पूरी कहानी समझने के लिए आपको काकोरी कांड समझना होगा. 1922 में जब गांधीजी ने चौरी चौरा की घटना के बाद अचानक से असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो देश भर के क्रांतिकारियों को धक्का लगा था और ऐसे में उन क्रांतिकारियों ने तय किया कि क्रांति हथियारों के बल पर होगी और जान देकर भी देश को आजाद कराएंगे, बिस्मिल और सचिन सान्याल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम का संगठन खड़ा किया, जिससे बाद में चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) और भगत सिंह (Bhagat Singh) भी जुड़े गए थे. तय किया गया कि पहले संगठन के खर्च और हथियारों के लिए सरकारी खजाने पर डकैती डाली जाएगी.
सबसे पहले काकोरी ट्रेन डकैती की योजना बनाई गई. इसमें बिस्मिल और अशफाक के अलावा आजाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, केशव चक्रवर्ती, मुरारी गुप्त, रोशन सिंह, बनवारी लाल, राजकुमार सिन्हा आदि कई क्रांतिकारी शामिल थे. इन्ही क्रांतिकारियों में था एक नाबालिग लड़का भी, नाम था मन्मथ नाथ गुप्त (Manmath Nath Gupta). सभी की मानना था था कि केवल पैसों की डकैती हो ताकि ब्रिटिश सरकार उसको ज्यादा सीरियस ना ले. क्योंकि अगर खून बहता तो गंभीर रूप लेने का खतरा था. बाघा जतिन बंगाल में ऐसी 37 डकैतियां डाल चुके थे, तय था कि किसी पर हमला नहीं करना, कोई गोली जब तक जान पर ना आ पड़े, नहीं चलानी. 9 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर से लखनऊ आ रही 8 डाउन ट्रेन को काकोरी कस्बे के पास रोककर गार्ड के डब्बे में रखे पैसों के थैलों को अपने कब्जे में लेकर सभी भाग चले कि अचानक एक गोली चल गई और हंगामा मच गया. इस डकैती में कुछ 8,000 रुपये की रकम हाथ लगी थी.
यही थी वह गलती, जिसके चलते इन 3 क्रांतिकारियों को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया था. ट्रेन में अब तक किसी को कुछ पता नहीं था, कि डकैती डाली जा रही है. लेकिन गोली की आवाज से सबको पता चल गया. कई लोगों को पहचान लिया गया. ये गोली युवा क्रांतिकारी मन्मथ नाथ गुप्त के पिस्टल से अचानक चल गई और अहमद अली नाम का एक पैसेंजर मारा गया था. सब लोग पहले से तय ठिकानों की तरफ कूच कर गए. लेकिन मामला अब बड़ा हो गया, पहचान भी हो गई.
एक एक करके सचिन सान्याल, रामप्रसाद बिस्मल, रोशन सिंह, अशफाक उल्लाह खान सबको पकड़ लिया गया, शायद चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर सभी को गिरफ्तार कर लिया गया. आजाद आजाद ही रहे. राजेन्द्र लाहिड़ी को बंगाल के दक्षिणेश्वर बम कांड के आरोप में फांसी दे दी गई तो बिस्मिल, रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खान को काकोरी केस में 19 दिसंबर 1927 के दिन फांसी दे दी गई.
लेकिन मन्मथ नाथ गुप्त जिसकी पिस्टल से गोली चली थी, उसको फांसी नहीं मिली. कम उम्र के चलते उसको केवल 14 साल की कैद हुई. मन्मथ नाथ गुप्त इतने डर गए थे कि पुलिस या जज तो दूर, उन्होंने अपने साथियों को भी नहीं बताया कि गोली उनकी पिस्टल से चली थी. 1937 में उनको छोड़ा गया लेकिन ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखने के चलते फिर 9 साल के लिए जेल भेज दिया गया. आजाद भारत में मन्मथ नाथ गुप्त ने सूचना प्रसारण मंत्रालय ज्वॉइन कर लिया और योजना, बाल भारती जैसी मैगजींस का सम्पादन भी किया. जब डीडी ने 19 दिसम्बर को बिस्मिल की फांसी के 70 साल बाद 1997 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई तो मन्मथ नाथ गुप्त ने अपनी गलती स्वीकार की.
इस घटना के सही 70 साल बाद यानी उसी तारीख 19 दिसम्बर 1997 को दूरदर्शन ने उस क्रांतिकारी का काकोरी केस की याद में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ डॉक्यूमेंट्री के लिए एक इंटरव्यू किया तो उस क्रांतिकारी ने इस पूरी घटना में गलती की जिम्मेदारी अपने सर पर ली और माना कि अगर मुझसे वो गोली नहीं चली होती तो ना रामप्रसाद बिस्मिल पकड़े जाते और ना अशफाक उल्लाह और वो देश शायद पहले ही आजाद हो गया होता.
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