Anshuman Jha Movie: लकड़बग्घा बॉलीवुड की मसाला फिल्मों से अलग एक सार्थक विषय पर बात करती है. मगर फिल्म ऐसी विधा है, जिसमें आत्ममुग्ध होना नुकसानदायक है. यह लकड़बग्घा में देखा जा सकता है.
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Riddhi Dogra Debut Film: बात कुत्तों की और कहानी लकड़बग्घे की. यह है निर्देशक विक्टर मुखर्जी की फिल्म लकड़बग्घा. फिल्म का हीरो अपना मुंह छुपा कर स्ट्रीट डॉग्स या कहिए आवारा कुत्तों को खिलाने-पिलाने और उन्हें सड़क पर मरने से बचाने का काम करता है. लेकिन फिल्म में विलेन भी है, जो इन्हीं कुत्तों को उठवा कर उनकी तस्करी करता है, विदेश भेजता है, रेस्तराओं में उनकी सप्लाई करता है, जहां इनका मीट बकरे या चिकन के साथ मिलाकर ग्राहकों को परोस दिया जाता है. लेकिन इन सबके बीच लकड़बग्घा कहां से आ गयाॽ यही फिल्म का टर्निंग पॉइंट है.
कुछ मिसिंग है यहां
अंशुमान झा ने फिल्म के लिए कड़ी मेहनत की है और लकड़बग्घा बताती है कि वह अपने किरदार के लिए कितना पसीना बहाने को राजी हैं. मगर सवाल कहानी और स्क्रिप्ट का है. संभवतः बजट का भी हो. लकड़बग्घा में कई सीन मिसिंग जैसे हैं, जिन्हें होना चाहिए था. मगर नहीं हैं. फिल्म की सबसे बड़ी समस्या इसकी रफ्तार और एडिटिंग है. एक तो फिल्म बहुत धीमी गति से चलती है और दूसरे बड़े विषय को उठाने के बाद भी इसमें उतने ट्रेक या किरदार नहीं हैं, जो इसमें थ्रिल भरते, रफ्तार देते या कथानक को बड़ा बनाते. पूरी कहानी को मुख्य रूप से तीन किरदारों के तिकोन में समेट दिया गया. अर्जुन बख्शी (अंशुमान झा), क्राइम ब्रांच ऑफिसर अक्षरा डिसूजा (रिद्धी डोगरा) और तस्कर आर्यन (परेश पाहुजा).
कुत्ते से लकड़बग्घे तक
लकड़बग्घा फिल्म में कुत्तों की प्रजातियों के बारे में, उनके स्वभाव और उनकी प्रकृति की बातें विस्तार से बताती हैं. अर्जुन बख्शी इन जानवरों से खूब प्यार करता है और बारीक से बारीक जानकारी रखता है. काम वह कुरियर बॉय का करता है और बच्चों को मार्शल आर्ट सिखाता है. उसका प्यारा स्ट्रीट डॉग शैंकी नहीं मिल रहा है और वह उसकी तलाश में कोलकाता भर में यहां-वहां भटकता है. इसी दौरान वह जब कुत्तों की तस्करी करने वाले गैंग के लोगों तक पहुंचता है, तो उसके हाथ एक दुर्लभ लकड़बग्घा लगता है, जिसे पानी के जहाज से दुबई भेजा जाना है. अर्जुन इस लकड़बग्घे को बचाकर अपने साथ ले आता है और एक जगह पर छुपा कर रख देता है. अब विलेन को उसकी तलाश है.
कहानी में तर्क
हीरो और विलेन की लड़ाई के बीच तीसरा कोण क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा डिसूजा है. राइटर-डायरक्टर ने यहां अर्जुन और अक्षरा के बीच प्रेम की संभावनाएं ढूंढी और उसे रंग भी चढ़ाया. हालांकि इससे फिल्म को कोई खास फायदा या नुकसान नहीं हुआ. इतना जरूर है कि कई लोगों को यह फार्मूले की तरह लग सकता है. मगर स्क्रिप्ट का सबके कमजोर हिस्सा पुलिस और विलेन के रिश्ते का है. यहां तक आते-आते कहानी में तर्क भी दम तोड़ने लगता है. इसमें संदेह नहीं कि अर्जुन बख्शी के रूप में अंशुमान झा अपने किरदार को खास ढंग से जीते नजर आते हैं. जिसमें वह शर्मीले हैं और आगे रह कर किसी से लड़ना नहीं चाहते. फिर भी मौका आने पर जूडो-कराटे का कमाल दिखाते हैं.
अगर आप हैं डॉग लवर
लकड़बग्घा की धीमी रफ्तार इसके रोमांच को नष्ट करती है. साथ ही अंशुमान को जमाने के लिए लंबे-लंबे सीन रचे गए हैं. किसी सीन विशेष में मुद्दे की बात खत्म होने के बाद भी सीन खत्म नहीं होता. आपको इंतजार करना होता है कि कहानी आगे बढ़े. फिल्म को अच्छे ढंग से शूट किया गया है. निर्देशक ने लंबाई का मोह नहीं किया होता तो फिल्म कसा जा सकती थी. लकड़बग्घा में हीरो के मार्शल आर्ट्स जानने की वजह से क्लाइमेक्स से पहले तक हैंड-टू-हैंड फाइट रखी गई हैं और अंशुमान इन दृश्यों में जमे हैं. ये सीन काफी हद तक वास्तविक नजर आते हैं. टीवी और वेब सीरीज से आईं रिद्धी डोगरा की यह पहली फिल्म है और उन्होंने अपना रोल बखूबी निभाया है. सिक्किम से आईं एक्शा केरुंग को ज्यादा जगह तो नहीं मिली मगर विलेन की राइट हैंड के रूप में वह कुछ दृश्यों में अपनी छाप छोड़ती हैं. पूरी फिल्म अपने इर्द-गिर्द रखने वाले अंशुमान झा को समझना होगा कि ज्यादा दिखने से अधिक जरूरी है, कहानी को प्रभावी रखना. वर्ना दुर्लभ लकड़बग्घे और स्ट्रीट डॉग का फर्क मिट जाता है. अगर आपके पास समय है, आप डॉग लवर हैं और स्ट्रीट डॉग्स के लिए आपके मन में सहानुभूति है तो फिल्म आपको अच्छी लगेगी क्योंकि कुछ जरूरी बातें इसमें हैं.
निर्देशकः विक्टर मुखर्जी
सितारेः अंशुमान झा, रिद्धी डोगरा, परेश पाहुजा, मिलिंद सोमण, एक्शा केरुंग
रेटिंग **1/2
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