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काबुल: तालिबान ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि उसकी किसी से दुश्मनी नहीं है और वो पत्रकारों को भी काम करने से नहीं रोकेगा. लेकिन उसके इन दावों की पोल खुल चुकी है. शुक्रवार को तालिबान के आतंकवादी एक पत्रकार की तलाश में उसके घर पहुंच गए, जहां उन्होंने उस पत्रकार के एक रिश्तेदार की हत्या कर दी.
इसके अलावा उस पत्रकार की भी किसी को कोई खबर नहीं है. हो सकता है कि उसकी खबर अब कभी किसी को मिले ही ना. अफगानिस्तान संकट की मीडिया कवरेज तो हो रही है लेकिन साथ ही अफगानिस्तान में पत्रकारों को काम करने से भी रोका जा रहा है.
हाल ही में पत्रकार सहर नासरी को तालिबान के आतंकवादियों ने बुरी तरह पीटा था. उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि वो काबुल में स्वतंत्रता दिवस पर हुए प्रदर्शनों की कवरेज कर रहे थे. उन्होंने तालिबान से अपनी जान के खतरे को देखते हुए भारत में शरण लेने के लिए E-Visa के लिए Apply कर दिया है. हमारे देश के जो मुट्ठीभर लोग ये कहते हैं कि भारत में डर लगता है, उन्हें अफगान पत्रकार के E-Visa का ये आवेदन जरूर देखना चाहिए.
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अफगानिस्तान में प्रेस को स्वतंत्रता मिलने में कई दशक लगे. 1960 और 1970 के दशक में जब अफगानिस्तान की सत्ता अपने नागरिकों के लिए सबसे ज्यादा उदार थी, तब भी पत्रकारों के लिए वहां काम करना आसान नहीं था. उस वक्त अफगानिस्तान में वहां के राजा के खिलाफ बोलने पर पत्रकारों को सजा दी जाती थी, फिर मुजाहिदीन संगठनों ने पत्रकारों को सजा दी और फिर तालिबान के शासन में भी पत्रकारों को सबसे ज्यादा निशाना बनाया गया.
पिछले दो दशक ऐसे थे, जब प्रेस ने कुछ हद तक खुल कर सांस लेनी शुरू की थी और इस क्षेत्र में अफगानिस्तान के लोगों ने करियर बनाना शुरू किया था, लेकिन तालिबान की वापसी ने प्रेस की इस स्वतंत्रता को भी नजर लगा दी.
इस समय अफगानिस्तान में पत्रकार भले स्टूडियो और सड़कों से रिपोर्टिंग कर रहे हों लेकिन सच ये है कि वो डरे हुए हैं. पिछले दिनों शबनम खान नाम की एक महिला पत्रकार ने बताया था कि, वो जिस न्यूज़ चैनल में काम करती थी, वहां उसे अंदर जाने से मना कर दिया गया. इस न्यूज़ चैनल को डर था कि अगर उसने इस पत्रकार को काम करने दिया तो तालिबान उसकी बिल्डिंग पर हमला कर देगा और इस डर के पीछे कई वजह हैं.
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अफगानिस्तान के ज्यादातर राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल के दफ्तर काबुल में ही हैं. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान भी काबुल से ही काम करते हैं. और इस समय तालिबान के सबसे ज्यादा आतंकवादी काबुल की सड़कों पर ही तैनात हैं.
ये आतंकवादी उन News Channels के बाहर भी तैनात हैं, जिन्हें लेकर दुनिया ये सोच रही है कि वो तालिबान के राज में आजादी से काम कर रहे हैं. जबकि सच इससे बिल्कुल अलग है. सच ये है कि तालिबान धीरे-धीरे पत्रकारों को निशाना बना रहा है.
इस बार तो उसके मुजाहिदीन प्रवक्ता न्यूज़ चैनलों के दफ्तरों में पहुंच गए हैं. कई न्यूज़ चैनलों पर तालिबान के ये प्रवक्ता दिन में पांच-पांच घंटे बैठ रहे हैं, जिससे ऐसा लगता है कि उन्होंने खुद को अफगानिस्तान का नया पत्रकार बना लिया है. अब सोचिए कि अगर तालिबान के ये प्रवक्ता पत्रकार बन जाएंगे तो प्रेस की स्वतंत्रता कहां रहेगी. इसलिए आज दुनिया को इसके बारे में भी सोचना चाहिए. दूसरे देशों ने भी अपने पत्रकारों को वहां से निकालना शुरू कर दिया है.
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