चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संवैधानिक पीठ ने सिटिजनशिप एक्ट की धारा 6-ए को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई की शुरुआत कर दी है. असम समझौते के चलते नागरिकता कानून में जोड़े गए इस विशेष प्रावधान में क्या है और क्यों इसे खत्म करने की मांग की जा रही है.
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चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने 5 दिसंबर को सिटिजनशिप एक्ट की धारा 6-ए को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई शुरू कर दी है. सुप्रीम कोर्ट में साल 2009 में इस मुद्दे पर एक गैर सरकारी संगठन असम पब्लिक वर्क्स की ओर से दायर याचिका सहित कम से कम 17 याचिकाएं पेंडिंग हैं. साल 2014 में दो जजों की बेंच ने इस मामले को आगे की सुनवाई के लिए कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच के पास भेज दिया था. असम के कई संगठनों और लोगों ने अपनी अर्जी में नागरिकता कानून के इस विशेष प्रावधान की वैधता को चुनौती देते हुए कहा है कि यह मनमाना है, संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और इसके चलते असम के स्थानीय लोग अपनी ही मातृभूमि में भूमिहीन और विदेशी बनने के लिए मजबूर हो रहे हैं. याचिका दाखिल करने वाले लगभग सभी लोगों और संगठनों ने गुहार लगाई है कि केवल पूर्वोत्तर राज्य पर लागू होने वाली नागरिकता अधिनियम की धारा 6-ए को निरस्त कर दिया जाए. इसके अलावा याचिका में सुप्रीम कोर्ट से केंद्र सरकार को 1951 के बाद असम आए भारतीय मूल के लोगों के पुनर्वास के लिए नीति बनाने का निर्देश देने की मांग की गई है. सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को भी इन याचिकाओं पर सुनवाई जारी रहेगी.
17 पेंडिंग याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल हैं. सुप्रीम कोर्ट इस सुनवाई के पहले दिन केंद्र सरकार से साल 1966 से 16 जुलाई 2013 तक सिटिजनशिप एक्ट की धारा-6 का लाभ पाने वालों का डेटा पेश करने के लिए कहा है. संवैधानिक पीठ ने केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि 1966 से 1971 के बीच देश में आने वाले बांग्लादेशी घुसपैठियों या प्रवासियों से जुड़ा कोई मैटेरियल या सबूत नहीं होने से यह पता नहीं चल रहा है कि उन्हें बड़ी संख्या में नागरिकता दिए जाने से असम की जनसंख्या और सांस्कृतिक पहचान पर कैसे और कितना फर्क पड़ा है. हालांकि, सीजेआई चंद्रचूड़ ने असम में सीमापार से होने वाली घुसपैठ को स्वीकार करते हुए कहा कि बांग्लादेश की मुक्ति के लिए 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण अप्रवासी भी आए थे. सीजेआई की बेंच ने मानवीय पहलू जोड़ते हुए याचिका करने वालों से कहा कि अगर संसद अवैध आप्रवासियों के केवल एक समूह को माफी दे देती है तो यह बहुत अलग है, लेकिन इससे इनकार नहीं कर सकते कि नागरिकता कानून की धारा 6-ए को इतिहास से जुड़े वक्त पर लागू किया गया था. बांग्लादेश के गठन में भारत की बहुत अहम भूमिका थी, क्योंकि बांग्लादेश की तरह हम भी युद्ध का हिस्सा थे. उसी दौरान अवैध रूप से लोग भारत की सीमा में आए थे. सीजेआई चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की कि धारा 6-ए की वैधता इसके लागू के बाद पैदा हुए राजनीतिक और बाकी घटनाक्रमों से तय नहीं की जा सकती है.
सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6-ए क्या है
साल 1985 में असम समझौते के तहत भारत आने वाले लोगों की नागरिकता के मसले को सुलझाने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में एक विशेष प्रावधान के रूप में धारा 6-ए जोड़ी गई थी. इसमें स्पष्ट कहा गया है कि साल 1985 में बांग्लादेश समेत क्षेत्रों से जो लोग 1 जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 तक असम आए हैं और तब से वहां रह रहे हैं, उन्हें भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिए सिटीजनशिप एक्ट की धारा 18 के तहत अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा. इस विशेष प्रावधान के चलते असम में बांग्लादेशी प्रवासियों को नागरिकता दिए जाने की अंतिम तारीख 25 मार्च 1971 तय कर दी गई. साल 1985 में कई अग्र प्रदर्शनकारी स्टूडेंट ग्रुप्स और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव-गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के बीच असम समझौता या असम एकॉर्ड पर दस्तखत किया गया था. इस समझौते के बाद असम में बांग्लादेश से कथित अवैध प्रवासियों के घुसपैठ के खिलाफ छह साल के जारी आंदोलन खत्म हुआ था।
सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6-ए के खिलाफ याचिकाओं में क्या है
नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन के बाद जोड़े गए विशेष प्रावधान यानी धारा 6-ए का विरोध करने वाले असम के कई याचिकाकर्ताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के सामने सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान ने अपना पक्ष रखा. उन्होंने कहा कि नागरिकता अधिनियम, 1955 में इस संशोधन ने राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे पर आधारित संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किया है. दीवान ने कहा कि पश्चिम बंगाल में असम से ज्यादा अवैध अप्रवासी हैं, लेकिन यह विशेष प्रावधान असम के लिए इस तरह लागू किया गया जैसे कि यह बाहरी लोगों को सीमा के अंदर आने और भारतीय नागरिकता हासिल करने का लाइसेंस हो.
असम के पूर्व राज्यपाल एस के सिन्हा ने भी जताई थी अवैध बांग्लादेशियों पर चिंता
बांग्लादेश से असम में आए लोगों की वजह से होने वाले खतरों पर असम के पूर्व राज्यपाल एस के सिन्हा द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के हिस्से को भी दीवान ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश किया. एस के सिन्हा की रिपोर्ट में लिखा है कि बांग्लादेशी अवैध प्रवासियों के आने से असम के कई जिले मुस्लिम बहुल इलाके में बदल रहे हैं. कुछ समय बाद इसके बांग्लादेश के साथ विलय की मांग उठाई जा सकती है. एडवोकेट दीवान ने कहा कि अवैध प्रवासियों की बेतहाशा आवक और नागरिकता कानून के विशेष प्रावधान के कारण असम के मूल निवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक समेत कई नागरिक अधिकारों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. इससे पहले एसजी तुषार मेहता ने राज्यसभा में एक सांसद द्वारा पेश आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि साल 1966 और 1971 के बीच 5.45 लाख अवैध अप्रवासी असम आए थे. इसके मुकाबले साल 1951 से 1966 तक यह आंकड़ा 15 लाख था