DNA ANALYSIS: कैसे हुआ तालिबान का जन्म? समझिए अफगानिस्तान की पूरी ABC
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DNA ANALYSIS: कैसे हुआ तालिबान का जन्म? समझिए अफगानिस्तान की पूरी ABC

इतिहास ने एक बार फिर ख़ुद को दोहराया और सोवियत संघ की तरह अमेरिका को भी बिना कुछ हासिल किए अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा. सोचिए, ये बड़े-बड़े देश कैसे अपने हितों के लिए ऐसे देशों को क्रूरता की आग में झोंक देते हैं. 

DNA ANALYSIS: कैसे हुआ तालिबान का जन्म? समझिए अफगानिस्तान की पूरी ABC

नई दिल्ली: पश्तो भाषा में तालिबान का अर्थ होता है छात्र. ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन रखते हैं. हालांकि, तालिबान बहुत पुराना आतंकवादी संगठन नहीं है. तालिबान की शुरुआत 1990 के दशक से मानी जाती है, जब सोवियत संघ ने अपनी सेना को अफगानिस्तान से निकालना शुरू किया था. अफगानिस्तान में सोवियत संघ की मौजदगी 10 वर्षों तक रही, ये बात 1979 के 1989 के बीच की है.

  1. तालिबान के पनपने की पूरी कहानी
  2. बड़े-बड़े देशों ने सोचा अपना फायदा
  3. भारत के लिए बन सकता है खतरा

बड़े मुल्कों को दिखा अपना फायदा

वर्ष 1979 में सोवियत संघ की मदद से अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ था और अफगानिस्तान पूरी तरह सोवियत संघ के नियंत्रण में चला गया था. ये वही समय है, जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ मुजाहिदीन गुट और नेता मज़बूत हुए. इन अलग-अलग गुटों को सोवियत संघ से लड़ने के लिए अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब ने पैसा और हथियार दोनों दिए.

यानी, अमेरिका उस समय अपने फायदे के लिए इस तरह के संगठनों के साथ था, जिससे पता चलता है कि सत्ता के नशे में चूर इन बड़े-बड़े देशों के लिए इंसान की जान की कोई क़ीमत नहीं है.

कैसे पड़ी तालिबान की नींव? 

बड़ी बात ये है कि सऊदी अरब ही वो देश है, जिसने तालिबान की नींव रखने में उसकी मदद की. 1990 के दशक में जब अफगानिस्तान में पश्तून आन्दोलन चरम पर था, तब सऊदी अरब की तरफ़ से इसे भरपूर समर्थन मिला. लोगों को इस्लामिक मदरसों में भेजना और सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार करना ही इस आन्दोलन का मकसद था.  इन मदरसों में लोगों की पढ़ाई का ख़र्च सऊदी अरब उठाता था और ऐसा माना जाता है कि उत्तरी पाकिस्तान के मदरसों से तालिबान का विचार निकला. इसके बाद अफगानिस्तान में इसका विस्तार हुआ, यानी तालिबान की जन्मभूमि पाकिस्तान है.

इसी पश्तून आन्दोलन ने तालिबान को मुजाहिदीन गुटों से अलग पहचान दिलाई. तालिबान ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में शांति, सुरक्षा और शरिया क़ानून की स्थापना का वादा किया और सत्ता के लिए एक नया संघर्ष शुरू हो गया. वर्ष 1996 आते-आते तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया. यानी काबुल पर तालिबान का ये पहला क़ब्ज़ा नहीं है. इससे पहले भी वो नियंत्रण की लड़ाई लड़ चुका है. बस फर्क इतना है कि तब अमेरिका उसके साथ था और अब अमेरिका, अफगानिस्तान से अपनी सेना को बुला कर तालिबान की अनौपचारिक रूप से मदद कर रहा है.

मुस्लिम देशों से मिला समर्थन

तालिबान ने वर्ष 1996 से वर्ष 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन किया. दुनिया के केवल तीन देश ऐसे थे, जिन्होंने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी, और ये तीन देश थे, पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई. अब आप समझ गए होंगे कि तालिबान की वापसी से पाकिस्तान इतना ख़ुश क्यों है और कई मुस्लिम देशों से भी तालिबान को क्यों समर्थन मिल रहा है.

11 सितम्बर 2001 को जब आतंकवादी संगठन अल कायदा ने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (World Trade Center) पर हमला किया, तब अल कायदा और ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान की ज़मीन से ही ऑपरेट करता था. यही वजह है कि, जिस तालिबान को अमेरिका पैसा और हथियार दोनों देता था, उसके ख़िलाफ़ उसने युद्ध छेड़ दिया और ये संघर्ष 20 वर्षों तक चला.

लेकिन इतिहास ने एक बार फिर ख़ुद को दोहराया और सोवियत संघ की तरह अमेरिका को भी बिना कुछ हासिल किए अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा. सोचिए, ये बड़े-बड़े देश कैसे अपने हितों के लिए ऐसे देशों को क्रूरता की आग में झोंक देते हैं और जैसे ही इन्हें लगता है कि अब इनका मकसद पूरा हो गया है और इनके लिए यहां कुछ नहीं बचा, तो ये वापस इसी तरह लौट जाते हैं. पीठ दिखा कर निकल जाते हैं.

भारत पर पड़ेगा ऐसा असर

अगर आप हैदाराबद, बेंगलूरु, केरल, मुम्बई या देश के किसी और शहर या गांव में रहते हैं और आप ऐसा सोच रहे हैं कि अफगानिस्तान के इस संकट से आपका कोई मतलब नहीं है तो आज आपको अपनी ये जानकारी भी सुधार लेनी चाहिए.

आज आपको इसलिए चिंतित होना चाहिए क्योंकि अब तालिबान के आतंकवादी कश्मीर से सिर्फ़ लगभग 400 किलोमीटर दूर हैं. इसे ऐसे समझिए कि दिल्ली से शिमला के बीच जितनी दूरी है, तालिबान उतनी ही दूर कश्मीर से है. पाकिस्तान के पेशावर और अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को जोड़ने वाली सड़क पर सीमा के पास जो अफगानिस्तान की तोरखम बॉर्डर पोस्ट है, वहां से कश्मीर में लाइन ऑफ कंट्रोल (Line of Control) की दूरी लगभग 400 किलोमीटर है. ये भारत के लिए अच्छी बात नहीं है क्योंकि इससे अब कश्मीर में तालिबान प्रायोजित आतंकवाद का प्रभाव दिख सकता है.

1990 के दशक में जब अफगानिस्तान पर तालिबान का क़ब्ज़ा था, उस समय जेहाद और इस्लाम के नाम पर तालिबान ने पाकिस्तान और वहां के आतंकवादी संगठनों की खूब मदद की थी और कई हमलों में अपने आतंकवादियों को भी कश्मीर में भेजा था.

तालिबान की वापसी से अफगानिस्तान हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी ताक़तों का फिर से एपीसेंटर (Epicenter) बन जाएगा. आज से 20 साल पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार थी तब वहां से भारत के ख़िलाफ़ कई साज़िशें रची गईं, इनमें 24 दिसम्बर 1999 में हुई कंधार हाईजैक की आतंकी घटना सबसे प्रमुख है.

कंधार हाईजैक में तालिबान का हाथ

इसमें आतंकवादियों ने नेपाल के काठमांडू से दिल्ली के लिए उड़े IC 814 विमान को हाईजैक कर लिया था और इसके बदले में मसूद अजहर समेत तीन आतंकियों को रिहा करा लिया था. इस विमान को कंधार में उतारा गया था और तालिबान ने इन आतंकियों को पूरी सुरक्षा दी थी.

वर्ष 2001 में तालिबान ने बाम्यान में बुद्ध की प्राचीन और सबसे बड़ी प्रतिमा को भी तोड़ दिया था. यानी अफगानिस्तान में तालिबान का शासन फिर से आने के बाद यही तस्वीरें दोबारा देखने को मिल सकती हैं, इसलिए आज आप सबको इससे चिंतित होने की ज़रूरत है.

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