Manager Pandey Passes Away: हिंदी में आलोचना विधा का सूर्यास्त, नहीं रहे प्रोफेसर मैनेजर पांडेय
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Manager Pandey Passes Away: हिंदी में आलोचना विधा का सूर्यास्त, नहीं रहे प्रोफेसर मैनेजर पांडेय

Manager Pandey Passes Away: प्रोफेसर रहे मैनेजर पांडेय को आलोचना के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए जाना जाता है. उन्होंने शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास-दृष्ठि, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, अनभै सांचा, आलोचना की सामाजिकता और संकेट के बावजूद जैसी आलोचनाएं लिखीं

Manager Pandey Passes Away: हिंदी में आलोचना विधा का सूर्यास्त, नहीं रहे प्रोफेसर मैनेजर पांडेय

पटना/नई दिल्लीः आलोचना के क्षेत्र में मशहूर और साहित्य को सजाने-संवारने में अपना योगदान देने वाले प्रसिद्ध प्रोफेसर मैनेजर पांडेय का रविवार सुबह निधन हो गया है. पांडेय JNU में लंबे समय तक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े रहे थे. 81 वर्ष के मैनेजर पांडेय बिहार के गोपालगंज के निवासी थे. साहित्य में योगदान के लिए उन्हें दिनकर राष्ट्रीय सम्मान, गोकुल चंद आलोचना पुरस्कार, सुब्रमण्यन भारती पुरस्कार और साहित्य सम्मान से सम्मानित किया गया था.

हिंदी साहित्य को कई कृतियों से सजाया
प्रोफेसर रहे मैनेजर पांडेय को आलोचना के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए जाना जाता है. उन्होंने शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास-दृष्ठि, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, अनभै सांचा, आलोचना की सामाजिकता और संकेट के बावजूद जैसी आलोचनाएं लिखीं. इसके अलावा, साक्षात्कार विधा में मैनेजर पांडेय ने 'मैं भी मुंह में जबान रखता हूं' और 'मेरे साक्षात्कार' जैसी रचनाएं कीं. साहित्य के क्षेत्र में काम करते हुए उन्होंने कई पुस्तकें भी संपादित कीं. तमाम गोष्ठियों में अपने व्याख्यानों, गेस्ट लेक्चर और लेखों के लिए प्रोफेसर मैनेजर पांडेय को जाना जाता है. उन्हें दिल्ली की हिंदी अकादमी की ओर से 'शलाका सम्मान' से भी सम्मानित किया गया था.

जेएनएयू में प्रोफेसर थे मैनेजेर पांडेय
मैनेजर पांडेय का  जन्म (23 सितंबर 1941) गोपालगंज (बिहार) जिले के गाँव ‘लोहटी’ में हुआ था. पांडेय ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की. वह जेएनएयू के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर थे. वह भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष भी बने. इसके अलावा, उन्होंने बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे. दुनिया भर के समकालीन विमर्शों, सिद्धांतों और सिद्धांतकारों पर उनकी पैनी नजर रहती थी. उन्होंने हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना को, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के आलोक में, देश-काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक संपन्न और सृजनशील बनाया है.

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