आ सकी. आदिवासियों का समर्थन भाजपा के पक्ष में जाता हुआ दिखा. वहीं उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में जहां पिछले चुनाव में भाजपा को महज़ 1.5 फीसदी वोट ही हासिल हो पाए थे, उसका बहुमत जुटा लेना और सत्ता पर काबिज़ हो जाना या बढ़त हासिल करके मुख्य पार्टी के तौर पर खुद को प्रस्तुत करना ये बताता है कि उत्तर-पूर्व में भी जनता बदलाव की ओर देख रही है. आदिवासी जनता जो पिछले कई सालों से अपनी परंपराओं को जीवित रखने और विकास के साथ जुड़ने को लेकर संघर्ष कर रही है वो शायद एक प्रयोग कर ये देखना चाहती है कि क्या सत्ता में किसी नए को लाने से कुछ बदलाव होगा.
वहीं अगर नागालैंड में देखे तो यहां भी नागा पीपुल्स फ्रंट (NPF) का मुख्य उद्देश्य नागा जनजाति की समस्याओं को बातचीत से सुलझाना था. साल 1963 में बनी डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ नागालैंड को ही नागा पीपुल्स फ्रंट (NPF) के नाम से जाना जाता है. दरअसल, पुरानी पार्टी का ही नाम साल 2003 में नागा पीपुल्स फ्रंट रख दिया गया था. फिलहाल इस पार्टी को एक क्षेत्रीय दल के रूप में मान्यता मिली हुई है. यह पार्टी छह बार सत्ता पर काबिज हो चुकी है लेकिन लगता है इस बार जिस तरह भाजपा ने इनसे गठबंधन तोड़कर पार्टी के ही पुराने नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नीफ्यू रियो की नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी का साथ देने का मन बनाया और जिस तरह से नागालैंड में चुनावी नतीजे सामने आ रहे हैं उससे जाहिर होता है कि वहां की जनता का क्षेत्रीय नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रियो पर भरोसा कायम है. यह वही रियो हैं जिनके लिए तात्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था, ‘नगा जनता को आपसे बड़ी अपेक्षाएं हैं. उन्हें उम्मीद है कि आप विभिन्न नगा जनजातियों के एक साथ रहने की इच्छा को तरजीह देते हुए नगा राजनीतिक समस्या का शीघ्र समाधान करेंगे और हम सभी इस कार्य में आपकी मदद के लिए तैयार हैं’.
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दरअसल आदिवासियों के विकास के लिए आजादी के बाद से यहां पर बात हो रही है. 1952 में जब प्रधानमंत्री ने नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर का दौरा किया था उसके बाद उन्होंने अपनी राय प्रकट करते हुए लिखा था, ‘हमें आदिवासियों को यह यकीन दिलाना होगा कि उन्हें अपनी इच्छा और प्रतिभा के हिसाब से तरक्की करने का पूरा अधिकार है, उनके लिए भारत की भूमिका सिर्फ संरक्षणकारी शक्ति की ही नहीं बल्कि तारणहार की भी होगी.’
दरअसल 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित हुआ था. इस एक्ट के चैप्टर पांच में बाहरी (excluded) और आंशिक रूप से बाहरी क्षेत्र दो क्षेत्र बनाए गए. ये दोनों ही क्षेत्र सभी आदिवासी समुदायों के क्षेत्र थे. इस एक्ट में कहा गया था कि केंद्र और राज्य का कोई भी कानून यहां लागू नहीं होगा. इसका मतलब यही था कि आदिवासी क्षेत्र अंग्रेजी हुकूमत के उन तमाम कानून से मुक्त थे जो जल, जंगल और जमीन को लूटने के लिए अंग्रेजों ने बनाए थे. आजादी के बाद जब भारत का संविधान तैयार हुआ तो अनुच्छेद 244 में यह प्रावधान किया गया कि जितने भी आदिवासी क्षेत्र थे उन्हें पांचवी और छठी अनूसूची में बांट दिया जाए.इस तरह से पांचवी सूची में उन क्षेत्रों की पहचान की गई थी जहां आदीवासी समुदाय रहा करते थे. इन क्षेत्रों को शेड्यूल एरिया कहा गया. और जिन राज्यों में आदिवासी बाहुल्य थे जैसे मिजोरम, नागालैंड, असम, जहां आदिवासियों की संख्या लगभग 95 फीसदी थी, इन्हें छठी अनुसूची में शामिल करके आदिवासी क्षेत्र कहा गया. इन क्षेत्रों के लिए प्रबंधन को आदिवासी केंद्रित बनाने का प्रावधान किया गया था. इन क्षेत्रों के सामान्य और सभी कानून आदिवासी कल्याण की दृष्टि में रखकर लागू किए जाने थे लेकिन 1950 के बाद विधायिका ने इस पक्ष में कोई ध्यान नहीं दिया जिसका नतीजा यह रहा कि इन राज्यों में वर्ग संघर्ष ज्यादा देखने को मिला है.
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इन राज्यों में पिछले कई सालों से सत्ता पर काबिज सरकारों ने आदिवासियों के लिए बातें तो बहुत कीं, लेकिन उनके लिए कुछ ठोस निकलकर नहीं आ पाया है. दरअसल आदिवासियों के विकास के नाम पर या तो उन्हें विशेषाधिकार देने की बात कह दी जाती है या फिर उनके लिए कोई कल्याणकारी योजना की घोषणा हो जाती है. लेकिन उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहने वाले आदिवासी समुदायों की सबसे बड़ी लड़ाई उनकी परंपरा और संस्कृति को लेकर है. वो अपने समुदाय के बने हुए कानूनों में किसी और का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते हैं. वैसे तो इस तरह का संघर्ष देश के कई और आदिवासी समुदायों में देखने को मिलता है लेकिन सुदूर पहाड़ी इलाका होने और दूसरे देशों के साथ जुड़ी हुई सीमाओं की वजह से यहां कीस्थिति दूसरे राज्यों से बिल्कुल अलग बन जाती है.
यहां मामला ज्यादा संवेदनशील है और यहां का आदिवासी अपनी परंपराओं में कोई भी अड़ंगा नहीं चाहता है. साथ ही कहीं ना कहीं यहां के लोगों में हमेशा से एक अस्तित्व का खतरा रहा है. उनको कहीं ना कहीं लगता है कि हम भारतीय तो हैं लेकिन उस तरह से नहीं हैं जिस तरह से कोई उत्तर या दक्षिण भारतीयहोता है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को इस तरह से मिलता समर्थन यह बताता है कि शायद आदिवासियों को उम्मीद है कि दक्षिणपंथ उनकी परंपराओं को बचाए रखते हुए उनके अस्तित्व को खतरे में पड़ने से बचा सकता है.
वैसे भी जिस तरह से उत्तर-पूर्व से हमेशा दूसरे देशों के साथ समर्थन की बात सामने आती है अगर उस पर भी गौर करें तो हम पाते हैं कि यहां लोग अगर चीन की तरफ देखते हैं तो उन्हें तिब्बत के साथ किया हुआ चीन का सलूक नज़र आता है. म्यांमार का अल्पसंख्यकों के साथ किया गया व्यवहार भी इनसे छिपा नहीं है. उसी तरह बांग्लादेश के पर्वतीय क्षेत्र चटगांव में जिस तरह से आदिवासियों के साथ बर्ताव किया गया और उन्हें जिस तरह से अलग-थलग कर दिया गया है वो हाल भी उनके सामने है.
ऐसे में उत्तर-पूर्व के आदिवासियों ने उस पार्टी को समर्थन देने का मन बनाने की सोची जिसने पिछले कुछ सालों से खबरों में हाशिये पर पड़े इन राज्यों को खबरों में ला दिया है. यहां के बाशिंदों के मन में शायद यही बात घर कर रही है कि शायद दक्षिणपंथी ही उनकी परंपराओं का आदर कर सकते हैं और इसके साथ विकास करने में मदद कर सकते हैं.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)