मोहनदास करमचंद गांधी का सरनेम कब और कैसे नेहरू परिवार के पास पहुंच गया, ये भारतीय राजनीति के सबसे बड़े रहस्यों में से एक है. हालांकि इसके बारे में एक कहानी सुनाई जाती है...
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नई दिल्ली: महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को आप भारत का सबसे बड़ा ग्लोबल ब्रांड भी कह सकते हैं. जिन दिनों आजादी के लिए लड़ाई चल रही थी तब आज की तरह टेलीविजन, मोबाइल फोन और इंटरनेट नहीं हुआ करते थे. लेकिन ये गांधी के ब्रांड नेम की ही ताकत थी कि पूरा देश उनके पीछे चल पड़ा. लोग गांधी की कही बातों को सच मानते थे और उसे अपने जीवन में अपनाते भी थे. लेकिन महात्मा गांधी की मौत के बाद इस ब्रांड नेम पर एक परिवार ने कॉपीराइट करा लिया. ये ठीक वैसे ही है जैसे बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने ब्रांड नेम का कॉपीराइट करवाती हैं और किसी को उसका फैंचाइज भी बनाती हैं.
महात्मा गांधी का सरनेम कब और कैसे नेहरू परिवार के पास पहुंच गया?
मोहनदास करमचंद गांधी का सरनेम कब और कैसे नेहरू परिवार के पास पहुंच गया, ये भारतीय राजनीति के सबसे बड़े रहस्यों में से एक है. हालांकि इसके बारे में एक कहानी सुनाई जाती हैं कि महात्मा गांधी ने फिरोज गांधी को अपना दत्तक पुत्र मान लिया था. फिरोज जहांगीर गांधी ने जब जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा से शादी कर ली तो इंदिरा का सरनेम भी गांधी हो गया. लेकिन इस बात का कोई पुराना लिखित प्रमाण नहीं मिलता है. हो सकता है कि ये एक झूठ हो जिसे जानबूझकर फैलाया गया है. महात्मा गांधी का सरनेम कैसे फिरोज Ghandhy से होते हुए नेहरू परिवार तक पहुंच गया, इस बात को समझने के लिए आपको वर्ष 1942 से 1948 तक के छह वर्षों के बारे में जानना चाहिए. वर्ष 1942 में ही फिरोज जहांगीर गांधी और इंदिरा की शादी हुई थी, इसके छह साल बाद 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हुई थी. इस तथ्य से कुछ सवाल पैदा होते हैं-
- क्या महात्मा गांधी को पता था कि फिरोज ने उनके सरनेम का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है?
- क्या उन्हें यह पता था कि जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा ने भी गांधी अपने नाम से जोड़ लिया है?
वर्ष 1942 से 1948 के बीच इन लोगों की आपस में कई बार मुलाकात भी हुई होंगी, लेकिन कहीं भी इन सवालों को लेकर कोई तथ्य हमें नहीं मिला.
इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के दौरान हमें जवाहरलाल नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई की पुस्तक Remi-Niscences of The Nehru Age मिली. ये किताब 1978 में प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक के कुछ हिस्से आपत्तिजनक होने के कारण इस पर एक बार प्रतिबंध भी लग चुका है. इसमें फिरोज गांधी के बारे में एक पूरा अध्याय है. जिसमें बताया गया है कि इंदिरा की मां कमला नेहरू और पिता जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि वो फिरोज़ से विवाह करें. लेकिन बाद में उन्होंने इसकी अनुमति दे दी। इस पुस्तक में फिरोज और इंदिरा की शादी में महात्मा गांधी की भूमिका के बारे में नहीं बताया गया है.
तो फिर इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू कैसे गांधी बन गई? उन्हें तो Ghandhy होना चाहिए. उस दौर के इतिहास की किताबों के अनुसार कुछ लोग इस बात से नाराज थे कि कश्मीरी ब्राह्मण की बेटी इंदिरा एक पारसी लड़के से कैसे शादी कर सकती है? कई लोगों ने इस बारे में जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी को चिट्ठी भी लिखी.
पत्रिका 'हरिजन' में लिखी ये बात...
8 मार्च 1942 को महात्मा गांधी ने अपनी पत्रिका 'हरिजन' में लिखा कि मुझे बहुत सारे गुस्से और गालियों से भरे हुए पत्र प्राप्त हुए हैं. कुछ चिट्ठियां ऐसी थीं जिनमें इंदिरा और फिरोज गांधी की शादी की वजह पूछी जा रही है. फिरोज का अपराध सिर्फ इतना है कि वो पारसी हैं. मैं विवाह के लिए धर्म बदलने के हमेशा खिलाफ रहा हूं. धर्म कोई कपड़ा नहीं है जो अपनी मर्जी से बदल दिया जाए और इस मामले में धर्म को बदलने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. फिरोज गांधी बहुत लंबे वक्त से नेहरू परिवार के करीब रहे हैं. बीमारी के दिनों में उन्होंने कमला नेहरू की सेवा की है. फिरोज, कमला नेहरू के लिए एक बेटे की तरह थे.
अब यहां नोट करने वाली बात ये है कि कांग्रेस पार्टी के नेता और बहुत सारे लोग ये दावा करते हैं कि महात्मा गांधी ने अपना सरनेम देकर फिरोज जहांगीर गांधी का धर्म बदल दिया था. लेकिन महात्मा गांधी के जो लिखित दस्तावेज मिलते हैं उनमें ऐसी कोई बात नहीं है ये एक विरोधाभास है जिसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलता.
महात्मा गांधी ने अपना सरनेम नहीं दिया था
जानकारों का भी यही कहना है कि महात्मा गांधी ने कभी अपना सरनेम फिरोज जहांगीर Ghandhy को नहीं दिया था. इस बारे में हमने अहमदाबाद में गांधी आश्रम के संचालक अमृत मोदी से बात की. फिरोज जहांगीर गांधी के भतीजे रुस्तम गांधी आज भी इलाहाबाद में रहते हैं. उनका भी यही कहना है कि महात्मा गांधी ने अपना सरनेम नहीं दिया था.
महात्मा गांधी जैसी बड़ी हस्ती का सरनेम नेहरू परिवार के पास कैसे पहुंच गया इस सवाल का जवाब हमने कुछ जाने-माने इतिहासकारों से भी पूछा. इतिहासकारों की राय इस पर बंटी हुई है. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि फिरोज गांधी को उनका सरनेम महात्मा गांधी से ही मिला था.
फिरोज जहांगीर गांधी के भतीजे रुस्तम गांधी आज भी इलाहाबाद में रहते हैं. उनका भी यही कहना है कि महात्मा गांधी ने अपना सरनेम नहीं दिया था.
स्वतंत्रता के बाद फिरोज जहांगीर गांधी उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से सांसद चुने गए थे. 1952 से 1960 तक सांसद रहे, इस दौरान लोकसभा के दस्तावेजों में भी फिरोज गांधी ही दर्ज था.
ऐसा कई बार होता है कि कोई नेता अपना नाम बदल ले, लेकिन औपचारिक दस्तावेजों में उसका असली नाम ही दर्ज होता है.
भारत का ये सरनेम घोटाला महात्मा गांधी के आदर्शों के साथ सबसे बड़ा धोखा है और पूरे देश से हमें इस पर जबरदस्त प्रतिक्रिया मिल रही है. अगर आप भी इस पर अपनी कोई राय देना चाहते हैं तो आप #FakeGandhi पर ट्वीट करके अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं.