बैतूल जिले के रज्जढ़ समुदाय के लोग अपने आप को पांडवों के वंशज मानते हैं.हर साल ये लोग अगहन मास में परंपरा के चलते जश्न भी मनाते हैं, दुःख भी जताते है और कांटो पर लोटते हैं.
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इरशाद हिंदुस्तानी/बैतूल: मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में एक समुदाय परंपरा के चलते कुछ ऐसा करता है, जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे. जिले के रज्जढ़ समुदाय के लोग अपने आप को पांडवों के वंशज मानते हैं.ये लोग हर साल अगहन मास में परंपरा के चलते जश्न भी मनाते हैं, दुःख भी जताते है और कांटो पर लोटते हैं. समुदाय के नए युवा भी अपने बुजुर्गों की इस परंपरा को निभाते हुए फक्र महसूस करते हैं.
उन्की मानें तो कांटे होते तो बहुत नुकीले हैं, लेकिन उन्हें इनके कटीले होने का अहसास नहीं होता और न ही इन पर लौटने से तकलीफ होती है.
शाम के वक्त गांव में इकट्ठे होकर ये लोग बेरी की कंटीली झाड़ियां एकत्रित करते हैं, फिर उन्हें एक मंदिर के सामने सिर पर लाद कर लाया जाता है. यहां झाड़ियों को बिस्तर की तरह बिछाया जाता है और फिर उस पर हल्दी के घोल का पानी सींच दिया जाता है.
खुद को पांडव समझने वाले रज्जढ़ नंगे बदन एक-एक कर कांटों में लोटने लगते हैं. किसी नर्म बिस्तर की तरह ये लोग कांटों में गोल घूम जाते हैं. यही वजह है की इस परंपरा को देखने वाले भी हैरान हो जाते हैं.
क्यों करते हैं ऐसा
वे मानते हैं पांडवों के वनगमन के दौरान बियाबान जंगल में पांडव प्यास से तड़प रहे थे. प्यास के कारण उनके गले में कांटे चुभने लगे. लेकिन उन्हें एक कतरा पानी भी नसीब नहीं हुआ.पानी की तलाश में भटकते पांडवों की मुलाकात एक नाहल (एक समुदाय जो जंगलो में भिलवा इकठ्ठा कर उसका तेल निकालता है) से हुई. पांडवों ने नाहल से पानी की मांगा, तो नाहल ने पानी के बदले पांडवों की मुंह बोली बहन का हाथ मांग लिया. रज्जढ़ों की मानें तो पानी के लिए पांडवों ने अपनी बहन का ब्याह नाहल के साथ कर दिया. जिसके बाद उन्हें पानी मिल सका.
माना जाता है की अगहन मास में पूरे पांच दिन रज्जढ़ समुदाय इसी तरह काटों पर लोटता है. वे खुद को पांडवों का वंसज मानकर खुश होते हैं, तो इस गम में दुखी भी होते हैं की उन्हें अपनी बहन को नाहल के साथ विदा करना पड़ेगा.पुरानी परंपराओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पंहुचा रहे रज्जढ़ों की ये रस्म बैतूल के दर्जनों गांवो में देखने को मिलती है.
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