जब लोकतंत्र सिर्फ जनता के मूड पर आधारित हो जाता है और बड़े बड़े फैसले इसी आधार पर लिए जाने लगते हैं तो फिर सख्त सुधारों की गुंजाइश नहीं बचती.
कई बार लोकतंत्र के नाम पर देश में बड़े बड़े फैसले जनता के मूड को आधार बनाकर ले लिए जाते हैं. इसलिए आज ये समझने का दिन है देश में कोई भी फैसला जनता के मूड के आधार पर लिया जाएगा या फिर मेरिट के आधार पर लिया जाएगा?
जनता बार बार अपना मूड कैसे बदलती है इसका एक उदाहरण आपको भारत की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए. वर्ष 1977 में जनता इंदिरा गांधी से नाराज़ थी और जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया था. लेकिन फिर सिर्फ तीन साल बाद ही जनता का मूड बदल गया और वो एक बार फिर से सत्ता में आ गईं.
इसी तरह 1987 में बोफोर्स घोटाला सामने आया था. इसके बाद 1989 में सरकार गिर गई. लेकिन इसके बाद क्या हुआ? इसके बाद भी कांग्रेस कई बार सत्ता में आई और गांधी नेहरू परिवार कई दशकों तक सत्ता का सुख उठाता रहा. जनता ने अपने बदले हुए मूड के साथ कांग्रेस को एक बार फिर स्वीकार कर लिया.
भारत में आज सरकार शायद अपनी बात किसानों को ठीक से समझा नहीं पा रही है और किसानों के बीच भी ऐसे नेताओं की कमी साफ़ दिखाई देती है जो बातचीत की टेबल पर किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच सकें जो सबके लिए मान्य हो. रही बात राजनैतिक पार्टियों की तो कुल मिलाकर सभी राजनैतिक पार्टियां सिर्फ़ इलेक्शन मशीन बनकर रह गई हैं.
पार्टियां ज़्यादा से ज़्यादा चुनाव लड़ना चाहती हैं और ज़्यादा से ज़्यादा चुनाव जीतना चाहती हैं. हमारे देश में किसी नेता की सफलता भी सिर्फ़ इस बात से आंकी जाती है कि उसने कितने चुनाव जीते हैं.
चुनाव जीतना ही सिर्फ लोकतंत्र नहीं है, बल्कि लोगों द्वारा समझदारी से वोट डालना असली लोकतंत्र है. वोट डालना सिर्फ एक जन्म सिद्ध अधिकार नहीं हो सकता बल्कि लोगों को ये अधिकार हासिल करना सिखाना चाहिए.
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