आज हम आपको देश के सबसे पुराने प्राइवेट न्यूज़ चैनल ज़ी न्यूज़ के बारे में बताएंगे. ज़ी न्यूज़ की शुरुआत आज से 26 वर्ष पहले हुई थी. उस ज़माने में आज की तरह टीआरपी मापने का कोई पैमाना नहीं था.
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नई दिल्ली: आज हम आपको देश के सबसे पुराने प्राइवेट न्यूज़ चैनल ज़ी न्यूज़ के बारे में बताएंगे. ज़ी न्यूज़ की शुरुआत आज से 26 वर्ष पहले हुई थी. उस ज़माने में आज की तरह टीआरपी मापने का कोई पैमाना नहीं था. तब ज़ी न्यूज़ को विज्ञापन कैसे मिलते थे, इस बारे में ज़ी टीवी की स्थापना करने वाले डॉक्टर सुभाष चंद्रा ने एक बार एक किस्सा सुनाया था. उन्होंने बताया था कि उस ज़माने में ज़ी न्यूज़ को देशभर से लोग पोस्ट कार्ड्स और चिट्ठियां भेजते थे.
टीआरपी हित की खबरें
ज़ी न्यूज़ को तब देशभर से हजारों लाखों चिट्ठियां आया करती थीं और हमारी सेल्स टीम को यही चिट्ठियां देकर एडवर्टाइजर्स के पास भेजा जाता था. हमारी सेल्स टीम के लोग एडवर्टाइजर्स को ये चिट्ठियां दिखाया करते थे और उन्हें बताते थे कि ये चिट्ठियां देश के कोने कोने से आई हैं. तब इसी आधार पर हमें विज्ञापन मिला करते थे. ये मौलिक व्यूअरशिप थी और इसमें जरा सी भी मिलावट नहीं थी. लेकिन बाद में जब देश में नए नए न्यूज़ चैनल आने लगे तो ये एक उद्योग में बदल गया. इसके बाद टीआरपी का पैमाना आया और देश के न्यूज़ चैनलों में टीआरपी के हिसाब से कार्यक्रम बनने लगे. राष्ट्रहित और समाज हित की खबरें छोड़कर आपको टीआरपी हित की खबरें दिखाई जाने लगीं और आज हालत ये हो गई है कि हमारे देश के मीडिया ने फेक फॉलोअर्स से फेक टीआरपी तक का सफर तय कर लिया है. इसके लिए कुछ हद तक देश के दर्शक भी जिम्मेदार भी हैं क्योंकि, न्यूज़ चैनलों पर फरमाइशी खबरों का चित्रहार दिखाने वालों ने तो पत्रकारिता के साथ धोखा किया ही, दर्शकों ने भी ये नहीं सोचा कि इससे पत्रकारिता को कितना बड़ा नुकसान हो रहा है. हमने कुछ दिनों पहले ही आपको इस विषय में चेतावनी दी थी.
न्यूज़ चैनल की सफलता का पैमाना
टीआरपी की ये रेस पत्रकारिता के लिए भस्मासुर साबित हुई है. किसी न्यूज़ चैनल की सफलता का पैमाना टीआरपी को मान लिया गया है, जबकि सच ये है कि जब टीआरपी को मापने की शुरुआत हुई थी तो इसका मकसद दर्शकों के बीच किसी चैनल की लोकप्रियता मापना नहीं था, बल्कि ये व्यवस्था एडवर्टाइजर्स के लिए की गई थी, जबकि दर्शकों का इससे कोई लेना देना ही नहीं था. लेकिन आज टीआपी के दम पर ही हर चैनल खुद को नंबर वन साबित करने में जुटा है. न्यूज़ चैनलों के रूप में इस समय पूरे देश में सच के अलग अलग संस्करण बेचने वाली 400 से ज्यादा दुकानें चल रही हैं. टीवी पर जो न्यूज़ दिखाई जाती है उसके विज्ञापन का बाजार इस समय 3 हजार 640 करोड़ रुपए का है, जबकि टीवी पर विज्ञापन का कुल बाजार 32 हजार करोड़ रुपए का है और ये 400 न्यूज चैनल विज्ञापन के इसी बाजार में अपना हिस्सा ढूंढ रहे हैं. किसे कितनी टीआरपी मिलेगी और किसे कितना विज्ञापन. ये दोनों व्यवस्थाएं समानांतर चल रही हैं और इसी की लड़ाई ने पत्रकारिता की ये हालत कर दी है. जैसे जैसे टीआरपी बढ़ती है वैसे वैसे चैनलों के पास विज्ञापन के रूप में ज्यादा पैसा आता है और जैसे जैसे टीआरपी घटती है, ये पैसा भी कम होने लगता है.
टीआरपी घोटाले की ये खबर देखने के बाद आपके मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि टेलीविजन रेटिंग और विज्ञापनों के करोड़ों रुपए के इस कारोबार पर नियंत्रण के लिए क्या कोई कानून नहीं है? टीआरपी घोटाले के सामने आने के बाद यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि, इससे न सिर्फ न्यूज चैनलों, बल्कि पूरी मीडिया की विश्वसनीयता पर दाग लगा है.
न्यूज चैनलों के कंटेंट पर कोई नियंत्रण नहीं
अभी पूरी टेलीविजन इंडस्ट्री 1995 के केबल टीवी नेटवर्क रेगुलेशन एक्ट के तहत आती है. इस कानून के तहत सभी टेलीविजन चैनलों के लिए कुछ नियम कायदे तय किए गए हैं. लेकिन न्यूज चैनलों के कंटेंट पर अभी कोई नियंत्रण नहीं है. इसके लिए जो व्यवस्था है उसे सेल्फ रेगुलेशन या आत्म नियंत्रण कहा जाता है.
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या यही व्यवस्था काफी है क्योंकि जिस तरह की जानकारी आज सामने आई है उससे पूरे सिस्टम पर प्रश्न चिन्ह् लग गया है. जहां तक न्यूज चैनलों का सवाल है उनके लिए रेटिंग का एकमात्र पैमाना उनकी विश्वसनीयता होनी चाहिए क्योंकि, यही वो पैमाना है जिसकी कोई हैकिंग नहीं की जा सकती.
आज इस टीआरपी वाले भ्रष्टाचार के संदर्भ में हमें मुंशी प्रेमचंद की एक और बात याद आ रही है. उन्होंने अपनी मशहूर रचना नमक का दारोगा में लिखा था— मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय बहता हुआ झरना है जिससे सदैव प्यास बुझती है.
टीआरपी खरीदने के लिए घूसखोरी
अगर आप इसे न्यूज चैनलों के संदर्भ में देखेंगे तो आप कह सकते हैं कि सच्ची पत्रकारिता तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देती है और घटते-घटते लुप्त हो जाती है. लेकिन टीआरपी बहता हुआ झरना है जिससे सदैव पत्रकारों की प्यास बुझती है. लेकिन ये प्यास देश के भविष्य के लिए बहुत खतरनाक है.
न्यूज़ चैनलों के लिए टीआरपी कुछ वैसे ही है, जैसे किसान के लिए उसकी फसल, नेताओं के लिए वोट, फिल्म के लिए बॉक्स ऑफिस कलेक्शन, क्रिकेटर्स के लिए रन और विकेट. न्यूज़ चैनल के लिए टीआरपी एक पवित्र पैमाने जैसा है और कोई न्यूज़ चैनल जब इस पैमाने से छेड़छाड़ करने लगे तो समझिए वो कितना बढ़ा अपराध कर रहा है.
इस छेड़छाड़ के पीछे सबसे बड़ी वजह ये है कि देश में ज्यादातर दर्शक न्यूज़ चैनल मुफ्त में देखना पसंद करते हैं और इसी वजह से न्यूज़ चैनलों के लिए टीआरपी में हिस्सेदारी अहम हो जाती है. टीआरपी के लिए उछल कूद, शोर शराबा और हंगामा खड़ा किया जाता है. ठीक वैसे ही जैसे मुनाफा कमाने के लिए दूधिया, दूध में पानी मिलाने लगता है, दुकानदार तराजू में छेड़छाड़ करने लगता है. ऐसी ही मिलावट बीते कुछ समय से खबरों में खूब दिख रही थी. लेकिन अब टीआरपी खरीदने के लिए घूसखोरी तक शुरू हो गई है.
सस्ता कंटेंट इतना लोकप्रिय कैसे हो जाता है?
आपने ध्यान दिया होगा कि जिन फिल्मों का कंटेंट अच्छा नहीं होता, घटिया होता है, वो फिल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं करतीं. इससे उस फिल्म में काम करने वाले कलाकारों को भी नुकसान होता है और उनकी लोकप्रियता धीरे धीरे कम होने लगती है और उन्हें नई फिल्में मिलना बंद हो जाती हैं. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि न्यूज़ चैनलों के मामले में ऐसा क्यों नहीं होता ? आपको याद होगा एक समय था जब न्यूज़ चैनल राखी सावंत की खबरें दिखाते थे तो उन्हें खूब टीआरपी मिलती थी, लेकिन इस टीआरपी के बावजूद राखी सावंत को कभी बड़ी फिल्में या सीरियल नहीं मिले. इसी तरह एक ज़माने में न्यूज़ चैनलों पर नाग नागिन और एलियन्स जैसी खबरें दिखाई जाती थीं. ऐसी खबरों को भी अच्छी खासी टीआरपी मिलती थी. इसलिए हम ये सवाल पूछ रहे हैं कि जब घटिया कंटेंट पर आधारित फिल्में सफल नहीं होती तो न्यूज़ चैनलों पर सस्ता कंटेंट इतना लोकप्रिय कैसे हो जाता है?
खबरों का नियंत्रण जनता के हाथ में होना चाहिए
कल 8 अक्टूबर को भारत के महान सामाजिक कार्यकर्ता और समाज सुधारक जयप्रकाश नारायण की भी पुण्यतिथि थी. वर्ष 1979 में यानी 41 साल पहले 8 अक्टूबर को पटना में उनका निधन हुआ था. वो आपातकाल और आपात काल लागू करने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के धुर विरोधी थे. जिस प्रकार आपातकाल का लागू होना भारत के इतिहास में काला दिन माना जाता है. उसी तरह कल के दिन को आप पत्रकारिता का काला दिन कह सकते हैं. इसी दिन नकली रेटिंग स्कैम का खुलासा हुआ है. इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने एक बार कहा था- मेरी रुचि सत्ता में नहीं बल्कि लोगों द्वारा सत्ता के नियंत्रण में है. आज अगर वो जीवित होते तो शायद वो पत्रकारिता के इस दौर का विरोध करते और कहते कि खबरों का नियंत्रण TRP के मीटर के पास नहीं बल्कि जनता के हाथ में होना चाहिए.
जय प्रकाश नारायण ने जब आपातकाल और इंदिरा गांधी की राजनीति का विरोध शुरू किया था. तब उनके साथ देश के लाखों करोड़ों लोग उठ खड़े हुए थे. जेपी की लोकप्रियता का आलम ये था कि जब 7 फरवरी 1977 को जय प्रकाश नारायण ने दिल्ली के राम लीला मैदान में एक रैली को संबोधित करने का फैसला किया तो उनकी रैली को कमजोर करने के लिए उस समय की इंदिरा गांधी सरकार ने दूरदर्शन पर मशहूर हिंदी फिल्म बॉबी दिखाने का फैसला किया. इंदिरा गांधी को उम्मीद थी कि बॉबी के प्रसारण की वजह से लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे और जेपी को मनचाहा समर्थन नहीं मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और जेपी की इस रैली में हिस्सा लेने बड़ी संख्या में लोग पहुंचे. उस ज़माने में TRP तो नहीं आती थी लेकिन फिल्म बॉबी को इंदिरा गांधी ने उस समय लोकप्रियता का पैमाना मान लिया था. आज देश की जनता को गुमराह करने के लिए फिल्में तो नहीं दिखाई जा रहीं लेकिन न्यूज़ चैनलों पर जो कुछ दिखाया जा रहा है वो किसी सस्ती और घटिया फिल्म में होने वाली एक्टिंग से कम नहीं है.
अब आप ये भी सोचिए कि अगर आज मुंशी प्रेमचंद और जय प्रकाश नारायण जैसे लोग जीवित होते और किसी न्यूज चैनल पर उनका इंटरव्यू चलाया जाता तो क्या उस इंटरव्यू को TRP मिलती ?
टीआरपी घोटाले के इस केस में एक और न्यूज़ चैनल इंडिया टुडे टेलीविजन का नाम आया है. बार्क के लिए काम करने वाली एजेंसी हंसा के एक कर्मचारी ने मुंबई पुलिस में जो बयान दर्ज कराया है, उसमें बताया गया है कि
नवंबर 2019 में इंडिया टुडे टेलीविजन की टीआरपी बढ़ाने के लिए भी उससे कहा गया था.