DNA ANALYSIS: सचिन पायलट को भारी पड़ गई जल्दबाजी?
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DNA ANALYSIS: सचिन पायलट को भारी पड़ गई जल्दबाजी?

अब सचिन पायलट के पास यही विकल्प बचता है कि वो कांग्रेस में रह कर चुपचाप सब बर्दाश्त करें और ऐसी बातें सुनने के लिए मजबूर हो जाएं, जो बातें अब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुलकर उन्हें सुना रहे हैं.

DNA ANALYSIS: सचिन पायलट को भारी पड़ गई जल्दबाजी?

नई दिल्ली: क्या युवा नेता सचिन पायलट को अपनी जल्दबाजी की कीमत चुकानी पड़ी है? क्योंकि सचिन पायलट की हालत अब ऐसी हो गई है कि उन्हें ना माया मिली ना राम. पार्टी की कार्रवाई के बाद बुधवार को उन्हें सफाई देनी पड़ी है कि वो अब भी कांग्रेस के सदस्य हैं और वो बीजेपी में नहीं जाएंगे. कुछ लोग उनका नाम बीजेपी से जोड़कर उनकी छवि खराब करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन सचिन पायलट के लिए अब कांग्रेस में रहकर काम करना बहुत मुश्किल है. क्योंकि उनपर पार्टी की कार्रवाई के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बहुत ताकतवर हो चुके हैं. गहलोत अब खुलकर ये बड़ा आरोप लगा रहे हैं कि सचिन पायलट जैसे नेता, बीजेपी के साथ मिलकर हॉर्स ट्रेडिंग यानी विधायकों की खरीद फरोख्त में जुटे थे और इसके सबूत भी हैं.

लेकिन सचिन पायलट के लिए मुश्किल सिर्फ यही नहीं है. उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का पद छीन लेने के बाद कांग्रेस ने पायलट और उनके समर्थक विधायकों को अयोग्य घोषित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. पार्टी की शिकायत के बाद राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष ने पायलट सहित 19 विधायकों को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है.

पायलट को दो दिन में देना होगा जवाब
सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों से दो दिन में जवाब मांगा गया है कि वो पार्टी व्हीप के मुताबिक कांग्रेस विधायक दल की दो बैठकों में शामिल क्यों नहीं हुए. सोमवार और मंगलवार को दो दिन, जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई थी. जिसमें सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायक शामिल होने की बाध्यता थी. लेकिन वो इन बैठकों में नहीं गए.

अगर इस नोटिस का दो दिन में इन विधायकों ने जवाब नहीं दिया, तो माना जाएगा कि ये विधायक अब कांग्रेस विधायक दल के सदस्य नहीं हैं और इसके बाद इन्हें अयोग्य घोषित किया जा सकता है. इसी आशंका से शायद सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों ने फिलहाल अपने तेवर कुछ नरम कर लिए हैं और खुद सचिन पायलट सफाई देने में जुट गए हैं.

कहा जा रहा था कि बुधवार को सचिन पायलट एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सकते हैं, लेकिन वो प्रेस कॉन्फ्रेंस भी नहीं हुई. वो कैमरे के सामने तो नहीं आए, लेकिन कुछ न्यूज एजेंसियों के जरिए इस मामले में पहली बार अपनी बात रखी. सचिन पायलट ने कहा कि वो ना तो बीजेपी के किसी नेता से मिले हैं और ना ही वो बीजेपी में शामिल हो रहे हैं.

उन्हें राज्य पुलिस ने सरकार गिराने और राजद्रोह के आरोप में एक नोटिस दिया था, जिससे उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची. पायलट ने ये कहा कि राजस्थान सरकार में उनकी बात नहीं सुनी जा रही थी, अफसरों से कहा जाता था कि वो पायलट की बात ना सुनें, महीनों तक कैबिनेट की बैठकें नहीं होती थीं और ये बात उन्होंने कई बार पार्टी के बड़े नेताओं को भी बताई थी.

पायलट के पास विकल्प नहीं
इन बातों से कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि सचिन पायलट के पास बहुत कम विकल्प बचे हैं. वो अशोक गहलोत की सरकार गिराने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं और फिर ऐसी स्थिति में वो, फिलहाल बीजेपी के लिए भी फायदेमंद नहीं हैं. उनके लिए खुद की पार्टी बनाना भी आसान नहीं है, क्योंकि राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी के सामने कोई तीसरा मोर्चा कभी सफल नहीं रहा.

अब सचिन पायलट के पास यही विकल्प बचता है कि वो कांग्रेस में रह कर चुपचाप सब बर्दाश्त करें और ऐसी बातें सुनने के लिए मजबूर हो जाएं, जो बातें अब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुलकर उन्हें सुना रहे हैं. गहलोत ने सचिन पायलट को ताना देते हुए, बुधवार को कहा कि सिर्फ अच्छा दिखने से ही कुछ नहीं होता, अच्छी अंग्रेजी बोलने से ही कुछ नहीं होता, सबसे जरूरी होती है- मेहनत और नीयत.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सचिन पायलट का नाम तो नहीं लिया, लेकिन नई पीढ़ी के नेताओं से अपनी तुलना करते हुए, उन्होंने ये कहा कि नई पीढ़ी के नेताओं की रगड़ाई नहीं हुई यानी ऐसे नेताओं को ज्यादा मेहनत किए बिना. सब कुछ जल्दी-जल्दी हासिल हो गया, जबकि गहलोत जैसे नेताओं ने 40 साल तक संघर्ष किया, लेकिन नई पीढ़ी ने कभी इस तरह का संघर्ष नहीं किया, इसलिए इन्हें इसकी कीमत समझ में नहीं आती.

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वैसे तो सचिन पायलट के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने मेहनत नहीं की या फिर वो जमीनी नेता नहीं हैं. इसलिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की बातें थोड़ी निजी ईर्ष्या से प्रेरित लग रही हैं. लेकिन हमारे देश की नई राजनीति का ये कड़वा सच है, कि नई पीढ़ी के अधिकतर नेताओं में वैसी बात नहीं है, जो बात पुरानी पीढ़ी के नेताओं में होती थी.

पुरानी और नई पीढ़ी के नेताओं में फर्क
पुरानी पीढ़ी के नेताओं में लोकप्रिय होने का मतलब होता था कि लाखों लोग सड़क पर आ जाएं. ये नेता जमीन से जुड़ी राजनीति करते थे. ये नेता अपने अपने राज्यों में एक-एक इलाके और एक एक गांव को जानते थे. इन नेताओं को गांव-गांव के कार्यकर्ताओं की पहचान होती थी. आप इनमें मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव जैसे बड़े नेताओं का नाम गिन सकते हैं. लेकिन पुरानी पीढ़ी के ऐसे नेताओं के दिन अब लद चुके हैं.

नई पीढ़ी में आपको शॉर्टकट से नेता बनने वाले बहुत चेहरे दिख जाएंगे. नेता बनने का फॉर्मूला अब ये बना लिया गया है कि पहले ये लोग, खुद को किसी पार्टी के विचारक के तौर पर पेश करते हैं. फिर ये विचारक बनकर टीवी पर आ जाते हैं और डिबेट शो में पैनलिस्ट बन जाते हैं. इसके बाद इन्हें पार्टी का प्रवक्ता बना दिया जाता है और वहां से किसी को राज्यसभा सीट मिल जाती है तो कोई लोकसभा का टिकट पाकर चुनाव लड़ लेता है और फिर ये लोग नेता बन जाते हैं.

अब इस फॉर्मूले में जमीनी राजनीति के लिए मेहनत और जमीनी राजनीति की समझ का कोई मतलब नहीं है. सबसे जरूरी ये है कि शक्ल सूरत अच्छी होनी चाहिए, बोलने की अच्छी क्षमता होनी चाहिए, मीडिया के कैमरे के सामने अच्छे-अच्छे बयान देना आना चाहिए, कम समय में ज्यादा से ज्यादा बात करना आना चाहिए और डिबेट में चीखने-चिल्लाने की योग्यता होनी चाहिए.

यानी अब हमारी राजनीति में टेस्ट मैच खेलने की क्षमता वाले नेता नहीं बचे हैं, अब हमारी राजनीति में सिर्फ 20-20 मैच वाले नेता ही निकल रहे हैं. जो कुछ ही वर्षों में सब कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं. वैसे भी कोरोना वायरस की वजह से जमीनी राजनीति की गुंजाइश अब और भी कम हो गई है. अब डिजिटल नेताओं का जमाना आ गया है.

जनता को पसंद आते हैं गुड लुकिंग नेता? 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि गुड लुकिंग नेता सबको अच्छे लगते हैं. उनकी एक छवि होती है और उनमें लोगों को करिश्मा दिखता है. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के प्रति भी लोग इसलिए आकर्षित हुए थे. इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद जब उनके बेटे राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने वर्ष 1984 में लोकसभा चुनाव लड़ा था, तब कांग्रेस को लोकसभा की 414 सीटों पर जीत मिली थी. लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें कांग्रेस ना नेहरू के जमाने में जीत सकी थी और ना ही इंदिरा गांधी के जमाने में जीत पाई थी और इसके बाद कभी इतनी सीटें कांग्रेस को नहीं मिल पाईं. लेकिन तब पांच साल के अंदर ही लोगों का मोहभंग हो गया, लोगों को समझ में आ गया कि गुड लुकिंग होने से ही कुछ नहीं होता. यही वजह है कि 1984 में रिकॉर्ड सीटें जीतने वाली कांग्रेस, राजीव गांधी के नेतृत्व में ही 1989 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह से हार गई थी. यानी अच्छा दिखना, अच्छी अंग्रेजी बोलना और ग्लैमर से नेता, ज्यादा दिनों तक जनता का समर्थन हासिल नहीं कर सकता. सफल नेता की असली पहचान उसके काम से और जमीनी स्तर पर उसके जुड़ाव से होती है. नेता की असली पहचान, सिर्फ उसके अच्छे दिखने से नहीं होती है. लेकिन ये सबक, राजनीति की नई पीढ़ी भूल चुकी है. उसे यही लगता है कि सफल नेता वही है, जो ज्यादा से ज्यादा टीवी पर दिखाई दे और जमीन पर मेहनत किए बिना, जल्द से जल्द राजनैतिक शक्ति हासिल कर ले.

सचिन पायलट के साथ जो हुआ, उससे यही साबित होता है कि हमारी युवा पीढ़ी जल्दबाजी में है. और ये जल्दबाजी हमें सिर्फ राजनीति में ही नहीं, समाज में भी दिखती है. नई पीढ़ी कुछ ज्यादा ही महत्वाकांक्षी है, और जल्द से जल्द सब हासिल करना चाहती है. नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच टकराव, दोनों के बीच सोच को लेकर भी होता है. देश की युवा शक्ति, राजनीति की नई पीढ़ी के नेताओं से खुद को कनेक्ट भी करती है.

नई पीढ़ी में जोश होता है और इस जोश में वो संयम जैसे गुण को भूल जाते हैं. राजनीति में कहा जाता है कि संयम सबसे बड़ा गुण है. और कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं, सही मौका और समय देखकर ही करना चाहिए. इसीलिए सचिन पायलट अपनी रणनीति में चूक गए. हालांकि यहां एक बात बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहिए कि महत्वाकांक्षी होना कोई अपराध नहीं है.

अशोक गहलोत भी 47 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री बन गए थे और अगर सचिन पायलट 43 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री बनने के लिए जोर लगा रहे हैं, तो इसमें कुछ गलत नहीं है. अगर सचिन पायलट 26 वर्ष की उम्र में सांसद बन गए और फिर उन्हें केंद्रीय मंत्री पद मिल गया तो अशोक गहलोत भी 32 वर्ष की उम्र में केंद्रीय मंत्री बन गए थे.

देश का राजनैतिक इतिहास
अगर देश के राजनैतिक इतिहास में व्यापक जनसमर्थन वाले नेताओं को याद करें तो इसमें सबसे पहला नाम इंदिरा गांधी का आता है. एक वक्त पर इंदिरा गांधी के बारे में उनके करीबी कहते थे कि इंडिया इज इंदिरा... इंदिरा इज इंडिया.

इसी तरह से जयप्रकाश नारायण, जो जेपी के नाम से मशहूर थे. उनकी लोकप्रियता ने इंदिरा गांधी जैसी नेता को इमरजेंसी लगाने पर मजबूर कर दिया था. 1970 के दशक में इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी की रैलियों की लाखों लोग शामिल होते थे.

इसी तरह से पूर्व प्रधानमंत्री, चौधरी चरण सिंह ऐसे नेता थे, जिन्हें व्यापक जनसमर्थन था. उन्हें किसानों का मसीहा कहा जाता था.

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इसके बाद भारतीय राजनीति में व्यापक जनसमर्थन वाले नेताओं में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आया. अटल जी का भाषण सुनने के लिए ही लाखों लोग जुट जाते थे.

मास अपील वाले नेताओं में मुलायम सिंह यादव का भी नाम लिया जा सकता है. ऐसे नेताओं ने वर्षों तक जमीनी संघर्ष किया और फिर उसके बाद अपनी बड़ी पहचान बनाई.

पुरानी और नई पीढ़ी के बीच युद्ध
कांग्रेस में पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के नेताओं के बीच राजनैतिक शक्ति के लिए एक तरह से युद्ध चल रहा है. ये कांग्रेस के बुरे दिनों में पीढ़ियों के बीच का संघर्ष है. कांग्रेस के ऐसे ही बुरे दिन और ऐसे ही संघर्ष की वजह से एक वक्त पर कांग्रेस में कामराज प्लान बना था. ये वर्ष 1960 के दशक की बात है.

1962 के युद्ध में चीन से हार के बाद कांग्रेस की स्थिति बहुत कमजोर हो गई थी. इसी की वजह से 1963 में कांग्रेस लोकसभा के तीन उपचुनाव हार गई थी. संकट की इस घड़ी में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस के बड़े नेता के कामराज ने एक प्लान बताया. जिसके मुताबिक कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं को सरकार में पद छोड़कर संगठन में काम करने के लिए कहा गया.

इसी प्लान के तहत खुद के कामराज ने तब तत्कालीन मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. उनके साथ ही कांग्रेस के 6 मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया, इसके अलावा तत्कालीन केंद्र सरकार के 6 मंत्रियों ने अपने इस्तीफे दे दिए थे. इनमें लाल बहादुर शास्त्री, मोरार जी देसाई और बाबू जगजीवन राम जैसे नेता भी शामिल थे. इसके बाद के कामराज को कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुन लिया गया.

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