पदमश्री काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) यानी प्रभुदयाल गर्ग ब्रज भाषा के रत्न हैं, 18 सितम्बर को उनकी दोनों एनिवर्सरी होती हैं, तो आइए पढ़ते है उनकी पांच प्रमुख कविताएं...
नेता, अधिकारी, पुलिस, पत्नी और सामाजिक आचरण काका के मुख्य निशाने पर होते थे. इस कविता ‘सवाल पर बवाल’ में काका ने एक नेताजी पर निशाना साधा है
रिंग रोड पर मिल गए नेता जी बलवीर ।
कुत्ता उनके साथ था पकड़ रखी जंजीर ॥
पकड़ रखी जंजीर अल्शेशियन था वह कुत्ता ।
नेता से दो गुना भौंकने का था बुत्ता ॥
हमने पूछा, कहो, आज कैसे हो गुमसुम ।
इस गधे को लेकर कहाँ जा रहे हो तुम ॥
नेता बोले क्रोध से करके टेढ़ी नाक ।
कुत्ता है या गधा है, फूट गईं हैं आँख ॥
फूट गईं हैं आँख, नशा करके आए हो ।
बिना बात सुबह-सुबह लड़ने आए हो ॥
हमने कहा कि कौन आपसे जूझ रहे हैं ।
यह सवाल तो हम कुत्ते से पूछ रहे हैं ॥
साहित्य और भाषा को भी वो अपने व्यंग्य की मिसाइलों की जंग में लाने से नहीं चूकते थे. उनका एक ही उद्देश्य था, गरीबी और व्यवस्था की मारी जनता के चेहरे पर अपनी हास्य फुलझड़ियों के जरिए थोड़ी देर की मुस्कान लाना, ये कविता शब्दों के लिंग को लेकर हास्य है कि कैसे मर्द और स्त्री आपस में इन शब्दों के लिंग के जरिए आपस में जुड़े हुए हैं, सरकार और संसद में भरमार मर्दों की होती है, लेकिन ये दोनों ही शब्द स्त्रीलिंग हैं-
काका से कहने लगे ठाकुर ठर्रा सिंग,
‘दाढ़ी’ स्त्रीलिंग है, ‘ब्लाउज़’ है पुल्लिंग।
ब्लाउज़ है पुल्लिंग, भयंकर ग़लती की है, मर्दों के सिर पर ‘टोपी’ ‘पगड़ी’ रख दी है।
कह काका कवि पुरूष वर्ग की क़िस्मत खोटी, मिसरानी का ‘जूड़ा’, मिसरा जी की ‘चोटी’।
दुल्हन का ‘सिन्दूर’ से शोभित हुआ ललाट, दूल्हा जी के ‘तिलक’ को ‘रोली’ हुई अलॉट।
रोली हुई अलॉट, टॉप्स, लॉकेट, दस्ताने, छल्ला, बिछुआ, हार, नाम सब हैं मर्दाने।
पढ़ी लिखी या अपढ़ देवियां पहने बाला, स्त्रीलिंग ‘ज़ंजीर’ गले लटकाते लाला।
लाली जी के सामने लाला पकड़ें कान, उनका ‘घर’ पुल्लिंग है, स्त्रीलिंग है ‘दुकान’।
स्त्रीलिंग दुकान, नाम सब किसने छांटे, काजल, पाउडर, हैं पुल्लिंग ‘नाक’ के कांटे।
कह काका कवि धन्य विधाता भेद न जाना, ‘मूंछ’ मर्दों को मिली, किन्तु है नाम जनाना।
ऐसी-ऐसी सैंकड़ों अपने पास मिसाल, काकी जी का ‘मायका’, काका की ‘ससुराल’।
काका की ससुराल, बचाओ कृष्णमुरारी, उनका ‘बेलन’ देख कांपती ‘छड़ी’ हमारी।
कैसे जीत सकेंगे उनसे करके झगड़ा, अपनी ‘चिमटी’ से उनका ‘चिमटा’ है तगड़ा।
मन्त्री, सन्तरी, विधायक सभी शब्द पुल्लिंग, तो भारत ‘सरकार’ फिर क्यों है स्त्रीलिंग?
क्यों है स्त्रीलिंग, समझ में बात ना आती, नब्बे प्रतिशत मर्द, किन्तु ‘संसद’ कहलाती।
काका बस में चढ़े हो गए नर से नारी, कण्डक्टर ने कहा आ गई एक ‘सवारी’।
इस कविता के जरिए किस तरह से 70-80 के दशक की एक देसी बारात का चित्रण काका हाथरसी ने किया है, वो मजेदार है और उससे भी बड़ी बात, उन्होंने हास्य रस के जरिए दहेज जैसी सामाजिक बुराई पर भी व्यंग्य वाण साधे हैं
जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी कह 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके कर लड़ुअन की याद, जीभ स्यांपन सी लपके
मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का कह 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई
नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ मुर्गा बनि बैठे हमहुं, मिली न कोऊ सीट मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता कह 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी
फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी कहँ 'काका', समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया
जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़ स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़ कह 'काका' कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ
बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर कहँ 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे
बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे कहँ 'काका' कविराय, जान आफत में आई जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई
समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी कहँ 'काका' कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को
मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ
हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई कहँ 'काका' कविराय, अरे वो बेटावारे अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे.
इस हास्य कविता के जरिए काका हाथरसी ने पूरी व्यवस्था पर ही अपने अंदाज में चोट की है, ना केवल सरकार और नेताओं पर बल्कि आम आदमी की सोच पर भी-
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा हम भेड़-बकरी इसके यह गड़ेरिया हमारा
सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.
यूं तो ‘मधुशाला’ के जरिए हरिवंश राय बच्चन ने शराब से जुड़ी कविताओं पर अपना झंडा गाढ़ दिया है, फिर भी काका हाथरसी ने उन्हीं का जिक्र करते हुए एक कविता इस सुरापान पर भी लिख डाली, खालिस ब्रजवासी अंदाज में-
भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर' कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला'
भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया पीकर के रावण सीता जी को हर लाया कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा
ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले
पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा 'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा' कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ
प्रेम-वासना रोग में, सुरा रहे अनुकूल सैंडिल-चप्पल-जूतियां, लगतीं जैसे फूल लगतीं जैसे फूल, धूल झड़ जाये सिर की बुद्धि शुद्ध हो जाये, खुले अक्कल की खिड़की प्रजातंत्र में बिता रहे क्यों जीवन फ़ीका बनो 'पियक्कड़चंद', स्वाद लो आज़ादी का
एक बार मद्रास में देखा जोश-ख़रोश बीस पियक्कड़ मर गये, तीस हुये बेहोश तीस हुये बेहोश, दवा दी जाने कैसी वे भी सब मर गये, दवाई हो तो ऐसी चीफ़ सिविल सर्जन ने केस कर दिया डिसमिस पोस्ट मार्टम हुआ, पेट में निकली 'वार्निश'.
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