राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, एक कवि जिनकी कविताएं आज भी जोश भर देती हैं...
1949 में जब नेहरू बिना चुनाव के देश के अंतरिम प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहे थे, संविधान तैयार हो रहा था. उन्होंने एक कविता लिखी ‘जनता और जवाहर’, इस कविता में जनता के दुखों के वर्णन करते हुए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू से क्या उम्मीदें हैं वो कविता के आखिर में लिखी थीं वो पढ़िए-
सब देख रहे हैं राह,
सुधा कब धार बांधकर छूटेगी, नरवीर !
तुम्हारी मुट्ठी से किस रोज रौशनी फूटेगी?
है खड़ा तुम्हारा देश, जहां भी चाहो, वहीं इशारों पर !
जनता के ज्योतिर्नयन ! बढ़ाओ कदम चांद पर, तारों पर.
है कौन जहर का वह प्रवाह जो-तुम चाहो औ' रुके नहीं
है कौन दर्पशाली ऐसा तुम हुक्म करो, वह झुके नहीं?
न्योछावर इच्छाएं, उमंग, आशा, अरमान जवाहर पर,
सौ-सौ जानों से कोटि-कोटि जन हैं कुर्बानजवाहर पर.
जां है हिंदुस्तान, एशिया को अभिमान जवाहर पर,
करुणा की छाया किये रहें पल-पल भगवान जवाहर पर.
लेकिन 1962 के युद्ध में चीन से हार को लेकर उनके अंदर इतना आक्रोश उमड़ा कि वो मानो पागल ही हो गए. कई खंडों में लिखा ‘परशुराम की प्रतीक्षा’. इसी ग्रंथ में वीर सैनिकों, शहीदों की शान में लिखी ‘लोहे के मर्द’, उसके खंड 2 में दिनकर ने जो लिखा वो सीधे-सीधे नेहरू पर निशाना था, आप भी पढ़िए-
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है.
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है, यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है.
इतना ही नहीं नेहरू के चीनी लोगों के साथ कबूतर उड़ाने पर भी उन्होंने तंज कस डाला था, पढ़िए-
जब शान्तिवादियों ने कपोत छोड़े थे,
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे?
पर, हाय, धर्म यह भी धोखा है,
छल है, उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है.
पंजों में इनके धार धरी होती है,
कइयों में तो बारूद भरी होती है.
दिलचस्प बात है जिस दिन संविधान लागू हुआ था, उस दिन उन्होंने अपनी वो प्रसिद्ध कविता लिखी, जो आज भी गुनगुनाई जाती है- सिंहासन खाली करो... दरअसल, ये कविता गणतंत्र के नायक नेहरू के लिए, जनता का कानून लागू होने के लिए लिखा गया गया था ‘जनतंत्र का जन्म’. कुछ लाइनें पढ़िए-
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
ये कविता अंग्रेजों के सिंहासन खाली करने की तरफ इशारा था, लेकिन जब जयप्रकाश जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा लगाया तो अपनी मशहूर रैली में इसी कविता का उदगार किया. सबसे दिलचस्प बात ये थी कि कवि नेहरू का राज शुरू होने के प्रतीक के तौर पर लिखी गई ये कविता उनकी बेटी इंदिरा गांधी को सिंहासन खाली करने की मांग के लिए इस्तेमाल की जा रही थी. जो भी लेकिन जिस तरह से चीन को लेकर सीमा पर तनाव है, उनके काव्य ग्रंथ ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ को पढ़ने का सही समय है.
ट्रेन्डिंग फोटोज़