प्रेस दिवस: आजादी से पहले और बाद की पत्रकारिता कैसी थी?
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प्रेस दिवस: आजादी से पहले और बाद की पत्रकारिता कैसी थी?

आजादी के बाद प्रेस के मायने बदल गए. कुछ पत्रकारों के लिए प्रेस पुरस्कार पाने की एक सीढ़ी बन गई और कुछ के लिए पैसा छापने की मशीन. अखबारों और पत्रिकाओं में वो खबरें छापी जाने लगीं, जो सत्ता में बैठे नेताओं को सूट करती थीं.

प्रेस दिवस: आजादी से पहले और बाद की पत्रकारिता कैसी थी?

नई दिल्ली: आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है. यानी प्रेस को सलाम करने का दिन. वर्ष 1966 में आज ही के दिन The Press Council of India यानी भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना की गई थी. राष्ट्रीय प्रेस दिवस भारत में स्वतंत्र, निष्पक्ष और जिम्मेदार प्रेस का भी प्रतीक है.

  1. क्या कहता है पत्रकारिता का सिद्धांत?
  2. आजादी के बाद बदले प्रेस के मायने
  3. मीडिया ने भ्रमित करने का किया काम
  4.  

देश में मीडिया की दुकानें खुलीं

पत्रकारिता के सिद्धांत कहते हैं कि सच सुनो, सच देखो और फिर निडर होकर सही खबर दुनिया के सामने रखो. लेकिन क्या आप अपने देश के मीडिया से खुश हैं? क्या आपको लगता है कि हमारे देश के पत्रकार सही दिशा में, देश के हित के लिए और समाज के हित के लिए काम कर रहे हैं? या आपको लगता है कि अब हमारे देश में मीडिया की बहुत सारी दुकानें खुल चुकी हैं, जिनमें देश को तोड़ने के ठेके लिए जाते हैं.

आज हम हमारे देश की प्रेस को एक आइना दिखाएंगे और आपको बताएंगे कि आजादी के बाद इन 75 वर्षों में हमारे देश के बड़े-बड़े दरबारी पत्रकारों ने आपको कहां-कहां गुमराह किया और कैसे उसके बदले में बड़े-बड़े पुरस्कार हासिल किए.

दो हिस्सों में बंटा पत्रकारिता का इतिहास

आज हमने पत्रकारिता के इतिहास को दो भागों में बांटा है. एक आजादी से पहले की पत्रकारिता और दूसरा आजादी के बाद की पत्रकारिता. भारत सरकार के मुताबिक अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन में लगभग 1 लाख 70 हजार क्रान्तिकारियों ने हिस्सा लिया था. आपको जानकर हैरानी होगी कि इनमें से ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी पत्रकार ना होते हुए भी अखबारों और पत्रिकाओं में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ क्रान्तिकारी लेख लिखते थे. यानी आजादी से पहले हमारे देश में प्रेस ने बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई. उस समय पत्रकारिता के दो ही मकसद हुआ करते थे, पहला आजादी के प्रति लोगों को जागरुक और एकजुट करना और दूसरा अंग्रेजी सरकार की नीतियों का विरोध करके उस पर दबाव बनाना.

बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, राजा राम मोहन रॉय, डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर, सुभाष चंद्र बोस, मदन मोहन मालवीय, दादाभाई नारोजी और शहीद भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजी सरकार का विरोध करने के लिए पत्रकारिता को एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल किया.

महात्मा गांधी और डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर तो पेशे से वकील थे. लेकिन उन्होंने पत्रकारिता की ताकत को समझा और कई अखबारों में बतौर संपादक काम किया. अकेले अम्बेडकर ने चार अखबारों की नींव रखी, जिनमें मूकनायक नाम के अखबार में अंग्रेजों की नीतियों का जबरदस्त विरोध होता था. 

महात्मा गांधी ने लिखे कई लेख

महात्मा गांधी जब यंग इंडिया और नवजीवन जैसी पत्रिकाओं में लेख लिखते थे तो अंग्रेजी सरकार में बड़े-बड़े अधिकारी कई हफ्तों तक उनके लेखों का अध्ययन करते थे और स्वतंत्रता सेनानियों के बीच फूट डालने की रणनीतियां बनाते थे. महात्मा गांधी ने हरिजन, हरिजन बंधु और हरिजन सेवक नाम की तीन पत्रिकाओं की भी शुरुआत की थी और वो इसमें बतौर संपादक लेख भी लिखते थे.

बाल गंगाधर तिलक की कलम को खामोश कराने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा की जेल में 6 साल तक कैद रखा और उन्हें कठोर सजा दी. लेकिन इस सजा के बावजूद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लिखना बन्द नहीं किया. एक लाइन मे कहें तो आजादी से पहले हमारे देश के पत्रकार सिर्फ पत्रकार नहीं थे बल्कि क्रान्तिकारी भी थे, जिन्होंने देश को आजादी दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई.

आजादी के बाद बदले प्रेस के मायने

लेकिन आजादी के बाद प्रेस के मायने बदल गए. कुछ पत्रकारों के लिए प्रेस पुरस्कार पाने की एक सीढ़ी बन गई और कुछ के लिए पैसा छापने की मशीन. अखबारों और पत्रिकाओं में वो खबरें छापी जाने लगीं, जो सत्ता में बैठे नेताओं को सूट करती थीं और आजादी से पहले इस देश में अखबार क्रान्तिकारी चलाया करते थे लेकिन आजादी के बाद उद्योगपति अखबारों को चलाने लगे. आज भी ज्यादातर अखबार और न्यूज चैनल उद्योगपतियों के ही हैं. इसके अलावा इतिहास में इच्छाओं के अनुरूप ऐसी मिलावट की गई, जिसे आज तक सही नहीं किया जा सका है. हम आपको ऐसी दो बड़ी भ्रांतियों के बारे में बताते हैं, जो हमारे देश के मीडिया ने आजादी के बाद लोगों के बीच पैदा की.

आजादी के बाद मीडिया ने मुगल शासकों को साम्प्रदायिक और अत्याचारी नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष और महान शासक के तौर पर स्थापित कर दिया. मुगल शासक अकबर को Akbar The Great कह कर संबोधित किया गया. लेकिन पृथ्वीराज चौहान, छत्रपति शिवाजी महाराज और महाराजा रणजीत सिंह को कभी ग्रेट नहीं बताया गया. इसके विपरित मुगल शासक हुमायूं, जहांगीर, औरगंजेब और बाबर का महिमामंडन किया गया.

मुगल शासकों के नाम पर सड़कों के नाम

ये भी विडम्बना ही है कि जिस औरंगजेब के आदेश पर दिल्ली में गुरुद्वारा सीस गंज साहिब में सिखों के नौवें गुरु गुरु तेग बहादुर की गला काट कर हत्या की गई थी, वहां से लगभग 10 किलोमीटर दूर कुछ साल पहले तक औरंगजेब रोड हुआ करती थी. जिसका नाम वर्ष 2015 में बदल कर डॉक्टर ए.पी.जे अब्दुल कलाम रोड कर दिया गया था. आजादी के बाद इसी देश में कई राज्यों की सड़कों और जगहों के नाम इन्हीं मुगल शासकों के नाम पर रखे गए और हमारे देश के उस समय के पत्रकारों ने इसका विरोध करना भी जरूरी नहीं समझा. आज भी हमारे देश में मुगल शासकों के नाम पर 700 से ज्यादा सड़कों और जगहों के नाम हैं.

जिस प्रेस ने आज़ादी से पहले अंग्रेज़ों को झुकने पर मजबूर किया था, उसी प्रेस ने आजादी के बाद अंग्रेजों के आगे झुकना शुरू कर दिया. 1950 से 1990 के बीच हमारे देश के पत्रकारों ने ऐसी कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें अंग्रेजों की कार्यशैली को शानदार बताया गया. 1956 में भारत के एक मशहूर पत्रकार ने ये कहा था कि अंग्रेज नहीं होते तो इस देश के लोग भूखे और पिछड़े हुए ही रह जाते. आजादी के बाद भारत के मीडिया ने अंग्रेजों के क्रूर चेहरे को भी पॉलिश करने का काम किया.

मुगल शासकों की तरह अंग्रेजी सरकार के बड़े अधिकारियों और Viceroy के नाम पर भी स्थानों और सड़कों के नाम रखे गए. जैसे दिल्ली में एक बहुत मशहूर जगह Connaught Place है. आप भी वहां गए होंगे. इस जगह का नाम ब्रिटेन की Queen Victoria और Prince Albert के पुत्र Prince Arthur को समर्पित किया गया है, जो वहां Connaught नाम की जगह के शासक थे. वर्ष 2013 में इस जगह का नाम तो बदल दिया गया लेकिन इसका मकसद वही रहा.

Connaught Place को राजीव गांधी के नाम पर राजीव चौक और Connaught Circus को इंदिरा गांधी के नाम पर इंदिरा चौक कर दिया गया. हमारे देश के मीडिया ने इसका भी कभी विरोध नहीं किया.

देश में पुरस्कार गैंग हुआ तैयार

इसके अलावा आजादी के बाद हमारे देश के प्रेस का एक बड़ा हिस्सा पुरस्कार गैंग बन गया और फिर आगे जाकर इसी में से टुकड़े-टुकड़े गैंग निकला और फिर गुलाम मानसिकता वाले ऐसे पत्रकारों ने जन्म लिया, जो नेताओं की गोद में बैठे रहना चाहते थे. ये असली गोदी मीडिया था, जिसकी पहली झलक नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए देश ने देखी. वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद हमारे देश के मीडिया ने कभी उनसे कड़वे सवाल नहीं पूछे. उस समय देश के पत्रकारों ने इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया कि चीन ने इस युद्ध में लद्दाख की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प ली है.

ये इत्तेफाक ही है कि जिस Press Council of India की आज ही के दिन वर्ष 1966 में स्थापना हुई थी, उसने 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से लगाई गई इमरजेंसी का बिल्कुल भी विरोध नहीं किया था. ये सब भी तब हुआ, जब इमरजेंसी के दौरान 3801 अखबारों को जब्त किया गया, 327 पत्रकारों को जेल में बंद कर दिया गया और 290 अखबारों में सरकारी विज्ञापन बंद करा दिए गए.

नेताओं के साथ हुआ गठजोड़

उस दौर में संपादकों के एक समूह ने सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे. दिल्ली के 47 संपादकों ने 9 जुलाई 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा उठाए गए सभी कदमों के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की थी. ऐसे संपादकों के बारे में ही बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि- जब इन पत्रकारों को झुकने के लिए कहा गया था, तो वो रेंगने लगे थे. यानी ये वही दौर था, जब पत्रकारों और नेताओं की जोड़ियां बन गई थीं और वो एक साथ काम करते थे.

इन पत्रकारों को बाद में पद्म पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया और ये परम्परा कई वर्षों तक जारी रही. उदाहरण के लिए वर्ष 2009 के लोक सभा चुनाव से पहले वर्ष 2008 में UPA की सरकार ने सबसे ज्यादा पत्रकारों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया. ये वो पत्रकार थे, जिन्होंने बाद में जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों का एनकाउंटर करने के लिए सेना पर सवाल उठाए. बालाकोट एयर स्ट्राइक के सबूत मांगे. 

इसी साल 26 जनवरी को लाल किले पर हुई हिंसा के दौरान एक किसान की हत्या की फेक न्यूज फैला कर माहौल बिगाड़ने की कोशिश की. और Urban Naxals का भी समर्थन किया. जब 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ और इनकी दुकानें बन्द हो गईं तो इन पत्रकारों ने चुनावी प्रक्रिया भी पर सवाल उठाए और 2019 में भी जब प्रधानमंत्री मोदी प्रचंड बहुमत के साथ जीते तो इन्होंने चुनावी प्रक्रिया को फर्जी बता दिया. बहुमत से चुनी हुई सरकार को अलोकतांत्रिक कहना शुरू कर दिया. कुल मिला कर आजादी के बाद हमारे देश का प्रेस, एक ऐसा प्रेस बटन बन गया, जिसे नेता अपनी इच्छाओं के अनुरूप इस्तेमाल करने लगे. पत्रकारों ने शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं और एक परिवार की गोदी में बैठ कर पत्रकारिता करनी शुरू कर दी.

लोगों को भ्रमित करने का काम

आजादी के बाद कुछ मुद्दों पर हमारे देश के मीडिया ने लोगों को गुमराह करने का काम किया. जैसे अयोध्या में बाबरी मस्जिद और राम मन्दिर का मुद्दा था. 1990 और 2000 के दशक में हमारे देश के मीडिया ने बिना किसी सबूत और ठोस आधार के बाबरी मस्जिद को भी उतना ही महत्व देना शुरू कर दिया, जितना कि राम मन्दिर को दिया जाना था. कुछ पत्रकारों ने हिन्दू धर्म की आस्था से जुड़े इस विषय को ये कह कर भी भ्रमित किया कि मन्दिर ज्यादा जरूरी है या अस्पताल. सोचिए, क्या ये कथन सऊदी अरब के मक्का के संदर्भ में कहा जा सकता है, जहां पैगम्बर मोहम्मद साहब का जन्म हुआ था. लेकिन अयोध्या में राम जन्मभूमि को लेकर ये बातें कई दशकों तक कहीं गईं.

ये सब भी उस देश में हुआ, जहां सुरेंद्र नाथ बैनर्जी जैसे पत्रकारों ने ऐसे मामलों में सच्ची पत्रकारिता की मिसाल पेश की थी. वो भारत के पहले पत्रकार थे, जिन्हें अंग्रेजी सरकार के विरोध में लिखने के लिए जेल भेज दिया गया था. वर्ष 1883 में एक बार एक हिंदू देवता की मूर्ति को लेकर दो पक्षों के बीच विवाद हो गया था और ये मामला कोर्ट में चला गया था. जो जज इस मामले की सुनवाई कर रहे थे, उन्होंने कोर्ट से कहा कि अगली सुनवाई में इस मूर्ति को भी अदालत में रखा जाए. बाद में जब इस मूर्ति को इस जज ने देखा तो उन्होंने ये कहा कि ये मूर्ति तो 100 साल पुरानी भी नहीं लगती. इस बात से सुरेंद्र नाथ बैनर्जी इतने आहत हुए कि उन्होंने उस मूर्ति की वास्तविकता और सही इतिहास अखबारों में प्रकाशित करना शुरू कर दिया. जिससे अंग्रेजी सरकार के वफादार जज इतना डर गए कि उन्हें जेल की सजा सुना दी गई.

तीन तलाक के मुद्दे पर हंगामा

तीन तलाक के मुद्दे को भी हमारे देश का मीडिया भ्रमित करता रहा. भारत के मीडिया ने इस मुद्दे को महिलाओं के अधिकार के रूप में नहीं देखा. बल्कि इसे हमेशा एक धर्म से जोड़ कर देखा गया और मुस्लिम तुष्टिकरण के राजनीतिक विचार को हवा दी गई. कुछ पत्रकारों ने तो ऐसा जानबूझकर किया. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो 1986 के शाह बानो मामले में मीडिया तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से तीखे सवाल जरूर करता. राजीव गांधी ने उस समय सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए तीन तलाक की प्रथा को जारी रखा था.

हमारे देश के पत्रकारों ने कश्मीर में आतंकवादियों को विद्रोही और चरमपंथी कहना शुरू कर दिया. कश्मीर पर पाकिस्तान का साथ देना शुरू कर दिया. लोकतंत्र के नाम पर अपने ही देश की सेना पर सवाल उठाने शुरू कर दिए और धर्म और जाति के नाम पर लोगों को बांटने का भी बड़ा काम किया. जैसे किसी निचली जाति और अल्पसंख्यक के साथ कोई घटना हो जाए तो उसका नाम हेडलाइन में लिखा जाता है लेकिन अगर वही घटना किसी और के साथ हो तो उसका नाम, धर्म और जाति नहीं बताई जाती.

अधिकतर मौके पर प्रेस ने आपको कभी सही और सच्ची जानकारी नहीं दी और लोकतंत्र के नाम पर कई चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का काम किया. जैसे लोकतंत्र खतरे में है, अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है, संविधान खतरे में है, मुसलमान सुरक्षित नहीं है, भारत-पाकिस्तान की दोस्ती होनी चाहिए. ये वो लाइनें हैं, जिन्हें मीडिया ने इतना लिखा और इतना बोला कि लोगों ने इन पर यकीन कर लिया.

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