प्रणब मुखर्जी: ऐसे राष्ट्रपति जो दो बार प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए
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प्रणब मुखर्जी: ऐसे राष्ट्रपति जो दो बार प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए

भारतीय राजनीति की नब्ज पर गहरी पकड़ रखने वाले प्रणब मुखर्जी को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाएगा. जो देश के प्रधानमंत्री हो सकते थे.

फाइल फोटो

नई दिल्ली: भारतीय राजनीति की नब्ज पर गहरी पकड़ रखने वाले प्रणब मुखर्जी को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाएगा. जो देश के प्रधानमंत्री हो सकते थे. लेकिन अंतत: उनका राजनीतिक सफर राष्ट्रपति भवन तक पहुंच कर संपन्न हुआ. 

  1. 'गुदड़ी के लाल' से चूका प्रधानमंत्री का पद
  2. चलते फिरते ‘इनसाइक्लोपीडिया’ थे मुखर्जी
  3. सोनिया गांधी के इनकार पर जताई थी खुद के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद
  4.  

'गुदड़ी के लाल' से चूका प्रधानमंत्री का पद
'गुदड़ी के लाल' धरती पुत्र प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक जीवन में एक समय ऐसा भी आया था. जब कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ते हुए वह इस शीर्ष पद के बहुत करीब पहुंच चुके थे. लेकिन उनकी किस्मत में देश के प्रथम नागरिक के तौर पर उनका नाम लिखा जाना लिखा था.

चलते फिरते ‘इनसाइक्लोपीडिया’ थे मुखर्जी
मुखर्जी चलते फिरते ‘इनसाइक्लोपीडिया’ थे. हर कोई उनकी याददाश्त क्षमता, तीक्ष्ण बुद्धि और मुद्दों की गहरी समझ का मुरीद था. वर्ष 1982 में 47 साल की उम्र में वे भारत के सबसे युवा वित्त मंत्री बने. आगे चलकर उन्होंने विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त व वाणिज्य मंत्री के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं. वे भारत के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जो इतने पदों को सुशोभित करते हुए इस शीर्ष संवैधानिक पद पर पहुंचे.

कांग्रेस के तीन प्रधानमंत्रियों के साथ किया काम
उन्होंने इंदिरा गांधी, पी वी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह जैसे प्रधान मंत्रियों के साथ काम किया. यही वजह थी कि दशक दर दशक वे कांग्रेस के सबसे विश्वसनीय चेहरे के रूप में उभरते चले गए. मुखर्जी भारत के एकमात्र ऐसे नेता रहे,  देश के प्रधानमंत्री पद पर न रहते हुए भी आठ वर्षों तक लोकसभा के नेता रहे. वे 1980 से 1985 के बीच राज्यसभा में भी कांग्रेस पार्टी के नेता रहे. 

वर्ष 1969 में बांग्ला कांग्रेस से शुरु किया राजनीतिक सफर
उन्होंने अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत 1969 में बांग्ला कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा सदस्य बनने से की. इसके बाद बांग्ला कांग्रेस का कांग्रेस में विलय हो गया.  प्रणब मुखर्जी जब 2012 में देश के राष्ट्रपति बने तो उस समय वे केंद्र सरकार में मंत्री के तौर पर कुल 39 मंत्री समूहों में से 24 का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उन्होंने वर्ष 2004 से 2012 के दौरान 95 मंत्री समूहों की अध्यक्षता की.

 

सभी राजनीतिक दलों से था भरोसे का रिश्ता
राजनीतिक हलकों में मुखर्जी की पहचान आम सहमति बनाने की क्षमता रखने वाले नेता की थी. उन्होंने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ विश्वास का रिश्ता कायम किया, जो राष्ट्रपति पद के चयन के समय भी उनके काम आया. उनका राजनीतिक सफर राष्ट्रपति भवन पहुंचकर संपन्न हुआ. लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना उन्हें नसीब नहीं हुआ. हालांकि उन्होंने खुलकर इस बारे में अपनी इच्छा व्यक्त की थी. 

सोनिया गांधी के इनकार पर जताई थी खुद के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद
अपनी किताब 'द् कोअलिशन ईयर्स' में मुखर्जी ने माना कि मई 2004 में जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था. तब उन्होंने उम्मीद की थी कि वह पद उन्हें मिलेगा. उन्होंने लिखा कि', 'अंतत: उन्होंने (सोनिया) अपनी पसंद के रूप में डॉक्टर मनमोहन सिंह का नाम आगे किया और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया. उस वक्त सभी को यही उम्मीद थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं ही प्रधानमंत्री के रूप में अगली पसंद बनूंगा.'

शुरू में मनमोहन सिंह के तहत मंत्री बनने से कर दिया था इनकार
मुखर्जी ने यह स्वीकार किया था कि शुरुआती दौर में उन्होंने अपने अधीन काम कर चुके मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया था. लेकिन सोनिया गांधी के अनुरोध पर बाद में वे सहमत हो गए थे. वर्ष 2004 में गठित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल से लेकर 25 जुलाई 2012 को राष्ट्रपति बनने तक वे सरकार के संकटमोचक बने रहे. राष्ट्रपति बनने से पहले वे 23 सालों तक कांग्रेस की सर्वोच्च नीति-निर्धारण इकाई कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) के सदस्य रहे. इंदिरा गांधी के निधन के बाद 1985 में वरिष्ठतम मंत्री होने के नाते उनके सामने पीएम बनने का मौका आया था. लेकिन तब भी उन्हें दरकिनार कर नए नवेले राजीव गांधी को पीएम बना दिया गया था.

स्वतंत्रता सेना की संतान थे प्रणब मुखर्जी
पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के मिराती गांव में 11 दिसम्बर 1935 को जन्मे मुखर्जी को जीवन की सीख अपने स्वतंत्रता सेनानी माता-पिता से मिली थी. उनके पिता कांग्रेस नेता थे. जिन्होंने बेहद आर्थिक संकटों का सामना किया. स्वाधीनता आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए वे कई बार जेल भी गए. 

सत्ता के गलियारों में रहने के बावजूद मुखर्जी कभी अपनी जड़ों को नहीं भूले. यही वजह थी कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी दुर्गा पूजा के समय वे अपने गांव जरूर जाया करते थे. मंत्री और राष्ट्रपति रहते पारंपरिक धोती पहने पूजा करते उनकी तस्वीरें अक्सर लोगों का ध्यान आकर्षित करती थीं.

वर्ष 2015 में पत्नी शुभ्रा मुखर्जी का निधन
वर्ष 2015 में उनकी पत्नी शुभ्रा मुखर्जी उनका साथ छोड़ गईं. प्रणव दा के परिवार में दो पुत्र और एक पुत्री हैं. मुखर्जी के राष्ट्रपति रहते उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के दौरान अक्सर उनके साथ दिखा करती थीं. उनके पुत्र अभिजीत मुखर्जी भी सांसद बने. हालांकि पिछले चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. पांच बार राज्यसभा और दो बार लोकसभा के सदस्य रहे मुखर्जी बतौर सांसद सबसे लंबी अवधि तक देश की सेवा करने वालों में शुमार थे. 

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अमेरिका से रिश्तों को नया आयाम दिया
वर्ष 2004 में हेनरी किसिंजर से हुई उनकी मुलाकात ने भारत और अमेरिका के बीच सामरिक समझौतों को एक नया आयाम दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और बाद में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकारों के लिए बाहरी समर्थन जुटाने में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई. कांग्रेस ने भी इन सरकारों का समर्थन किया था.  वर्ष 1987 से 1988 के बीच राजीव गांधी से मतभेदों की वजह से वे पार्टी को अलविदा कह गए और अपना खुद का दल बना लिया. हालांकि बाद में राजीव गांधी के मनाने पर वे कांग्रेस में वापस आ गए. 

RSS कार्यालय जाने पर हुआ था विवाद
राष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा करने के एक साल बाद 2018 में मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर गए और वहां समापन भाषण दिया. इसे लेकर खासा विवाद हुआ था. बाद में मोदी सरकार ने वर्ष 2019 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘भारत रत्न’’ से सम्मानित किया था. उन्होंने बतौर राष्ट्रपति दया याचिकाओं पर सख्त रुख अपनाया था. उनके सामने आई 34 दया याचिकाओं में से 30 को उन्होंने खारिज कर दिया था.

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