Bihar Politics: 'रूठे यार को मनाएं कैसे' बिहार में भाजपा की असली परेशानी यही है, कैसे मिलेगी इससे मुक्ति
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Bihar Politics: 'रूठे यार को मनाएं कैसे' बिहार में भाजपा की असली परेशानी यही है, कैसे मिलेगी इससे मुक्ति

बिहार की सियासत में दो ही पार्टी अहम किरदार में नजर आती रही है. राजद या फिर भाजपा. दरअसल नीतीश कुमार को भी जब भी पाला बदलना पड़ा तो वह या तो भाजपा के साथ थे या फिर राजद के साथ चले गए. राजद के साथ नीतीश जब 2015 में गए तो राजद के लिए संजीवनी का काम किया.

(फाइल फोटो)

पटना: बिहार की सियासत में दो ही पार्टी अहम किरदार में नजर आती रही है. राजद या फिर भाजपा. दरअसल नीतीश कुमार को भी जब भी पाला बदलना पड़ा तो वह या तो भाजपा के साथ थे या फिर राजद के साथ चले गए. राजद के साथ नीतीश जब 2015 में गए तो राजद के लिए संजीवनी का काम किया. वहीं उनकी 2017 में भाजपा गठबंधन में वापसी के बाद भाजपा का अच्छा खासा जनाधार बढ़ा. बिहार में जदयू बड़ी पार्टी बनकर 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा उभरी. फिर भी भाजपा के लिए बिहार में परेशानी बड़ी है. इसकी सबसे बड़ी वजह बिहार में भाजपा के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं होना है. सुशील मोदी के रूप में बिहार में भाजपा के पास एक चेहरा था भी तो उन्हें केंद्र में लाया जा चुका है. ऐसे में भाजपा कैसे अपने रूठ यार को मनाए ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह बिहार की सीटों की वैतरणी पार कर पाए यह सवाल उनके सामने है. 

भाजपा के पास हिंदुत्व का भले आधार हो लेकिन पिछड़ों-दलितों का भरोसा जीतना उनके लिए चुनौती है. बिहार के कुछ नाम जो उनके साथ जुड़े भी वह किसी ना किसी पार्टी के दगे कारतूस हैं जो केवल चुनाव में असर डाल सकते हैं भाजपा की नैया पार नहीं करा सकते हैं. जैसे उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी, चिराग पासवान जैसे नाम इनके सहारे भाजपा लड़ाई तो लड़ सकती है लेकिन बड़ा खेल कर पाना उसके लिए संभव नहीं है. 

सुशील मोदी भाजपा के सबसे बड़े और नीतीश के सबसे भरोसेमंद नेता थे तो उन्हें पार्टी ने राज्यसभा भेज दिया. ऐसे में अब लालू यादव के साथ नीतीश भी सुशील मोदी के निशाने पर आ गए हैं. अब भाजपा के लिए संकट यह है कि क्या नीतीश के साथ सुशील मोदी की पुरानी जोड़ी की तरह इनके रिश्ते अब बेहतर रह सकेंगे या हो पाएंगे. ऐसे में सुशील मोदी पर भाजपा के द्वारा भरोसा करना संदेह से भरा ही लग रहा है. 

भाजपा के साथ उपेंद्र कुशवाहा और आरसीपी सिंह आ सकते हैं लेकिन पार्टी उनपर कितन भरोसा दिखाती है यह सोचने वाली बात होगी. इसके जरिए वैसे भाजपा लव-कुश समीकरण को साधने में तो कामयाब हो ही सकती है. वहीं बिहार में यादव वोट बैंक में भाजपा की हिस्सेदारी काफी कम या नगण्य ही है. यादवों का एकमुश्त वोट राजद के साथ रहा है. भाजपा के पास नित्यानंद राय और नंदकिशोर यादव जैसे चेहरे हैं लेकिन भाजपा को इससे ज्यादा फायदा होगा ऐसा दिख नहीं रहा है. 

भाजपा के पास सवर्णों को साधने का मौका है क्योंकि यह वोट बैंक भाजपा का है लेकिन इसकी वजह से दलित वोटर भाजपा से छिटकेंगे. ऐसे में भाजपा को बिहार में 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनाव के लिए कोई चेहरा सामने रखना होगा. भाजपा की नैया अभी तक नीतीश कुमार के सहारे ही पार लगती रही है. ऐसे में भाजपा के नेताओं को नीतीश का सहारा चाहिए. नीतीश के बिना भाजपा के लिए बिहार की राह आसान नहीं है. ऐसे में आपको बता दूं कि भाजपा को यह सोचना होगा कि वह अपने रूठे यार को कैसे मनाए. 

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