'कुछ वैसा ही जैसा जर्मनी में हुआ था... उस रात पीएम आवास पर कोई नहीं सोया' Emergency की इनसाइड स्टोरी
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'कुछ वैसा ही जैसा जर्मनी में हुआ था... उस रात पीएम आवास पर कोई नहीं सोया' Emergency की इनसाइड स्टोरी

50 Years Emergency: आज ही के दिन 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगाया गया था. पीएम थीं इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति थे फखरुद्दीन अली अहमद. मौजूदा भाजपा सरकार आज कांग्रेस को घेर रही है. भाजपा आज काला दिवस मना रही है. ऐसे में पढ़िए आपातकाल की इनसाइड स्टोरी. 

'कुछ वैसा ही जैसा जर्मनी में हुआ था... उस रात पीएम आवास पर कोई नहीं सोया' Emergency की इनसाइड स्टोरी

1975 Emergency: विपक्ष को अंदाजा नहीं था कि उस पर क्या बीतनेवाली है. एक दिग्गज मार्क्सवादी ज्योतिर्मय बसु इसका अंदाजा बहुत हद तक लगा चुके थे, जब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि श्रीमती गांधी संविधान को समाप्त करना चाहती हैं, पी. एम. के ही किसी करीबी ने उन्हें जबरदस्त कार्रवाई का संकेत दिया था. उन्होंने अपने घर की खिड़कियों में लोहे की सलाखें लगवा ली थीं. उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री और बी.जे.डी. नेता बीजू पटनायक को लग रहा था कि कोई योजना तैयार हो चुकी है और उन्होंने अपना डर जाहिर किया. लेकिन विपक्ष का कोई नेता उन पर यकीन नहीं कर रहा था. उनकी बातें इतनी काल्पनिक थीं कि किसी को भरोसा नहीं हो रहा था.

वैसे भी, विपक्षी नेता 25 जून की रैली की तैयारियों में व्यस्त थे. जे.पी. जिन्हें अब 'लोकनायक' पुकारा जाने लगा था, उनके दिल्ली आने में देरी के चलते रैली को एक दिन के लिए टाल दिया गया. यह दिल्ली में अब तक की सबसे बड़ी रैली थी, लेकिन उतनी बड़ी नहीं जितनी कि श्रीमती गांधी की रैली थी, और उनके समर्थकों ने इसका पूरा श्रेय लिया. लेकिन जिन लोगों ने जे.पी. की रैली में हिस्सा लिया, वे अपने आप आए थे. उन्हें सरकार की ओर से किराए पर लिए गए ट्रकों में भरकर नहीं लाया गया था. वह भाड़े की भीड़ नहीं थी. 

एक के बाद एक, विपक्षी नेता प्रधानमंत्री पर सत्ता से चिपके रहने को लेकर हमले कर रहे थे. कुछ कहने लगे थे कि वे तानाशाह बन चुकी हैं. उन्होंने साफ कर दिया कि वे उन्हें काम करने नहीं देंगे. जे.पी. ने पांच सदस्यीय लोक संघर्ष समिति के गठन का ऐलान किया, जिसके अध्यक्ष मोरारजी थे. जन संघ के आला नेता नानाजी देशमुख उसके सचिव थे. यह समिति देशभर में 29 को आंदोलन करेगी, जिससे कि श्रीमती गांधी को इस्तीफा देने पर मजबूर किया जाए. आंदोलन के तहत अहिंसक हड़ताल, सत्याग्रह और प्रदर्शन किए जाने थे.

जेपी ने वहां मौजूद लोगों से कहा कि वे अपने हाथ उठाकर बताएं कि क्या जरूरत पड़ी तो वे देश में नैतिक मूल्यों की फिर से स्थापना के लिए जेल जाएंगे. सभी ने अपने हाथ उठा दिए. आश्चर्य की बात है, 24 घंटे बाद उनमें से कई ने तो विरोध तक नहीं किया. जब विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया गया, तो जेल जानेवाले और कम हो गए. जेपी ने पुलिस और सेना से भी अपील की कि वे किसी भी अवैध आदेश का पालन न करें, जैसा कि उनका मैनुअल भी कहता है.

विडंबना यह है कि 1930 के दशक में ठीक ऐसी ही अपील कांग्रेस पार्टी ने भी की थी. श्रीमती गांधी के दादा मोतीलाल नेहरू ने पार्टी को उस प्रस्ताव को पारित करने के लिए राजी किया था, जिसमें पुलिस से कहा गया था कि वह अवैध आदेशों का पालन न करे. उस समय इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस प्रस्ताव को फिर से प्रिंट करवाकर उसके परचे बांटनेवालों की ओर से की गई अपील को स्वीकार कर लिया था. अंग्रेजी राज के जजों ने कहा था कि पुलिस से अवैध आदेशों का पालन न करने की अपील करने में कुछ भी गलत नहीं है.

हालांकि श्रीमती गांधी, संजय और उनके समर्थकों के लिए पुलिस और सेना से की गई जेपी की अपील प्रचार का सबसे बड़ा मुद्दा था, जो उनके हाथ लग गया था. वे अब कह सकते थे कि वे सैन्य बलों के बीच असंतोष भड़का रहे हैं. उनके मुताबिक यह राष्ट्रद्रोह के जैसा था.

आधी रात पीएम आवास पर हलचल बढ़ी

लेकिन यह सिर्फ एक बहाना था. उससे बहुत पहले ही संजय गांधी और उनके भरोसेमंद लोग हमला करने की तैयारी कर चुके थे. जैसे ही आधी रात का वक्त हुआ, प्रधानमंत्री आवास पर जबरदस्त हलचल हुई. राज्यों को आदेश जारी कर दिए गए थे, और उनमें से कई यह जानना चाहते थे कि क्या उन्हें प्रेस की आजादी छीनने के अलावा श्रीमती गांधी के विरोधियों को गिरफ्तार भी करना है. जिन नेताओं को दिल्ली तथा अन्य जगहों पर हिरासत में लिया जाना था, उनकी सूची तैयार थी और श्रीमती गांधी को दिखा दी गई. इन सूचियों को तैयार करने में जिस एक खुफिया विभाग ने खासा योगदान दिया, वह था- रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रॉ).

RAW का अहम रोल

रॉ का गठन 1962 में चीनियों के साथ युद्ध के अंतिम चरण में हुआ था, जिसका मकसद विदेश में भारत की खुफिया जानकारी में सुधार करना था क्योंकि चीन के साथ युद्ध के दौरान खुफिया सूचना को लेकर भारी विफलता सामने आई थी. बीजू पटनायक ने शुरुआत में सहायता दी थी, क्योंकि उन्हें शत्रु के मोर्चे के पीछे काम करने की ख्याति प्राप्त थी. बरसों पहले जब इंडोनेशिया पर डच शासन कायम था, तब इंडोनेशिया के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उसके नेता सुकर्णों को बचाने के लिए वे स्वयं एक विमान उड़ाकर जकार्ता पहुंचे थे.

रॉ सीधे प्रधानमंत्री सचिवालय के अंतर्गत था. श्रीमती गांधी पहली प्रधानमंत्री थीं, जिन्होंने इसका इस्तेमाल देश के भीतर राजनीतिक खुफियागिरी के लिए किया था. इसकी खूबी इसकी गोपनीयता और उसके कर्मचारी थे, जिन्हें या तो उनके शानदार अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर या किसी भरोसेमंद आला सिविल या पुलिस अधिकारी से घनिष्ठ संबंध के आधार पर चुना गया था. रॉ ने सरकार के विरोधियों, कांग्रेस पार्टी के भीतर आलोचकों, कारोबारियों और पत्रकारों पर डोजियर तैयार किया था. विरोधियों की लिस्ट तैयार करना मुश्किल नहीं था, रॉ ने सबकुछ अपनी फाइलों में तैयार कर रखा था. 

आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मीसा) में सिर्फ एक साल पहले संशोधन किया गया था, जिससे सरकार को कोर्ट के समक्ष आरोपों को पेश किए बिना ही व्यक्तियों को हिरासत में लेने या गिरफ्तार करने का अधिकार मिल गया था. हालांकि जब इस कानून को पास किया गया, तब सरकार ने संसद में विपक्ष को भरोसा दिलाया था कि मीसा का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों को पकड़ने के लिए नहीं किया जाएगा. बंसी लाल चाहते थे कि दिल्ली में पकड़े गए नेताओं को हरियाणा में रखा जाए. उन्होंने श्रीमती गांधी से कहा था, 'मैंने रोहतक में एक बड़ी और आधुनिक जेल बनवाई है.'

इंदिरा गांधी ने आर्मी चीफ को बुलाया

श्रीमती गांधी ने सेना प्रमुख जनरल रैना को दौरे से वापस बुला लिया. यह बस एक एहतियाती कदम था. इस समय तक दिल्ली पुलिस के आला अफसर भी जान चुके थे कि जेपी, मोरारजी, कांग्रेस (ओ) अध्यक्ष अशोक मेहता तथा जन संघ के दो नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी गिरफ्तार किया जाना है.

लेकिन किस कानून के तहत? यह सवाल इस कारण उठा, क्योंकि तब तक उन्हें इमरजेंसी के बारे में मालूम नहीं था. वे यह पता लगा रहे थे कि उन्हें कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है. उन्हें बताया गया कि आई.पी.सी. की धारा 107 के तहत. लेकिन वह तो आवारा लोगों पर लागू होती है. जे.पी. और मोरारजी को उस धारा के तहत कैसे गिरफ्तार किया जा सकता था?

किशन चंद की मदद से दिल्ली के नामों की लिस्ट को अंतिम रूप दिया जा रहा था. पुलिस ने जब गिरफ्तारी के लिए वारंट की मांग की, तो दिल्ली के डिप्टी कमिश्नर सुशील कुमार ने पहले नामों को जान लेने पर जोर दिया. धवन को यह इसकी जानकारी दी गई तो वह गुस्से से लाल हो गए और इतनी जोर से चीखे कि वह दुबक गए. फिर सुशील ने सादे वारंट पर दस्तखत कर दिए. एक भरोसेमंद पुलिस अधिकारी पी.एस. भिंडर को हरियाणा से लाकर स्पेशल (इंटेलिजेंस) ब्रांच में तैनात किया गया था. उन्होंने हर वारंट पर नामों को भरा या जब जरूरत पड़ती, तब भर लिया करते थे.

पता चल गया था क्या होने वाला है

राज्यों में, जहां के मुख्यमंत्री जानते थे कि क्या होनेवाला है, अपने-अपने पुलिस के आई.जी. और मुख्य सचिव के साथ बैठे तथा गिरफ्तार किए जानेवालों की लिस्ट को अंतिम रूप दिया. हालांकि इसकी शुरुआती तैयारी 20 जून को दिल्ली से मुख्यमंत्रियों की वापसी के साथ ही शुरू हो गई थी, तब तक थोड़ा संदेह था. यह माना गया था कि कुछ एक को कुछ समय के लिए उठाया जाएगा और हिरासत में रखा जाएगा, ताकि उनका मुंह बंद किया जा सके.

मुख्यमंत्रियों के मन में जब भी सवाल उठते, वे प्रधानमंत्री आवास में फोन करते, जिसे घर या महल कहा जाता था. दूसरे छोर पर धवन हुआ करते थे जो उनके सारे सवालों के जवाब देते थे. कुछ मुख्यमंत्री अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि जब पुरानी इमरजेंसी लागू थी तो नए की जरूरत क्या थी. धवन ने उन्हें दोनों के बीच अंतर समझाया.

UP में बना FIR का नमूना

यू.पी. में, एफ.आई.आर. (प्राथमिकी) का एक नमूना लखनऊ में पुलिस हेडक्वार्टर की ओर से तैयार किया गया और सारे पुलिस थानों को भेज दिया गया ताकि उनकी फाइल में वह मौजूद रहे. यह एक एहतियात था, जबकि सब जानते थे कि कारण बताए बिना भी मीसा के तहत बंदी बनाया जा सकता है. 

सिद्धार्थ अकेले मुख्यमंत्री थे, जो दिल्ली में टिके थे और कलकत्ता में बैठे अफसरों को फोन पर निर्देश दे रहे थे. श्रीमती गांधी ने उनसे रुकने को कहा था, ताकि जब वह राष्ट्रपति के पास इमरजेंसी लागू करने के आदेश पर दस्तखत करने को कहें तब सिद्धार्थ उनके साथ हों.

सिद्धार्थ और इंदिरा राष्ट्रपति से मिलने निकले

डेडलाइन से लगभग चार घंटे पहले वह और श्रीमती गांधी राष्ट्रपति भवन के लिए रवाना हुए. सिद्धार्थ ने यह समझाने के लिए करीब 45 मिनट का वक्त लिया कि इमरजेंसी का मतलब क्या कुछ होगा. राष्ट्रपति को उसके परिणामों को समझने में देर नहीं लगी. वह भी कभी वकालत कर चुके थे. इसके साथ ही उन्हें अपने एक सहायक के. एल. धवन से, जो पी.एम. हाउस में तैनात धवन के भाई थे, संकेत मिल चुका था कि क्या कुछ होनेवाला है.

उन्हें विरोध करने का खयाल भी नहीं आया. देश के सर्वोच्च पद पर बिठाए जाने के लिए वह श्रीमती गांधी के ऋणी थे. दोनों गहरे दोस्त थे, खासतौर से उस समय से जब जगजीवन राम के साथ मिलकर उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध जताया था कि उन्होंने जन संघ और दक्षिणपंथी स्वतंत्र दलों से कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार संजीव रेड्डी के लिए समर्थन क्यों मांगा. अहमद को याद था कि कैसे श्रीमती गांधी के नेतृत्व में उन्होंने रेड्डी को हराकर कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के सिंडिकेट को धूल चटाई थी.

समय से 15 मिनट पहले हस्ताक्षर

इमरजेंसी लागू करने की घोषणा पर राष्ट्रपति ने 25 जून (1975) की रात 11:45 बजे दस्तखत किए, यानी तय समय से 15 मिनट पहले. धवन उसका मसौदा पीएम हाउस से लेकर आए थे. उस दिन राष्ट्रपति भवन का कोई भी अधिकारी सुबह 7 बजे से पहले घर नहीं गया. घोषणा में कहा गया कि एक गंभीर आपातकालीन स्थिति है, जिसमें भारत की सुरक्षा को आंतरिक उपद्रव से खतरा है. इसने सरकार को प्रेस की आजादी समाप्त करने, नागरिक अधिकारों को लागू करने के संबंध में चलनेवाली अदालती कार्रवाइयों पर रोक लगाने समेत कई अधिकार दिए.

जैसा जर्मनी में हुआ था

यह बहुत कुछ वैसा ही था जैसा बरसों पहले जर्मनी में हुआ था. हिटलर को राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग को यह समझाने में कामयाबी मिली थी कि लोगों और देश की सुरक्षा के लिए वह उस आदेश पर दस्तखत कर दें, जिससे संविधान की उन धाराओं को निरस्त कर दिया जाए, जिससे व्यक्तिगत और नागरिक स्वतंत्रताओं का अधिकार मिलता था.

अब श्रीमती गांधी के पास उस विपक्ष और प्रेस से निपटने की पूरी शक्ति थी, जो उनकी वैधता पर सवाल उठा रहे थे. मनमर्जी से कानून बनाने के पूरे अधिकार थे, नियमों और परंपराओं को बदलने की भी पूरी ताकत थी. एक देश, जो अगस्त 1947 में मिली आजादी के बाद से ही लोकतंत्र के रास्ते पर किसी तरह चलता चला आ रहा था, जबकि पश्चिमी देश इस पर नुक्ता-चीनी कर रहे थे कि क्या यह व्यवस्था भारतीय बुद्धि के अनुरूप है, वहां अब अर्ध-तानाशाही व्यवस्था कायम हो गई थी.

एक बार इंदिरा ने कहा था

श्रीमती गांधी ने एक बार कहा था कि वह इतिहास में एक ताकतवर हस्ती के रूप में याद किया जाना पसंद करेंगी, कुछ हद तक नेपोलियन या हिटलर की तरह, जिन्हें हमेशा याद किया जाएगा. करीब 40 साल पहले उनके पिता ने जो बात अपने लिए लिखी थी, वह उन पर भी सच होती दिख रही थी, 'एक छोटा सा बदलाव और जवाहरलाल एक तानाशाह बन सकता था, धीमी चाल चलनेवाले लोकतंत्र के तामझाम को ताक पर रख देता. वह अब भी लोकतंत्र और समाजवाद की भाषा और नारे का इस्तेमाल करता, लेकिन हम सब जानते हैं कि कैसे इस भाषा के सहारे फासीवाद प्रबल हुआ है और फिर उसे कबाड़ की तरह फेंक देता है.'

चीजों को कराने की उसकी प्रबल इच्छा, जिसे वह पसंद नहीं करता उसे मिटा देने और नए के निर्माण की इच्छा के आगे, वह लोकतंत्र की धीमी प्रक्रिया को शायद ही बर्दाश्त करेगा. वह उसके आवरण को ओढ़े रख सकता है, लेकिन यह सुनिश्चित करेगा कि वह उसकी मर्जी का गुलाम हो. सामान्य हालातों में वह बस एक कुशल और सफल शासक होगा, लेकिन इस क्रांतिकारी युग में, निरंकुशता हमेशा करीब खड़ी रहती है, और क्या यह संभव नहीं कि जवाहरलाल अपने आपको निरंकुश बनाने की कल्पना कर लें?

जो नेहरू को जानता था...

नेहरू को जो भी जानता था, उसे मालूम था कि नेहरू ऐसा नहीं करेंगे. जो उनकी बेटी को जानता था वह कह सकता था कि वह उस भूमिका में अपने आपको ढालने की कल्पना से कहीं अधिक कर सकती थीं. उस रात उनके बेटे ने उन्हें उकसाया था.

उस रात पीएम आवास पर कोई नहीं सोया था. राष्ट्रपति भवन से लौटने के बाद श्रीमती गांधी ने सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक बुलाने का फैसला किया. अब तक वह जान चुकी थीं कि जेपी, मोरारजी और सैकड़ों अन्य की गिरफ्तारी योजना के मुताबिक की जा रही थी.

(इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी- कुलदीप नैयर की किताब से साभार)

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