DNA ANALYSIS: जब कृषि सुधारों का विरोध करने वाले 'गैंग' ने पूरा नहीं होने दिया चौधरी चरण सिंह का सपना
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DNA ANALYSIS: जब कृषि सुधारों का विरोध करने वाले 'गैंग' ने पूरा नहीं होने दिया चौधरी चरण सिंह का सपना

चौधरी चरण सिंह किसानों के मामले में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नज़रिए से सहमत नहीं थे और इसी का विरोध करते हुए उन्होंने आख़िरकार कांग्रेस छोड़ दी. लेकिन आज वही कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही हैं.

DNA ANALYSIS: जब कृषि सुधारों का विरोध करने वाले 'गैंग' ने पूरा नहीं होने दिया चौधरी चरण सिंह का सपना

नई दिल्‍ली:  भारत के पहले किसान प्रधानमंत्री  चौधरी चरण सिंह हमेशा कहते थे कि देश की खुशहाली और समृद्धि का रास्ता खेतों और खलिहानों से होकर गुज़रता है.  लेकिन आज इसी रास्ते पर विरोध और आंदोलन की दीवार खड़ी हो गई.  चौधरी चरण सिंह का जन्म 118 वर्ष पहले 23 दिसंबर के दिन हुआ था और उन्हीं की याद में हर साल 23 दिसंबर को किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है.  ये विडंबना है कि  जब एक तरफ़ पूरा देश  किसानों के अब तक के सबसे बड़े नेता को याद कर रहा है तो दूसरी तरफ़ दिल्ली के आस पास हज़ारों किसान नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं. 

चौधरी चरण सिंह के बिल का विरोध भी खूब हुआ था

लेकिन क्या आप जानते हैं कि वर्ष 1937 में चौधरी चरण सिंह ने सिर्फ़ 34 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश की Legislative Assembly में किसानों के हित में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था, उस समय उत्तर प्रदेश को United Provinces कहा जाता था.  इस बिल के ज़रिए वो किसानों को उनकी फसल की सही कीमत दिलाना चाहते थे और उनकी आमदनी बढ़ाना चाहते थे. ठीक वैसे ही जैसे आज केंद्र सरकार नए कृषि कानूनों के ज़रिए किसानों की आय बढ़ाना चाहती है. लेकिन आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि तब भी हमारे देश में एक ऐसा गैंग सक्रिय था, जो चौधरी चरण सिंह के बिल के विरोध में था और इन लोगों ने इस बिल को तब पास नहीं होने दिया. 

कहा जाता है कि इसी बिल को आधार बनाकर पंजाब में वर्ष 1940 में ही एक कानून बना दिया गया था.  लेकिन उस समय के एक समूह ने उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के सपने को पूरा नहीं होने दिया.  चौधरी चरण सिंह लगातार किसानों के लिए संघर्ष करते रहे, इसके लिए ही वो राजनीति में आए, लेकिन उन्होंने कभी किसानों के नाम पर आज के दौर वाली राजनीति नहीं की , वो सिर्फ़ किसानों के लिए संघर्ष करते रहे और इसी संघर्ष के दम पर वो भारत के पांचवें प्रधानमंत्री बने, वो देश के गृह मंत्री, वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री के पद पर भी रहे और दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने. 

चौधरी चरण सिंह किसानों के मामले में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नज़रिए से सहमत नहीं थे और इसी का विरोध करते हुए उन्होंने आख़िरकार कांग्रेस छोड़ दी. लेकिन आज वही कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही हैं  और इसी का परिणाम है कि सरकार और किसानों के बीच हुई बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है.  देश के कृषि मंत्री ने एक बार फिर किसानों को भरोसा दिलाया है कि उन्हें उनकी फसलों का सही दाम मिलेगा.  लेकिन किसान अब भी नए कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की मांग पर अड़े हुए हैं. 

लाखों किसान कृषि कानूनों के समर्थन में भी

ये मामला किसी हल की तरफ बढ़ता हुआ नहीं दिख रहा है.  ये संयोग है कि कृषि में जिस शब्द का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता है वो भी हल ही है.  हल के ज़रिए ही किसान अपने खेत जोतता है और फसल उगाता है.  पहले किसान हाथ के औजारों से हल का काम करता था. फिर इसके लिए पशुओं का सहारा लिया जाने लगा. अब ट्रैक्टर और मशीनें आ गई हैं. फिर भी हल का महत्व कम नहीं हुआ.  लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ तत्व किसानों का समस्या का हल होते हुए नहीं देखना चाहते. हालांकि देश में हज़ारों लाखों किसान ऐसे भी हैं जो नए कृषि कानूनों के समर्थन में हैं. इसी कानून के समर्थन में 20 राज्यों के 3 लाख से ज़्यादा किसानों के हस्ताक्षर देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को सौंपे गए और इस दौरान किसानों के एक समूह ने नए कानूनों का समर्थन करते हुए कृषि मंत्री से मुलाकात भी की. इस दौरान कृषि मंत्री ने ये भी बताया कि 25 तारीख को सिर्फ 2 घंटे के अंदर देश के 9 करोड़ किसानों के बैंक अकाउंट  में 18 हज़ार करोड़ रुपये किसान सम्मान निधि के तहत जमा किए जाएंगे.

लेकिन आंदोलन कर रहे किसान अपनी मांग पर अड़े हुए हैं. अब सवाल ये है कि देश का असली किसान किसे माना जाए, उन्‍हें जो नए कानूनों का समर्थन कर रहे हैं या फिर उन्हें जो इसका विरोध कर रहे हैं. 

25 दिसंबर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन के मौके पर 9 करोड़ किसानों के खातों में 2 हज़ार रुपये की किस्त डाली जाएगी.  यानी कुल 18 हज़ार करोड़ रुपये किसानों के अकाउंट में डाले जाएंगे. 

आज के दौर में किसी किसान के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना कर सकते हैं?

अब एक बार फिर किसान दिवस की बात करते हैं, जिसके केंद्र में हैं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और किसान नेता चौधरी चरण सिंह. 

चौधरी चरण सिंह ज़मीन से जुड़े हुए किसान नेता होने के बावजूद प्रधानमंत्री बने. लेकिन क्या आप आज के दौर में किसी किसान के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना कर सकते हैं. 

हालांकि ये भी दुख का विषय है कि प्रधानमंत्री के रूप में चौधरी चरण सिंह को कभी संसद में बोलने का या संसद जाने का मौका ही नहीं मिला.  इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के फ़ैसले का विरोध करते हुए 1977 में पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में देश में ग़ैर कांग्रेसी सरकार बनी थी.  चौधरी चरण सिंह इस सरकार में उप प्रधानमंत्री थे. लेकिन जुलाई 1979 में ये सरकार गिर गई और फिर 28 जुलाई 1979 को कांग्रेस की मदद से चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने.  उन्हें 20 अगस्त तक बहुमत सिद्ध करना था. लेकिन 19 अगस्त को ही इंदिरा गांधी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और चौधरी चरण सिंह की सरकार गिर गई और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. 

अब आप सोचिए कि अगर कांग्रेस ने एक किसान नेता को लंबे समय तक देश का प्रधानमंत्री बने रहने दिया होता तो क्या आज देश के किसान इतनी बुरी स्थिति में होते ?

कांग्रेस को भी मिल गया किसानों पर सियासत का मौका 

वर्ष 1978 में चौधरी चरण सिंह के 76वें जन्मदिन पर दिल्ली के बोट क्लब में किसान सम्मेलन हुआ था.  तब 10 लाख किसान देश की राजधानी दिल्ली पहुंचे थे. इसके जरिए उन्होंने अपनी ताकत दिखाई, कांग्रेस को भी किसानों पर सियासत का मौका मिल गया और मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद चौधरी चरण सिंह कांग्रेस की मदद से देश के प्रधानमंत्री बन गए. 

चौधरी चरण सिंह के अलावा भारत में एक और बड़े किसान नेता हुए जिनका नाम है महेंद्र सिंह टिकैत, उन्हें चौधरी चरण सिंह के बाद किसानों का दूसरा मसीहा कहा जाता था और वो भी लगातार किसानों के हित में आंदोलन और रैलियां करते रहे. हालांकि वो शुद्ध रूप से किसान नेता ही बने रहे और उन्होंने अपने आप को मुख्य धारा की राजनीति से ज़्यादातर समय दूर ही रखा. 

आज से 32 वर्ष पहले यानी 1988 में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में ही 5 लाख किसान दिल्ली में प्रदर्शन करने के लिए पहुंचे थे. महेंद्र सिंह टिकैत उस समय इतने बड़े किसान नेता थे कि उनकी एक आवाज पर लाखों किसान सड़कों पर उतर आते थे. उस समय किसान अपनी 35 मांगों के साथ दिल्ली पहुंचे थे. इनमें सिंचाई की दरें घटाने से लेकर फसल के सही दाम को लेकर भी मांग रखी गई थी. इस आंदोलन को रोकने के लिए पुलिस की तरफ़ से फायरिंग की गई, जिसमें दो किसानों की मौत भी हो गई थी. किसानों की मांग पर इस तरह की कार्रवाई से पुलिस की काफ़ी आलोचना भी हुई थी और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार भारी दबाव में आ गई थी और आख़िरकार सरकार को किसानों की सभी मांगे माननी पड़ी थी. 

चौधरी चरण सिंह जैसे नेताओं के पास ग्रामीण भारत की तरक्की का एक विजन था.  वो चाहते थे कि किसानों के हाथ में राजनीतिक शक्ति आए और देश में बड़े पैमाने पर कृषि सुधार हों. 

वर्ष 1952 में जब वो उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री थे. तब वो ज़मींदारी की प्रथा को समाप्त करने के लिए एक कानून लेकर आए.  उनकी इस कोशिश का भी एक वर्ग ने जबरदस्त विरोध किया, खासकर उन बड़े बड़े ज़मींदारों ने जो खुद के किसान होने का दावा करते थे. लेकिन चौधरी चरण सिंह ने अपनी सूझ-बूझ से इस कानून को लागू कराया. इसका नतीजा ये हुआ कि उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति बेहतर होने लगी और इसका एक बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि उत्तर प्रदेश में नक्सल आंदोलन को जगह नहीं मिली, जबकि ज़मींदारों के विरोध के नाम पर ही देश के कई हिस्सों में नक्सली आंदोलन चलाए गए. 

किसान नेताओं में दूरदृष्टि का अभाव

यानी चौधरी चरण सिंह किसानों के लिए दूर दृष्टि रखते थे और वो छोटी मोटी मांगों को दरकिनार करके भविष्य के लिए बड़े फ़ैसले लेते थे. लेकिन आज के किसान नेताओं में इस दूरदृष्टि का अभाव है और किसानों की मांग को कैसे आगे बढ़ाना है. इसकी भी किसान नेताओं के पास सही सही कोई योजना नहीं है. कुल मिलाकर किसानों के नाम पर राजनीति तो बहुत हो रही है. लेकिन चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत जैसे नेताओं के अभाव में किसान आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. किसानों के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो सरकार के साथ बातचीत करके बीच का रास्ता निकाल सके. यानी कुल मिलाकर भ्रम और असंमजस की स्थिति बनी हुई है. 

इस असंमजस का नतीजा क्या हो सकता है. ये आज हम आपको एक मशहूर कहानी के ज़रिए समझाना चाहते हैं. ये कहानी अंग्रेज़ लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने लिखी थी जिसका नाम था, Animal Farm. ये कहानी एक फार्म पर रहने वाले कुछ जानवरों की है, जो अपने मालिक के रवैये से बहुत परेशान थे. उन्हें लगता था कि उनका मालिक एक तानाशाह की तरह काम करता है. इसके बाद जानवरों ने अपने मालिक के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी.  मालिक को फार्म  छोड़कर जाना पड़ा. जानवरों को लगा कि अब फार्म में लोकतंत्र आ गया है, जहां सबकी सुनी जाएगी और सबके बराबर अधिकार होंगे.  लेकिन जानवरों की ये खुशी सिर्फ़ कुछ दिनों की मेहमान थी क्योंकि उसी फार्म पर रहने वाले दो जानवरों ने ये महसूस किया कि उनके बीच किसी नेता का अभाव है. इसके बाद ये दोनों जानवर फार्म  के नेता बन गए और फिर इन्होंने फार्म के मालिक से भी एक कदम आगे बढ़ते हुए जानवरों का शोषण शुरू कर दिया और जानवरों के सभी अधिकार छीन लिए. 

इस कहानी का सार ये है कि शक्ति आपको भ्रष्ट बनाती है और जो लोग शक्ति का सही दिशा में और सकारात्मक प्रयोग नहीं करते, वो एक न एक दिन कुछ लोगों की राजनीति का शिकार हो जाते हैं. 

आंदोलनों के नाम पर शहरों को बंधक बनाने के खिलाफ थे चौधरी चरण सिंह

आज हमने 1952 में चौधरी चरण सिंह के साथ जुड़े उनके सबसे पुराने और भरोसेमंद सहयोगियों में से एक जयपाल सिंह ने बात की. उन्होंने बताया कि चौधरी चरण सिंह आंदोलनों के नाम पर इस तरह से शहरों को बंधक बनाने के खिलाफ थे.

चौधरी चरण सिंह गर्व से कहते थे कि वो किसानों के नेता हैं.  उन्होंने समाज के उस वर्ग को आवाज़ दी, जो शोषित और पीड़ित था और जिसकी सुनवाई कहीं नहीं होती थी. आज भी कई पार्टियां और  और नेता चौधरी चरण सिंह के नाम पर राजनीति करते हैं.  किसानों से जुड़ने के लिए उन्हें अपना कंधा बनाते है.  लेकिन जब बात सम्मान देने की आती है, उन्हें याद करने की आती है, तो ये नेता दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते.  सबसे बड़ी बात ये है कि मौजूदा लोकसभा के 38 प्रतिशत सांसद किसान है. 

किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता 

लेकिन आज हम आपको बताएंगे कि जिस देश में हर तीन में से एक सांसद किसान है, वहां किसानों के सबसे बड़े नेता चौधरी चरण सिंह के पुश्तैनी गांव और उनके घर का क्या हाल है.  चौधरी चरण सिंह का जन्म दिल्ली के पास हापुड़ के नूरपुर गांव में हुआ था.  लेकिन आज इसी गांव के लोग चौधरी चरण सिंह के पुत्र और राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह से नाराज़ है.  आज हमने चौधरी चरण सिंह की इसी जन्मस्थली से एक ग्राउंड रिपोर्ट  तैयार की है. इसे पढ़कर आप समझ जाएंगे कि जिस देश में भारत के पहले किसान प्रधानमंत्री को सम्मान नहीं मिला. उस देश में किसानों के नाम पर राजनीति करने वाले नेता भला किसानों की समस्या को कैसे हल कर सकते हैं. 

वो गांव, जिसे राजनीति ने भुला दिया

उत्तर प्रदेश के हापुड़ ज़िले का एक छोटा सा गांव है नूरपुर.  गांव तक जाने वाली सड़कें आज भी कच्ची हैं.  यहां न  तो बच्चों के पढ़ने के लिए कोई स्कूल है और न ही दूसरी ज़रूरी सुविधाएं हैं.  ये वो गांव  है, जिसे राजनीति ने भुला दिया.  जिससे नेताओं ने भी मुंह फेर लिया. ये गांव भारत के पांचवें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का है. 

नूरपुर गांव की ये वही गलियां हैं, वही खेत हैं, जहां भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का बचपन बीता. वो इसी गांव  से दिल्ली में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.  जब तक वो जिंदा रहे, तब तक ये गांव भी राजनीति के केन्द्र में रहा.  कई बड़े नेताओं ने इस गांव का दौरा किया. लेकिन समय के साथ इस गांव को नेताओं ने भुला दिया. 

नूरपुर गांव में जिस जगह चौधरी चरण सिंह का जन्म हुआ था, वहां  आज मवेशियों को बांधा जाता है.  उन्हें चारा खिलाया जाता है. यहां  जो कमरे बने हैं, उनकी दीवारें और छतें जर्जर सी मालूम पड़ती हैं.  इस जगह को देख कर ये अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि ये किसान चेतना के महानायक चौधरी चरण सिंह की जन्म स्थली है. 

वर्ष 2000 में यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने चौधरी चरण सिंह की याद में गांव में एक लाइब्रेरी बनवाई थी.  तब अजीत सिंह की पार्टी RLD भी सरकार में सहयोगी की भूमिका में थी.  लेकिन समय के साथ जैसे इस गांव का इतिहास धुंधला पड़ना लगा है, ठीक उसी तरह ये लाइब्रेरी भी अपना वजूद खो चुकी है. लाइब्रेरी में जो कुछ किताबें रखी भी हैं, उन पर धूल की परत जम चुकी है. अंदर  तो बैठने के लिए कुर्सियां हैं और न ही टेबल रखे हैं.  पंखे ग़ायब हैं और बिजली के बोर्ड भी उखड़े हुए हैं. 

इस लाइब्रेरी की तरह वर्ष 2006 में इस गांव में एक गेस्ट हाउस भी बन कर तैयार हुआ था.  मकसद ये था कि जब लोग इस गांव में भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को क़रीब से जानने के लिए आएंगे, तो उन्हें इसी गेस्ट हाउस में ठहराया जाएगा. लेकिन जिस तरह नेताओं ने इस गांव को भुलाया, उसकी व्यथा आज इस गेस्ट हाउस पर लटका ये ताला बयां करता है, जिस पर जंग लग चुका है. 

नूरपुर गांव के लोगों की लंबे  समय से ये मांग रही है कि वहां एक इंटर कॉलेज हो.  राजनाथ सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब इस मांग को पूरा भी किया गया. ज़मीन दी गई, ज़मीन के चारों तरफ़ दीवारें भी खड़ी हुई, लेकिन बाद में परिस्थितियां  बदलते ही, ये इंटर कॉलेज एक अधूरी मांग बन कर रह गया.

चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष हैं, उनके पोते जयंत चौधरी पार्टी में उपाध्यक्ष हैं.  लेकिन लोगों की शिकायत है कि भारत के पांचवें प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को वैसा सम्मान किसी ने नहीं दिया, जिसके वो हकदार थे. आज समय के साथ उनकी विरासत भी बदल रही है. अब उनके परिवार से जुड़े कुछ लोग BJP में सदस्य हैं और उनके घरों की दीवारों पर चौधरी चरण सिंह के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी तस्वीर लग चुकी है. 

आज देश को चौधरी चरण सिंह जैसे नेता की कमी बहुत खल रही

नेता भले ही चौधरी चरण सिंह को भूल गए हों, लेकिन उनके गांव  में जब हमारी टीम पहुंची तो हमें ऐसे कई लोग मिले जो उन्हें आज भी याद करते हैं. 

चौधरी चरण सिंह गर्व से कहते थे कि वो किसानों के नेता हैं. आज हमारे देश में किसानों के नाम राजनीति में बड़ी बड़ी बातें और दावे होते हैं. लेकिन एक किसान जो देश का प्रधानमंत्री बना, जिसे जन्मदिवस को किसान दिवस के रूप में मनाया है.  उनके जन्मस्थान की बेहद बुरी हालत है और ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. 

चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह से उनके ही गांव के लोग नाराज़ हैं और उनके पोते जयंत चौधरी पर भी ये आरोप है कि उन्होंने बहुत समय से अपने दादा के गांव का हाल चाल नहीं पूछा है.  य़ानी चौधरी चरण सिंह की विरासत धीरे धीरे कमज़ोर हो रही है और आज देश को चौधरी चरण सिंह जैसे नेता की कमी बहुत खल रही है. 

इसी तरह किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत खुद आज किसान आंदोलन का हिस्सा हैं. महेंद्र सिंह टिकैत और चौधरी चरण सिंह की तरह इस देश ने चौधरी देवी लाल और चौधरी छोटू राम जैसे नेताओं को भी जन्म दिया है.  लेकिन आज देश में आपको इनके कद के बड़े किसान नेता शायद ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे. 

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