आज का दिन यानी 25 सितंबर इतिहास के पन्नों में काफी अहमियत रखता है. आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Deen Dayal Upadhyaya) की जयंती है.
विपक्ष ने पीएम मोदी के जन्मदिन पर बड़ा कैम्पेन चलाया था कि कैसे उस दिन को राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस के तौर पर मनाया जाए, अब उनका नया एजेंडा है कि 25 सितंबर को भारत बंद रखा जाए. मोदी से परेशानी की वजह समझ आती है, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय से अब क्या परेशानी? दरअसल, विपक्ष ने जानबूझकर 25 सितंबर की तारीख ही भारत बंद के लिए रखी है और उसकी वजह है दीन दयाल उपाध्याय की जयंती, बीजेपी इस दिन देश भर में तमाम कार्यक्रम आयोजित करती है. ऐसे में आम जन खास तौर पर नई पीढ़ी के मन में ये दिलचस्पी स्वभाविक है कि दीनदयाल उपाध्याय से कैसी नाराजगी? आज इस लेख में वो जानेंगे कि कैसे दीनदयाल उपाध्याय ने संघ परिवार के लिए वो युग प्रवर्तक काम किया था, जिसका खामियाजा बीजेपी की सारी विरोधी पार्टियां आज तक भुगत रही हैं, वो काम जिसे करने के संघ अरसे से खिलाफ था, जिसे करने में संघ नेता 25-26 साल तक हिचकिचाते रहे. अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अधिकारियों का एक ही सवाल से पाला पड़ता है और तमाम मीडिया रिपोर्ट्स में भी ये लिखा जाता रहा है कि क्या बीजेपी संघ की राजनीतिक विंग है? तो वो अक्सर जवाब देते आए हैं कि अगर कुछ मुद्दों पर हमारी सहमति किसी भी पार्टी से बनती है तो हम उनका स्वागत करते हैं. वो ये भी कहते हैं कि अगर कांग्रेस हमारे राम मंदिर मुहिम में साथ देगी तो उनका भी स्वागत है. लेकिन जैसे जैसे मीडिया के लोग संघ और बीजेपी के बीच की कड़ी यानी संघ के प्रचारकों का बीजेपी में संगठन मंत्री के तौर पर नियुक्ति, को समझने लगे हैं, उनके सवाल थोड़े टू द प्वॉइंट होने लगे हैं.
अगस्त 2019 में जब संघ प्रमुख मोहन भागवत से यही ‘टू द प्वॉइंट’ सवाल ही पूछा गया. सवाल था कि जब संघ राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेता तो बीजेपी में संगठन मंत्री संघ के प्रचारक क्यों बनते हैं? हालांकि मोहन भागवत ने इसका जवाब हल्के फुल्के मूड में दिया कि कोई और राजनीतिक दल हमसे संगठन मंत्री मांगता ही नहीं है, कोई और मांगेगा और संगठन अच्छा होगा तो जरूर विचार करेंगे. लेकिन ये सच नहीं है कि संघ ने केवल बीजेपी को ही अपने प्रचारक दिए हैं, किसी और पार्टी को भी दिए हैं और संघ में ऐसा पहले प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय थे. बीजेपी से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने प्रचारक जनसंघ को दिए थे. हालांकि जनसंघ जनता पार्टी में शामिल हो गया था, बाद में जब जनता पार्टी सरकार गिर गई तो 1980 में उन्हीं जनसंघी कार्यकर्ताओं ने नई पार्टी भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी. दरअसल, आजादी के बाद भी संघ का राजनीतिक पार्टी बनाने का कोई इरादा नहीं था. लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा छोड़ दी और संघ पर गांधी हत्या के आरोप में प्रतिबंध लगा, कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न हुआ, तो मुखर्जी ने संघ की मदद लेकर नई पार्टी जनसंघ शुरू की, तब संघ प्रमुख गोलवलकर ने दीनदयाल उपाध्याय को संघ से मुखर्जी की मदद के लिए भेजा, जिन्हें जनसंघ का महासचिव बनाया गया.
संघ के अंदर भी ये महसूस किया जाने लगा था कि बिना राजनीतिक सहयोग के उनके कार्यकर्ताओं को पर कोई भी हाथ डाल सकता है और राजनीति में उतरना भी नहीं था, तो ये जरुरी लगा कि कोई ना कोई पार्टी तो ऐसी हो जहां उनके अपने स्वंयसेवक हों, प्रचारक हों, जो संघ के खिलाफ दुष्प्रचार या माहौल बनाने से सत्ता पक्ष को रोकें. मुखर्जी के अगुवाई में जनसंघ ऐसी पहली पार्टी थी. लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी जब दो विधान, दो प्रधान, दो निशान का विरोध करने कश्मीर गए, तो शेख अब्दुल्ला की नजरबंदी में उनकी मौत हो गई. अब सारी जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के ही सिर आ गई. उन्होंने धीरे धीरे अटल बिहारी बाजेपेयी को भी खड़ा किया, लोकसभा चुनाव लड़ाया, हार गए तो दोबारा तीन सीटों से लड़ाया. लेकिन खुद संगठनकर्ता ही रहे. खुद कभी चुनाव के मैदान में नहीं उतरे. मुखर्जी के बाद दूसरे कद्दावर नेता होने के बावजूद उन्होंने मुखर्जी की मौत के 14-15 साल तक जनसंघ के अध्यक्ष का पद भी नहीं लिया. वो दूसरों को अध्यक्ष बनवाते रहे.
मौलीचंद शर्मा, प्रेमनाथ डोगरा, आचार्य डीपी घोष, पीताम्बर दास, रामाराव, रघुवीरा, बछराज व्यास और बलराज मधोक तक को अध्यक्ष बनाया. तब जाकर दवाब में उन्होंने 1967 में जनसंघ के अध्यक्ष का पद स्वीकार किया, कालीकट के अधिवेशन में. 1951 में तीन सीटें मिली थीं जनसंघ को 1967 में ये 35 लोकसभा सीटों तक पहुंच गया था. तो आप समझ सकते हैं कि अटल बिहारी जैसे नेता को खड़ा करने, बीजेपी की नींव जनसंघ के तौर पर रखने, संघ को राजनीति के क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से मदद करने में दीनदयाल उपाध्याय ने एक ऐसे पिलर के तौर पर काम किया, जिनके बिना ये मुमकिन नहीं था. इसी लिए विपक्ष उनकी जयंती को ही निशाना बना रहा है. लेकिन 43 दिन ही हुए थे उन्हें जनसंघ का अध्यक्ष बने हुए और 10 फरवरी 1968 के दिन वो स्यालदाह एक्सप्रेस में लखनऊ स्टेशन से शाम को पटना के लिए निकले और रात को 2 बजकर 10 मिनट पर ट्रेन मुगलसराय पहुंची. उसमें कार्यकर्ताओं को दीनदयाल नहीं मिले, बाद में उनकी लाश वहीं पटरियों पर पड़ी पाई गई. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तरह जनसंघ ने अपना दूसरा बड़ा चेहरा रहस्मयी तरीके से खो दिया था. 2018 में मुगल सराय स्टेशन का नाम दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर रख दिया गया.
वो पहले संघ प्रचारक जिन्हें राजनीतिक पार्टी में भेजा गया, लेकिन वो राजनीति की दलदल से दूर रहकर सादगी से जीते रहे और अपने बाद के नेताओं के लिए आदर्श बन गए कि सत्ता की दलदल में रहते हुए भी वो कमल की तरह खिले रहे और कभी भी सत्ता का फायदा नहीं लिया, ना ही कभी किसी पद की लालसा रखी. हमेशा लाइन में खड़े आखिरी व्यक्ति की बात करते रहे, विश्व को अंत्योदय का संदेश देते रहे. बाद में उनके शिष्य अटल बिहारी बाजपेयी देश के प्रधानमंत्री के पद तक जा पहुंचे.
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