Kargil Vijay Diwas: भारत में 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है. साल 1999 में भारत-पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध हुआ था. 3 मई से 29 जुलाई तक चलने वाली इस युद्ध में भारतीय सेना ने जीत हासिल की थी. 84 दिनों तक चलने वाले इस युद्ध में 527 भारतीय जवान शहीद हुए थे. जिसमें बिहार के वैशाली से सुरेंद्र सिंह भी थे. गोली लगने के बावजूद चार-पांच दिनों तक भूखे प्यासे रहकर सुरेंद्र सिंह ने पाकिस्तान सेना के छक्के छुड़ा दिए थे.
Trending Photos
Kargil Vijay Diwas 2024: युद्ध तो खत्म हो जाती है लेकिन सैनिकों के बलिदान और उनके प्रकरण की शौर्य की कथा लोगों के जुबान पर हमेशा रह जाती है. देश के नाम पर मिटने वाले योद्धा अपनी और अपने परिवार जनों की चिंता किए बगैर, भारत माता की एक ललकार पर अपनी जान की आहुति देने तक को तैयार होता है. ऐसे ही कुछ गाथा सुरेंद्र सिंह की है, एक हाथ मे गोली लगने के वाबजूत कारगिल युद्ध में इन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे.
कारगिल युद्ध के रणबांकुरे की वीरगाथा. सरकार प्रशासन ने नहीं निभाया वादा आज बदहाली में कट रही जिंदगी. सेना के जवान तो भारत माता के लिए किए गए हर वचन को आखिरी सांस तक पूरा करने के लिए तत्पर होता है, लेकिन दुख की बात यह है कि बदलता सिस्टम उनके स्वाभिमान को किस तरीके से ठेस पहुंचती है. 25 साल पहले कारगिल युद्ध में बिहार के कई बेटों ने अपनी कुर्बानी दी थी. तो कइयों ने जान हथेली में लेकर पाकिस्तानी सैनिकों से ना सिर्फ लोहा लिया बल्कि पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी. बिहार के दूसरे जिलों की तरह वैशाली से भी कई वीर सपूतों ने अपने देश की सुरक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था. जिसमें एक नाम हाजीपुर प्रखंड क्षेत्र चांदी गांव निवासी स्व.प्रदीप सिंह के बड़े पुत्र नायक सुरेंद्र सिंह का भी शामिल है.
सेवानिवृत्त नायक सुरेंद्र सिंह आज भी जब कारगिल युद्ध की कहानी बयां करते है, उनके आंखों से आंसू बहना लगता है. जो भाव विभोर कर देती है. वहीं 25 साल पहले वाला जोश और जुनून उनके शरीर में भर जाता है. सुरेंद्र सिंह बताते है कि कैसे गोली लगने के बाद भी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और 25 से 30 पाकिस्तानी सैनिकों से लोहा लिया. उन्होंने बताया कि कारगिल से बटालियन के लिए 9 प्लाटून को भेजा जाना था क्योंकि मेजर शर्मानंद को जानकारी मिली थी कि बटालियन में 4 से 5 दुश्मन मौजूद हैं. फिर क्या था मेजर शर्मानंद के साथ हम लोग एक प्लाटून बटालिक के लिए निकल पड़े, लेकिन वहां पहुंचने के बाद पता चला कि दुश्मन 4 या पांच नहीं बल्कि 25 से 30 था. लिहाजा हमने मेजर के नेतृत्व में मोर्चा संभाल किया और दोनों ओर से गोलियां चलने लगी.
कुछ देर बाद ही मेजर और जवान गणेश शहीद हो गए, लेकिन फिर भी हम लोग चोटी पर घात लगाकर बैठे दुश्मनों से लोहा लेते रहे. इसी दौरान मेरे दाहिने हाथ में भी गोली लग गई लेकिन फिर भी पाकिस्तानी सैनिकों का मुकाबला करते रहे. चार-पांच दिन भूखे प्यासे किसी तरह कैंप पहुंचा तब इलाज शुरू हुआ. उन्होंने कहा कि एक हाथ जख्मी होने के बाद भी एक हाथ से ही दुश्मनों से लोहा लेते रहे और उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. सेवानिवृत्त नायक सुरेंद्र सिंह आज भी अपने एक हाथ में फंसी गोली को महसूस करते हुए कारगिल युद्ध को याद करते है. वो युद्ध मे पहने वर्दी और घायल होंने के बाद हाथ से निकल रहे खून को रोकने के लिए इस्तेमाल किया गया पाग यानी काला कपड़ा सहेज कर रखे हुए है.
ये भी पढ़ें: 19 साल की उम्र में सहरसा के लाल रमण झा हुए शहीद, युवाओं को आज भी मिलती है प्रेरणा
सुरेंद्र सिंह 1982 में फौज में भर्ती हुए थे और 17 साल बाद कारगिल युद्ध में मिट्टी का कर्ज उतारने का उन्हें मौका मिला था. बिहार रेजिमेंट की इस टुकड़ी ने तमाम बाधाओं और पाकिस्तानी सैनिकों से घिरे होने के बावजूद हिम्मत नहीं हारी और कई पाक सैनिकों को मार गिराया. सबसे हैरत की बात तो यह है कि जिस सपूत ने अपनी जान पर खेल कर देश की हिफाजत की थी. उस सैनिक के साथ सरकार और प्रशासन ने भी खिलवाड़ किया है. आर्थिक परेशानी से जूझ रहे सुरेंद्र सिंह बदहाली में जीवन जीने को मजबूर है. इन्हें सरकार से आज तक सिर्फ आश्वासन ही मिला है.
सुरेंद्र सिंह ने आगे बताया कि तत्कालीन डीएम के आश्वासन पर गांव की एक एकड़ गैर मजरुआ जमीन को आवंटित करने के लिए आवेदन दिया था. जिस पर त्वरित कार्रवाई भी हुई और डीएम के माध्यम से सीओ ने उक्त जमीन को इनके नाम से आवंटित करने की अनुशंसा कर भूमि विभाग को भेजा. जिसके बाद भूमि सुधार उप समाहर्ता ने अपनी अनुशंसा कर एसडीओ को प्रेषित कर दिया. इसके बाद अपर समाहर्ता ने उक्त जमीन की बंदोबस्ती इनके नाम से करते हुए, भूमि सुधार उप समाहर्ता के पास संचिका तो भेजी, लेकिन आज तक वह फाइल सरकारी कार्यालय में धूल फांक रहा है. भूमिहीन सैनिक के ऊपर पांच बच्चों की शिक्षा और शादी विवाह के साथ-साथ भरण पोषण की जिम्मेवारी है, लेकिन सरकार व प्रशासन अब इनकी सुध तक नहीं लेता है. पता नहीं वैशाली प्रशासन की नींद कब टूटेगी और इन जवानों के लिए उनके मन में सम्मान की भावना जागेगी. इन्हें इनके हक की जमीन दी जाएगी.
रिपोर्ट: रवि मिश्रा
ये भी पढ़ें: पेट से बाहर आ चुकी थी अंतड़ियां, पैर..जांघ..कमर पर थे गहरे घाव, फिर भी लड़ता रहा जवान