शेर को रिझाने वाले वाद्ययंत्र को बचाने के लिए इस शिक्षक ने की गजब पहल!
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शेर को रिझाने वाले वाद्ययंत्र को बचाने के लिए इस शिक्षक ने की गजब पहल!

जो वाद्ययंत्र और उन्हें बजाने की कला अब खत्म होने की तरफ बढ़ रही थी, उनके सुर अब फिर से सुनाई देने लगे हैं और युवा पीढ़ी भी उन्हें सीखने में रुचि ले रही है. 

(इमेज सोर्स- पीपल्स आर्काइव रूरल इंडिया)

ओपी तिवारी/सूरजपुरः हमारा देश कला से परिपूर्ण रहा है, खासकर हमारा संगीत हमारी पहचान रहा है लेकिन वक्त के साथ अब पारंपरिक संगीत और वाद्ययंत्र विलुप्त होने के कागार पर पहुंच गए हैं. छत्तीसगढ़ का सूरजपुर जिला भी अपनी सांस्कृति धरोहर और परंपराओं के लिए जाना जाता है. यहां ऐसे वाद्ययंत्रों का चलन रहा है, जिन्हें भगवान की वंदना के साथ ही जानवरों को रिझाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था. अब एक स्कूल टीचर ने इन पारंपरिक वाद्ययंत्रों को बचाने की पहल की है. 

बता दें कि सूरजपुर जिले के प्रतापपुर के एक शिक्षक अजय चतुर्वेदी जिले की विलुप्ति के कागार पर पहुंचे वाद्ययंत्रों को बचाने की मुहिम में जुटे हैं. शिक्षक अजय चतुर्वेदी ने पारंपरिक वाद्ययंत्रों को बचाने के लिए कुछ साल पहले जिले के विभिन्न गांवों में संपर्क किया और फिर गांव-गांव में कबाड़ की सूरत में मिले वाद्ययंत्रों को साफ-सफाई और मरम्मत कराकर वापस गांव के लोगों को सौंप दिया. 

इसका असर ये हुआ है कि जो वाद्ययंत्र और उन्हें बजाने की कला अब खत्म होने की तरफ बढ़ रही थी, उनके सुर अब फिर से सुनाई देने लगे हैं और युवा पीढ़ी भी उन्हें सीखने में रुचि ले रही है. खास बात ये है कि इन वाद्ययंत्रों में कुछ ऐसे वाद्ययंत्र भी हैं, जो अपने सुरों से खतरनाक जंगली जानवर शेर को भी रिझाने की ताकत रखते हैं. सूरजपुर जिले के आदिवासी परिवारों के पास 70 से ज्यादा पारंपरिक वाद्ययंत्र हैं. 

अजय चतुर्वेदी के अनुसार इन पारंपरिक वाद्ययंत्रों का इतिहास 100-200 साल पुराना हो सकता है. ऐसे ही कुछ पारंपरिक वाद्ययंत्रों के बारे में आइए जानते हैं-

भरथरी बाजा- इस प्राचीन वाद्य यंत्र का प्रयोग आमतौर पर लोग भिक्षा मांगने के लिए किया करते थे.

डम्फा- चंदन की लकड़ी से बना ये एक प्राचीन वाद्य यंत्र है. जिसमें बंदर की छाल लगाई जाती थी.

ढोंक- पेट और हाथ के सहारे बजाए जाने वाला लगभग विलुप्त होने की कगार में पहुंच चुका है यह वाद्य यंत्र जानवरों को भगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था.

महुअर- बांसुरी की तरह दिखने वाला प्राचीन वाद्य यंत्र जिसके ऊपर की तरफ फूंक कर नहीं बल्कि उसके बीचों बीच बने छिद्र में हवा फूंक कर बजाया जाता है.

झुनका या शिकारी बाजा- लोहे की रिंग में लोह के कई छल्ले लगाकर बनाया जाता था. जिसका उपयोग शिकार में किसी जंगली जानवर को रिझाने के लिए किया जाता था.

मृदंग- छत्तीसगढ़ समेत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में शराबबंदी के लिए क्रांति लाने वाली पद्मश्री राजमोहनी देवी द्वारा बजाए जाने वाला वाद्य यंत्र.

किंदरा बाजा- किंदरा का अर्थ होता है. घूम घूम कर मतलब किंदरा बाजा का उपयोग पुराने समय मे भिक्षा मांगने के लिए किया जाता था. साथ ही देवी भजन गाते समय इसे बजाया जाता था.

रौनी- सबसे दुर्लभ प्राचीन और अब विलुप्त हो चुके इस वाद्य यंत्र में मृत गोह की छाल लगाई जाती थी. साथ ही इसमें तार के रूप में मृत मवेशियों के नसों का इस्तेमाल किया जाता था.

मांदर- ये वाद्य यंत्र आज भी प्रचलन में हैं. इसका इस्तेमाल आदिवासियों के परंपरागत नृत्य शैला औऱ करमा के दौरान किया जाता है. साथ ही आदिवासी इलाके में किसी शुभ काम में इसको बजाए जाने का प्रचलन है.

शिक्षक अजय चतुर्वेदी की इस पहल को अब सूरजपुर के कलेक्टर गौरव कुमार सिंह का भी साथ मिला है. कलेक्टर गौरव कुमार सिंह ने फिलहाल उपलब्ध सभी वाद्य यंत्रों को धरोहर के रूप में कला केंद्र में रखने का फैसला किया है. इसके पीछे उनकी मंशा यह है कि कैसे विलुप्त होते वाद्य यंत्रों को संरक्षित किया जा सके और कला केंद्र में ऐसे वाद्य यंत्रों को रखने से जहां एक तरफ आज के बच्चे और युवा हमारी संस्कृति के प्रति बारे में जान सकेंगे, वहीं दूसरी तरफ अन्य ग्रामीणों को भी इसकी जानकारी होगी. 

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