मुलायम-लालू की विरासत अखिलेश-तेजस्वी के पास, जानिए क्या होगी सबसे बड़ी चुनौती
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मुलायम-लालू की विरासत अखिलेश-तेजस्वी के पास, जानिए क्या होगी सबसे बड़ी चुनौती

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के निधन के बाद उनके बेटे अखिलेश यादव के सामने कई बड़ी चुनौती है. कुछ ही स्थिति बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की भी.

 

अखिलेश-तेजस्वी के लिए एक चुनौती और है.

पटना: Mulayam Singh Yadav: समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव पंचतत्व में विलीन हो गए. यूपी ही नहीं पूरे देश में शोक है. बिहार से भी इसका संबंध है. ना सिर्फ इसलिए कि राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े लालू परिवार से मुलायम की रिश्तेदारी थी, बल्कि लालू परिवार और मुलायम परिवार की पॉलिटिक्स एक सी है. उत्पति एक सी है. निहितार्थ एक से हैं. हालात एक से हैं. मुलायम नहीं रहे. अखिलेश के हाथ में पार्टी है. लालू बीमार हैं. तेजस्वी के हाथ में पार्टी है. 

मुलायम के निधन पर शोक की लहर
मुलायम सिंह यादव के निधन पर बिहार सरकार ने एक दिन के राजकीय शोक का ऐलान किया. लालू से लेकर नीतीश तक तमाम नेताओं ने शोक संवेदना प्रकट की. लेकिन ये महज राजनीतिक शिष्टाचार का मामला नहीं है. 

दलित-पिछड़ों की सबसे बड़े मसीहा लालू-नीतीश
यूपी में समाजवादी पार्टी और उसके संस्थापक मुलायम सिंह यादव और  बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और उसके संस्थापक लालू प्रसाद यादव ने अपने राज्यों की राजनीति और देश की राजनीति को जिस तरह से प्रभावित किया है वो आधुनिक भारत में मिसाल है. दोनों राज्यों में दलित-पिछड़ों के सबसे बड़े मसीहा के रूप में लालू और मुलायम उभरे. 

दोनों पार्टियों की उत्पति भी समाजवादी विचारधारा से हुई. वैसे तो पासवान, राजभर जैसे कई और नेता हुए लेकिन जितना व्यापक और लंबे समय तक असर इन दोनों ने डाला उतना किसी और ने नहीं. 

मुलायम यूपी में तीन बार खुद सीएम बने, फिर उनके बेटे अखिलेश भी बने. इसी तरह बिहार में लालू की पार्टी ने सरकार चलाई. लालू सीएम रहे, अब तेजस्वी डिप्टी सीएम हैं. जिस तरह से नीतीश की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा है, उसको देखते हुए कल को तेजस्वी को सीएम बनने का मौका भी मिल सकता है.

बिहार-यूपी में दलितों और पिछड़ों की हालत कुछ ठीक हुई है तो उसमें इन दो पार्टियों और परिवारों का बड़ा योगदान है. सियासत में इन तबकों को जो ताकत इन दोनों ने दिलाई वो मील का पत्थर है. खुद लालू केंद्र में रेल मंत्री रहे, मुलायम रक्षा मंत्री. आज आलम ये है कि दक्षिणपंथी पार्टियां भी आरक्षण के खिलाफ बोलने से घबराती हैं. 

दलित पिछड़े वोटर को इन्होंने ताकत दी तो उनपर परिवारवाद का भी आरोप लगा. दोनों ही पार्टियों में अब बागडोर अगली पीढ़ी के पास है. अखिलेश और तेजस्वी. अब इन दोनों पर जिम्मेदारी है कि अपने पिता की विरासत को ठीक से संभालें. 

तेजस्वी को कमान देने की तैयारी!
अभी हाल ही में राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बाद लालू प्रसाद यादव ने कहा कि अब से नीतिगत मसलों पर तेजस्वी ही बोलेंगे. पार्टी के बाकी लोग नहीं. तो लालू अंदरुनी कलह को शांत करने की कोशिश कर रहे हैं. ये ठीक है कि आखिर के समय में मुलायम शिवपाल और अखिलेश के बीच खाई पाटने में नाकाम रहे, लेकिन उन्होंने कोशिश पूरी की. 

अखिलेश-तेजस्वी के लिए चुनौती
उन्होंने अपने ज्यादातर सियासी जीवन में कुनबे को एक साथ रखने में कामयाबी पाई. जिस तरह से मुलायम और लालू ने अपने कुनबे को, मतलब परिवार और पार्टी दोनों को एक साथ जुटाए रखा, वैसा अखिलेश-तेजस्वी के लिए करना चुनौती होगी. 

जेडीयू अच्छा उदाहरण
अखिलेश-तेजस्वी के लिए एक चुनौती और है. अपनी पार्टी की विचारधारा से जुड़े रहने की चुनौती. विरोधी पार्टी ध्रुवीकरण के हथियार से लगातार हमले कर रही है. तो फौरी फायदे के लिए विचारधारा की लक्ष्मण रेखा लांघना लुभावना लग सकता है, लेकिन आखिर में नुकसान ही होगा. जेडीयू अच्छा उदाहरण है. 

मायवती से सीख सकते हैं अखिलेश-तेजस्वी
नीतीश के लिए राइट की ओर जाना रॉन्ग साबित हुआ. आखिरकर उन्होंने वो किया जो उनकी पार्टी के लिए राइट था. पूरी तरह कमान मिलने के बाद अखिलेश-तेजस्वी ने अपनी विचारधारा का खूंटा छोड़ा तो उनके लिए भी भयंकर परिणाम होंगे. न सिर्फ पार्टी के लिए, बल्कि दलित-पिछड़ों के लिए भी. ये दोनों मायावती से भी सीख ले सकते हैं. मायावती सत्ता के लिए अपने कोर वोटर और कोर फलसफे से पीछे हटीं और उनका हश्र सबके सामने है.

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