मध्यप्रदेश में उपचुनाव के नतीजे राजनीतिक पंडितों के गणित और अन्य पूर्वानुमानों से आगे जाते दिख रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा की 28 में से अस्सी फीसद (लिखे जाने तक 20-21) सीटें मिल रही हैं और कांग्रेस इकाई अंक में ही सिमट गई है. यह उसका सबसे खराब प्रदर्शन है.
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शिवकुमार विवेक/भोपाल: मध्यप्रदेश में उपचुनाव के नतीजे राजनीतिक पंडितों के गणित और अन्य पूर्वानुमानों से आगे जाते दिख रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा की 28 में से अस्सी फीसद (लिखे जाने तक 20-21) सीटें मिल रही हैं और कांग्रेस इकाई अंक में ही सिमट गई है. यह उसका सबसे खराब प्रदर्शन है. उसकी झोली में ज्यादातर सीटें ग्वालियर-चंबल ने डालीं. इस लिहाज़ से ज्योतिरादित्य सिंधिया को झटका तो लगा है लेकिन कांग्रेस उनके क़द को ज्यादा नहीं छांट सकी. उससे ज्यादा तो कमलनाथ का क़द सिमट गया. बहुजन समाज पार्टी एक सीट पर दोनों दलों के प्रति असंतोष का फ़ायदा उठा रही है.
इस उपचुनाव के परिणामों को पहली बार पार्टी और शीर्ष नेताओं के आधार पर अलग-अलग पैमानों पर मापा जाएगा. यदि पार्टी के तौर पर आंकें तो भारतीय जनता पार्टी को काफी फ़ायदा मिल रहा है क्योंकि इन 28 में से उसके पास सिर्फ सिर्फ एक सीट थी. इस आधार पर उसे बड़ा फ़ायदा हो रहा है और कांग्रेस को इतना ही नुकसान. नेता के आधार पर देखें तो भाजपा के ज्योतिरादित्य सिंधिया को घाटा हुआ है, लेकिन उतना नहीं, जितना कांग्रेस सहित कुछ राजनीतिक प्रेक्षक भांप रहे थे. यह माना जा रहा था कि सिंधिया सबसे बड़े दांव पर लगे है. कांग्रेस ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में महल का राजनीतिक वर्चस्व तोड़ना चाहती थी. उसके बिना उसे यहां पैर जमाने में दिक़्क़त आती है. इसलिए उसका जोर भाजपा को नहीं, ज्योतिरादित्य को जमीन पर लाने पर ही था. जिसमें वह कामयाब नहीं हो सकी. सिंधिया समर्थित सभी पूर्व विधायक मालवा, बुंदेलखंड और भोपाल क्षेत्र में भी जीत रहे हैं. उनके साथ भाजपा में शामिल होने वाले अन्य तत्कालीन विधायक भी भारी पड़े हैं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे जिनके बारे में कहा जा रहा था कि उनकी प्रतिष्ठा खराब है. पैसे लेकर दलबदल करने का आरोप खूब उछाला गया लेकिन उनके साथ आए विधायकों में से मंत्री बनाए गए दस नेता चुनाव जीत रहे हैं. इसलिए कहा जा सकता है कि यह आरोप ज्यादा कारगर नहीं हुआ अथवा भाजपा संगठन ने अपनी रणनीतिक कुशलता से इसके प्रभाव को कम कर दिया. भाजपा ने सांगठनिक स्तर पर प्रभावी रणनीति के साथ चुनाव लड़ा. उसके सभी बड़े नेता चुनाव प्रचार में उतरे.
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ग्वालियर-चंबल की 16 सीटों पर भाजपा को गहरे भितरघात का सामना भी करना पड़ा है, अन्यथा उसकी एक-दो सीटें बढ़ सकती थीं, लेकिन उसने मालवा-निमाड़, महाकौशल, बुंदेलखंड में दलबदलू उम्मीदवारों और भितरघात के बावजूद अपनी पकड़ कायम रखी है. मालवा से 7 सीटें आती है जिनमें से 6 पर भाजपा की बढ़त बनी हुई है. भोपाल क्षेत्र की एक सीट उसके खाते में जा रही है. महाकौशल और बुंदेलखंड ने सभी 3 सीटें उसकी झोली में डाल दी हैं.
यह पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की व्यक्तिगत हार है क्योंकि चुनाव की कमान पूरी तरह उनके हाथ में थी और वही एकमात्र स्टार प्रचारक थे. दिग्विजय सिंह आखिरी दो दिन आए. राहुल-प्रियंका इससे दूर रहे. कमलनाथ की रणनीतिक विफलता के उदाहरण प्रचार के दौरान सामने आते रहे. एक महिला मंत्री के लिए ‘आइटम’ शब्द का प्रयोग बूमरैंग साबित हुआ. वे मंत्री काफी मतों से जीत गई जबकि प्रारंभ में उनका काफी विरोध था. कमलनाथ ने पूरा फोकस ग्वालियर-चंबल पर रखा. वे शिवराज सिंह से ज्यादा ज्योतिरादित्य से लड़ रहे थे. मध्यप्रदेश में बाहर से आए कमलनाथ को दिग्विजय सिंह पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी खुद्दकपाठ छवि मतदाता में चमक नहीं पाई. लिहाजा कमलनाथ के नेतृत्व पर अब सवाल उठना शुरू होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. कई प्रतिष्ठित अखबारों में संपादक रहे.)
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