किसान सड़कों पर न उतरते तो क्या करते
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किसान सड़कों पर न उतरते तो क्या करते

सिर्फ खाद, पानी, बीज और अकुशल श्रमिक की मजदूरी को लागू करें तो इस समय एक किलो गेहूं की कीमत कम से कम 40 रुपये होनी चाहिए, जबकि एमएसपी के हिसाब से भी किसान को 17-18 रुपये किलो गेहूं मिल रहा है. इसी गेहूं का आटा शहरों में 35 से 50 रुपये किलो मिल रहा है.

किसान सड़कों पर न उतरते तो क्या करते

नई दिल्ली: दिल्ली के रामलीला मैदान से संसद की तरफ किसानों ने कूच कर दिया है. दिल्ली पुलिस की मानें तो किसान मार्च में एक लाख से ज्यादा किसान शामिल हैं. साल भर के भीतर यह तीसरा बड़ा मौका है, जब देश के किसानों को दिल्ली कूच करना पड़ा. इस साल मार्च के महीने में अन्ना हजारे के नेतृत्व में किसान दिल्ली आए थे. उस आंदोलन का प्रबंधन बहुत कुशल नहीं था, लेकिन कम से कम दस हजार किसान तो दिल्ली में थे ही. उसके बाद गांधी जयंती पर 2 अक्‍टूबर को भारतीय किसान यूनियन ने दिल्ली में प्रदर्शन किया. इस दौरान किसानों को दिल्ली के बॉर्डर पर ही रोक लिया गया. यहां किसानों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई.

अब करीब दो महीने बाद एक बार फिर किसान दिल्ली की सड़कों पर हैं. इस बार उनकी संख्या एक लाख से ज्यादा है. इस मार्च की चर्चा करने से पहले यह याद कर लें कि अक्टूबर 2016 में ऐसे ही किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक किसान ने पेड़ से लटककर आत्महत्या कर ली थी. 2017 में तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली में लंबे समय तक प्रदर्शन किया था.

ये प्रदर्शन तो सिर्फ वे हैं जो दिल्ली में आकर हुए. इसके अलावा मुंबई में किसान बड़े प्रदर्शन कर चुके हैं. पंजाब में किसानों का प्रदर्शन चल रहा है. मध्य प्रदेश में मई 2016 में किसानों पर गोली चल ही चुकी है.

तो सवाल यह है कि वे किसान आज लाल झंडा लेकर दिल्ली में कैसे घूम रहे हैं, जिन किसानों को लाल झंडे के पितामह कार्ल मार्क्स ने क्रांति के अनुकूल नहीं समझा था.

'माफ कीजिएगा! हमारे इस मार्च से आपको परेशानी हुई...हम किसान हैं, हमारी जान सस्‍ती है...'

भारतीय किसान की हमेशा से एक खास विशेषता रही है कि वह तब तक अपना गांव नहीं छोड़ता, जब तक कि उनके खेत में करने को थोड़ा बहुत भी काम होता है. जब खेती से उसका परिवार चलना नामुमकिन हो जाता है, तो वह मजदूर बनने के लिए शहर का रुख करता है.

किसानों के लिए सरकारी दावे
तो किसान दिल्ली क्यों आ रहे हैं? केंद्र सरकार तो घोषणा कर चुकी है कि किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिया जा रहा है. फसलों का एमएसपी बढ़ाया जा चुका है. सरकार यह भी घोषणा कर चुकी है कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर दी जाएगी. राज्य सरकारों के फसल खरीद के आंकड़े भी दिखाते हैं कि धान और गेहूं की सरकारी खरीद पहले से ज्यादा हो गई है. इस साल कुछ इलाकों को छोड़ दें तो मानसून कुल मिलाकर ठीक ही रहा है.

तो जब सब कुछ अच्छा बताया जा रहा है तो किसान के सामने वह कौन सा संकट है जो वह अपना घर-बार छोड़कर दिल्ली की कोलतार की सड़कों पर नंगे पांव चल रहा है. वह उस विरोध का झंडा उठा रहा है, जो उसके स्वभाव से मेल नहीं खाता.

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छोटी जोत बड़ी मुश्किल
तो इसके लिए जरा खेती की असली हालत देखिए. सबसे पहली चीज है किसानों की माली हालत. देश के 80 फीसदी से ज्यादा किसान सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं. यानी ऐसे किसान जिनकी खेती की जोत ढाई एकड़ से कम है. जिस व्यक्ति को खेती के अर्थशास्त्र का मामूली अंदाजा भी होगा वह बता सकता है कि सबसे अच्छी फसल होने पर भी इतने से खेत से परिवार का पेट नहीं पाला जा सकता. अगर आप और गहराई से इस गणित को समझना चाहते हैं तो अपनी कॉलोनी या दफ्तर में काम कर रहे गार्ड से पूछिए. वह आपको बताएंगे कि खेती का क्या हाल है और वे क्यों यहां गार्ड के तौर पर खड़े हैं?

बिचौलियों की मौज
खेती के इस कमजोर अर्थशास्त्र को ही किसानों ने उस पर्चे के जरिये व्यक्त किया है कि कैसे उन्हें आलू, टमाटर और दूसरी सब्जियों एवं फलों का बहुत कम मोल मिलता है जबकि अंतिम ग्राहक उसका दस गुना तक मोल चुका रहा है. यह मंहगाई का ऐसा गणित है जिसमें लोग महंगा सामान खरीद रहे हैं और उगाने वाला उसे बहुत सस्ते दाम पर बेचने को मजबूर है. बिचौलियों के एक बड़े गैंग ने किसानों का बेड़ा गर्क कर दिया है.

सरकार भले ही किसानों की आमदनी डेढ़ गुनी कर देने का दावा करे, लेकिन वह जिस फॉर्मूले से यह काम कर रही है, उस फॉर्मूला को बहुत व्यावहारिक नहीं माना जाता. अगर किसान के खेत की कीमत को हटा भी दें और सिर्फ खाद, पानी, बीज और अकुशल श्रमिक की मजदूरी को लागू करें तो इस समय एक किलो गेहूं की कीमत कम से कम 40 रुपये होनी चाहिए, जबकि एमएसपी के हिसाब से भी किसान को 17-18 रुपये किलो गेहूं मिल रहा है. इसी गेहूं का आटा शहरों में 35 से 50 रुपये किलो मिल रहा है. किसान को गेहूं उगाने में लागत और मेहनत और चार महीने लगाने के बाद 17 रुपये मिल रहे हैं, जबकि आटा मिल मालिक को चंद मिनट में गेहूं पीसकर आटा बनाने के 40 रुपये मिल जा रहे हैं, यानी उसे कम से कम 20 रुपये का फायदा है.

किसान की चार महीने की मेहनत की कीमत 17 रुपये है और आटा मिल मालिक की चंद मिनट चक्की चलाने का मुनाफा 20 रुपये. यही गणित दलहन और तिलहन पर लागू है. यही गणित आलू के किसान और पोटेटो चिप्स की कंपनी में जाकर और विकृत हो जाता है. दरसअल यह पूरा नीतिगत अर्थतंत्र ही किसान के खिलाफ खड़ा हो गया है. इसलिए किसान अपने हक के लिए खड़ा होने को मजबूर है.

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कर्ज का कुचक्र
इस अर्थतंत्र का ही एक और विस्तार है: किसान को दिया जाने वाला कर्ज. देश का हर किसान किसी न किसी रूप में कर्ज में है. किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे देश के प्रतिष्ठित ग्रामीण पत्रकार पी साईनाथ ने इस कुचक्र की पूरी परतें खोली हैं. वह बताते हैं कि कैसे किसानों के नाम पर धन्ना सेठों को कर्ज दिया जा रहा है. वह पूरे तथ्यों के साथ बताते हैं कि महाराष्ट्र का कोऑपरेटिव क्षेत्र किस तरह कुछ नेताओं और अंतत: एक औद्योगिक घराने के हित साधने में लगा है. यही लोग हैं जो किसान के नाम पर बड़ा कर्ज हड़प जा रहे हैं. वहीं, किसान अपनी ताकतभर कर्ज चुका रहा है और जब नहीं चुका पाता तो आत्महत्या कर लेता है. लेकिन आत्महत्या करने से भी कर्ज खत्म नहीं हो जाता, उसकी संतान के सिर मढ़ दिया जाता है.

हालत में कोई सुधार नहीं
पूरी मेहनत से खेती करने, गांव छोड़कर शहरों में मजदूरी करने, बढ़े हुए कर्ज के वजन से दबकर आत्महत्या करने के बाद भी जब किसान की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है तो सड़क पर उतरने के अलावा और क्या करें. हालांकि सड़क पर उतरने के बाद भी उसकी समस्या कितनी सुनी जाएगी, यह कहना मुश्किल है. यह लेख लिखे जाने तक सरकार की ओर से किसान आंदोलन को लेकर कोई बयान सामने नहीं आया है. देश के एक लाख किसान दिल्ली की सड़कों पर हैं और देश की राजनीति चुनाव में व्यस्त है. मीडिया का एक बड़ा वर्ग हनुमान जी का जाति प्रमाणपत्र बनाने में व्यस्त है. और रबी की फसल की बुआई के समय किसान सड़कों पर है. यह वाकई बहुत ही कठिन और असंवेदनशील समय है. और अगर यह असंवेदनशीलता बढ़ती रही तो देर-सवेर किसानों के रह-रहकर उठ रहे आंदोलन उग्रता की ओर जा सकते हैं.

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