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नई दिल्ली: कह सकते हैं कि आजाद भारत की राजनीति जितनी पुरानी है, उससे थोड़ी ही कम पुरानी है 'दल-बदल' की राजनीति. दशकों से भारत में दल-बदलू नेताओं का जलवा रहा है, जिन्होंने सरकारें गिरवाईं भी हैं और बनवाईं भी हैं. यहां तक कि दल-बदलू नेताओं के कारण मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक की कुर्सी दांव पर लगी है. यहां तक कि कुछ मामले तो ऐसे हुए जब इन कुर्सियों पर बैठे नेताओं को दल-बदलू सीएम या पीएम तक कह दिया गया. खैर, नेताओं के निजी स्वार्थ के लिए दल-बदलने की इस पृथा पर रोक लगाने के लिए एक कानून तक बनाना पड़ा, जिसे दल-बदल विरोधी कानून के नाम से जाना जाता है.
पार्टी बदलने वाले नेताओं की देश में कभी कमी नहीं रही है, फिर चाहे बात आज के समय की हो या आजादी के कुछ ही समय बाद की. अपने राजनीतिक और निजी लाभ के लिए सांसद-विधायक से लेकर छोटे-बड़े नेता दल बदलते रहे हैं. दल-बदलुओं का इतिहास उठाकर देखें तो 1957 से 1967 के बीच 542 सांसद/विधायक ने अपने दल बदले. लेकिन इसके बाद एक ऐसा रिकॉर्ड कायम हुआ, जिसने इस बात की गंभीरता से जरूरत जताई कि देश में दल-बदल कानून लाया जाए.
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दल-बदलुओं के इतिहास में साल 1967 कमाल का रहा. इस साल तो वर्ष में होने वाले 365 दिनों से ज्यादा मामले दल-बदल के आए. इस साल 430 बार सांसद/विधायक ने अपने दल बदले. इसमें हरियाणा के एक विधायक गयालाल के नाम भी एक रिकॉर्ड बना. उन्होंने 15 दिन में 3 बार पार्टी बदली और इतना ही नहीं एक दिन तो ऐसा रहा जिसमें उन्होंने 2 बार पार्टी बदल ली. वे पहले कांग्रेस से जनता पार्टी में गए. फिर वापस कांग्रेस में आए और 9 घंटे बाद फिर से जनता पार्टी में लौट गए. तभी से देश में 'आया राम-गया राम' का जुमला मशहूर हुआ. दल-बदल की ऐसी राजनीति के कारण 16 महीने में 16 राज्यों की सरकारें भी गिर गईं.
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जुलाई 1979 में तो ऐसी राजनीतिक घटना हुई जिसके कारण देश का प्रधानमंत्री ही बदल गया. जनता पार्टी में इतनी जबरदस्त दल-बदल हुई कि लोक दल पार्टी के चौधरी चरणसिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हो गए थे. वे पहले कांग्रेस में थे और बाद में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई थी. दल-बदल के कारण कुर्सी मिलने की इस घटना की चलते उन्हें भारत का पहला 'दल-बदलू प्रधानमंत्री' कहा जाता है.
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दल-बदल की इन बढ़ती घटनाओं ने जब राजनीति में भारी उथल-पुथल मचा दी तो 1985 में आज ही के दिन यानी कि 30 जनवरी को लोक सभा ने दल बदल विरोधी कानून पारित कर राजनीतिक दलबदलुओं के स्वत: अयोग्य होने का रास्ता साफ कर दिया. इस अधिनियम में कुछ ऐसे प्रावधान किए गए हैं, जिनके तहत दल-बदल करने वाले नेता की संसद/विधानसभा की सदस्यता समाप्त हो जाएगी. हालांकि इतने नियम-कानून बनाने के बाद भी दल-बदल की राजनीति कभी खत्म नहीं हो पाई. उल्टे चुनावों का समय आते ही इसमें भारी उछाल देखने को मिलता है.