Lok Sabha Chunav 2024 News: राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दल या निर्दलीय कोई भी उम्मीदवार हो चुनाव के दौरान अक्सर चुनाव चिन्ह से ही उसकी पहचान होती है. लोकसभा चुनाव 2004 से पहले टूटी कई पॉलिटिकल पार्टियों के दोनों गुटों के बीच अपने चुनाव चिन्ह के लिए कानूनी लड़ाई तक लड़ी गई. चुनाव चिन्ह किसी भी चुनाव का एक बेहद अहम हिस्सा होता है. 


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सियासी पार्टी और उम्मीदवारों की पहचान है चुनाव चिन्ह


चुनाव चिन्ह किसी भी एक पार्टी की खास पहचान होती है. इसके साथ ही मतदाताओं को उम्मीदवारों को पहचानने में भी मदद करता हैं. आइए, किस्सा कुर्सी का में जानते हैं कि जब सियासी पार्टियां टूटती हैं तो चुनाव चिन्ह के लिए लड़ाई क्यों होती है? साथ ही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस और सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के चुनाव चिन्ह 'हाथ का पंजा' और 'कमल' का इतिहास क्या है?


देश में कैसे हुई चुनाव चिन्हों की शुरुआत


देश के पहले लोकसभा चुनाव 1951-52 से पहले भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने महसूस किया कि ऐसे देश में चुनाव चिन्ह महत्वपूर्ण थे, जहां साक्षरता दर 20 फीसदी से कम थी. यह निर्णय लिया गया कि चुनाव में भाग लेने वाले दलों का प्रतीक या निशान परिचित और आसानी से पहचाने जाने योग्य होने चाहिए. साथ ही किसी भी धार्मिक या भावनात्मक जुड़ाव वाले निशान जैसे गाय, मंदिर, राष्ट्रीय ध्वज, चरखा वगैरह को मतपत्र पर नहीं दिखाना चाहिए. तब जिन पार्टियों को राष्ट्रीय और राज्य पार्टियों के रूप में मान्यता दी गई थी, उन्हें आयोग से अनुमोदित 26 चिन्हों की सूची में से विकल्प की पेशकश की गई थी.


देश में चुनाव चिन्ह कैसे आवंटित किये जाते हैं?


मौजूदा समय में, चुनाव संचालन नियम, 1961 के नियम 5 और 10 पार्टियों के प्रतीकों से संबंधित हैं. नियम 5 में कहा गया है कि चुनाव आयोग "उन प्रतीकों उन प्रतिबंधों को निर्दिष्ट करेगा जो संसदीय या विधानसभा क्षेत्रों में चुनावों में उम्मीदवारों द्वारा चुने जा सकते हैं. यह उनकी पसंद अधीन होगी." चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 एक "आरक्षित प्रतीक" को परिभाषित करता है.


क्या होते हैं फ्री पोल सिंबल या "मुक्त प्रतीक"


इसका मतलब, जो "किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के लिए विशेष रूप से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को आवंटित करने के लिए आरक्षित है." चुनाव आयोग के पास आरक्षित प्रतीक के अलावा निशानों का एक और बैंक  होता है. इसे फ्री पोल सिंबल या "मुक्त प्रतीक" कहते हैं. स्वतंत्र या निर्दलीय और गैर-मान्यता प्राप्त पंजीकृत दलों को उनके अनुरोध और प्राथमिकताओं के आधार पर मुफ्त प्रतीक आवंटित किए जाते हैं.


कांग्रेस के चुनावी प्रतीक का काफी पुराना सिलसिला


1952 के आम चुनाव से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पसंदीदा प्रतीक 'बैलों वाला हल' था. उसके बाद 'चरखा वाला कांग्रेस ध्वज' था. हालांकि, 17 अगस्त, 1951 को कांग्रेस को 'जुए के साथ दो बैल (बाद में 'बैल') आवंटित किए गए थे. कांग्रेस का आज का चुनावी प्रतीक 'इंसान के हाथ का पंजा' तब ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (रुइकर ग्रुप) को आवंटित किया गया था.


कांग्रेस का दो गुटों कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) में बंटवारा


साल 1969 में, कांग्रेस दो गुटों कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर) में विभाजित हो गई. एस निजलिंगप्पा की अध्यक्षता वाला 'ओ' यानी 'ऑर्गनाइजेशन' के लिए खड़ा था और जगजीवन राम की अध्यक्षता वाला 'आर', 'रिक्विजिशनिस्ट्स' के लिए था. 11 जनवरी, 1971 को चुनाव आयोग ने फैसला किया कि जगजीवन राम की कांग्रेस, जिसे इंदिरा गांधी का समर्थन प्राप्त था, असली कांग्रेस थी.


लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के आदेश पर रोक लगा दी और फैसला सुनाया कि कोई भी समूह 'जुए के साथ दो बैलों' का उपयोग करने का हकदार नहीं होगा. 25 जनवरी, 1971 को चुनाव आयोग ने निजलिंगप्पा समूह को 'महिला द्वारा चलाया जाने वाला चरखा' और जगजीवन राम/इंदिरा समूह को 'बछड़ा और गाय' का निशान आवंटित किया.


कई नेताओं ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि 'बछड़ा और गाय' या 'गोमाता' हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं से संबंधित है, लेकिन चुनाव आयोग ने इन ऐतराजों को खारिज कर दिया.


बछड़ा और गाय निशान के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गईं इंदिरा गांधी


सत्तर के दशक के अंत में, इंदिरा-जगजीवन राम कांग्रेस फिर से विभाजित हो गई और इंदिरा विरोधी समूह का नेतृत्व देवराज उर्स और के ब्रह्मानंद रेड्डी ने किया. 2 जनवरी 1978 को इंदिरा को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने 'बछड़ा और गाय' को बनाए रखने के लिए चुनाव आयोग से संपर्क किया. आयोग के 'नहीं' कहने के बाद इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. कोर्ट ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और याचिका को वापस ले ली गई मानकर खारिज कर दिया.


इंदिरा समूह की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) को मिला हाथ का पंजा


चुनाव आयोग ने 2 फरवरी, 1978 को इंदिरा समूह को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई) नामक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी और इसे 'हाथ का पंजा' प्रतीक आवंटित किया. 1979 में चुनाव आयोग ने 'बछड़ा और गाय' प्रतीक को रद्द कर दिया. बाद में देवराज उर्स गुट को 'चरखा' प्रतीक के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (यू) नामक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी.


चुनाव आयोग (ईसीआई) ने बाद में निर्णय लिया कि कांग्रेस (आई) वास्तव में असली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस थी. लोकसभा चुनाव 1984 के बाद से कांग्रेस (आई) 'हाथ' चुनाव चिन्ह के साथ कांग्रेस बन गई.


भारतीय जनसंघ से भाजपा और जलते दीपक से खिला हुआ कमल


भारतीय जनसंघ (बीजेएस) को 7 सितंबर, 1951 को चुनाव चिन्ह के रूप में 'जलता हुआ दीपक' ('लैंप') आवंटित किया गया था. बीजेएस ने 'लैंप' का उपयोग तब तक जारी रखा जब तक कि 1977 के चुनाव से पहले इसका अनौपचारिक रूप से जनता पार्टी में विलय नहीं हो गया. जनता का जन्म चार राष्ट्रीय पार्टियों और कुछ गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियों के मिलने से हुआ था.


नई बनी जनता पार्टी को जल्द ही कई विभाजनों का सामना करना पड़ा. पहले बीजेएस के साथ रहे नेताओं का एक समूह 6 अप्रैल, 1980 को दिल्ली में मिला और अटल बिहारी वाजपेयी को अपना नेता घोषित कर दिया. दोनों समूहों ने असली जनता पार्टी होने का दावा किया. हालांकि, चुनाव आयोग ने फैसला सुनाया कि अंतिम निर्णय तक कोई भी इस नाम का उपयोग नहीं कर सकता.


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भाजपा को मिला कमल का नया निशान, पांच पुराने प्रतीक खत्म


चुनाव आयोग ने 24 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी के प्रतीक 'हलधर इन व्हील' को जब्त कर लिया. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के समूह को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नाम से एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी. इसे 'खिला हुआ कमल' प्रतीक आवंटित किया गया. 


'हलधर इन व्हील' के अलावा, जनता पार्टी विभाजन के बाद चार अन्य प्रतीक 'दीपक' (तत्कालीन बीजेएस का), 'पेड़' (तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी का), 'चरखा चलाती महिला' (कांग्रेस 'ओ' का) और 'खेत जोतता किसान' (जनता पार्टी-एस का) समाप्त हो गए. 


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