हिटलर (Adolf Hitler) की तरफ से इस पत्र का भी कोई जवाब नहीं आया, या तो उसके स्टाफ ने गांधीजी (Mahatma Gandhi) का पत्र उस तक पहुंचाया ही नहीं, या खुद हिटलर ने उसको महत्व नहीं दिया होगा. ये भी संभव है कि जिन अंग्रेजों के हाथ में भारत की डाक व्यवस्था थी, उसने पत्रों को आगे ना बढ़ने दिया गया हो.
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नई दिल्ली : सन 2011 में एक फिल्म आई, जो भारत से बाहर ‘डियर फ्रेंड हिटलर’ के नाम से बनी और कई अवॉर्ड्स समारोह में गई. भारत में इसे ‘गांधी टू हिटलर’ नाम से रिलीज किया गया था. जब फिल्म रिलीज हुई तो बहुत से लोगों को पता चला कि हिटलर और गांधीजी के बीच कुछ कनेक्शन था. क्योंकि नेता जी सुभाष चंद्र बोस और हॉकी खिलाड़ी ध्यान चंद की हिटलर से जुड़ीं कहानियां तो लोगों को पता थीं लेकिन गांधीजी ने हिटलर को कोई खत लिखे थे, ऐसी जानकारी केवल विद्वान जनों तक ही सीमित थी.
इस फिल्म में रघुवीर यादव ने हिटलर का रोल किया, उसकी प्रेमिका ईवा ब्राउन के रोल में थीं नेहा धुपिया और गांधीजी के रोल में थे अविजीत दत्त. कुल मिलाकर इस मूवी को केवल ध्यान खींचने का मामला माना गया था. फिल्म ने ध्यान तो खींचा लेकिन प्रशंसा नहीं पाई क्योंकि गांधीजी के हिटलर को पत्र एक तरफा थे. शायद मित्रों, सहयोगियों के सुझाव पर थे और हिटलर की तरफ से उनका कोई जवाब नहीं आया, इसलिए फिल्म भी तमाम नाटकीय प्रसंगों के नीरस ही लगी.
दिलचस्प कथानक
फिर भी युवा पीढ़ी को ये दिलचस्पी हो सकती है कि गांधीजी जैसा व्यक्तित्व भी था जो मुसोलिनी से मिलने उसके महल में पहुंच जाता है, चार्ली चैप्लिन उनसे खुद मिलने आते हैं. पोप किसी वजह से दरवाजे पर आए गांधी से मिलने से इनकार कर देते हैं, लेकिन इंग्लैंड के राजा अपने आयोजन में बिना ड्रेस कोड के पहुंचे इस मेहमान को सबसे ज्यादा महत्व देते हैं और ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल एक फकीर से मिलने में दिलचस्पी नहीं दिखाता. पोप हो या पीएम, किंग (British King) हो या मुसोलिनी (Benito Mussolini) अथवा चार्ली चैप्लिन, चाहे वो उनसे मिलें हों या फिर मिलने से इनकार किया हो, लेकिन ये किस्से बयान करते हैं कि गांधीजी को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं था.
हिटलर के नाम संबोधन
हिटलर ने बापू के पत्र को किस तरह लिया बहुत से लोग इस बारे में नहीं जानते, लेकिन क्या है उन खतों की कहानी आइए बताते हैं. दरअसल उस दौर में गांधीजी ने उसे दो दो पत्र लिखे थे, पहला 23 जुलाई 1939 को लिखा था और दूसरा पत्र 1940 में 24 दिसम्बर को लिखा था. उसकी वजह शायद ये थी कि हिटलर के हाथ में गांधीजी के ये पत्र पहुंचे ही नहीं. भारत में इस विषय पर बनी इस फिल्म का टाइटल ‘डियर फ्रेंड हिटलर’ भी इसीलिए रखा गया था क्योंकि गांधीजी ने एडोल्फ हिटलर को अपने पत्र इसी नाम यानी ‘डियर फ्रेंड’ से सम्बोधित किए थे, ये गांधीजी का शिष्टाचार था.
युद्ध न करने की अपील
गांधीजी ने पहली ही लाइन में साफ कर दिया कि उनके मित्रों के मानवता बचाने के अनुरोध पर ये पत्र उन्होंने लिखा है. उन्होंने हिटलर को लिखा की आज की तारीख में इस दुनियां में अगर कोई एक आदमी है जो जंग को रोक सकता है तो वो आप हो. इतना ही नहीं गांधीजी ने आखिरी लाइन में ये भी लिखा कि अगर मैंने लिखने में कोई गलती की है, तो भूल चूक माफ करना. जो आमतौर पर किसी भी भारतीय पत्र की आखिरी लाइन या परम्परा है. साफ है कि दूसरे विश्व युद्ध के कगार पर दुनियां खड़ी थी, और अहिंसा के पुजारी महात्मा किसी भी सूरत में युद्ध नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने हिटलर से युद्ध ना करने की अपील की था.
23 जुलाई 1939 को गांधीजी का हिटलर को लिखा पूरा पत्र ये है-
Dear friend,
Friends have been urging me to write to you for the sake of humanity. But I have resisted their request, because of the feeling that any letter from me would be an impertinence. Something tells me that I must not calculate and that I must make my appeal for whatever it may be worth.
It is quite clear that you are today the one person in the world who can prevent a war which may reduce humanity to the savage state. Must you pay the price for an object however worthy it may appear to you to be? Will you listen to the appeal of one who has seliberately [sic] shunned the method of war not without considerable success? Any way I anticipate your forgiveness, if I have erred in writing to you.
I remain,
Your sincere friend
M.K.Gandhi
ये भी काफी दिलचस्प है कि गांधीजी के इस पत्र के ठीक एक महीने बाद ही हिटलर ने सोवियत रूस के साथ नॉन-एग्रेसन पैक्ट साइन कर दिया, हालांकि इसके चलते जर्मनी को म्यूनिख एग्रीमेंट तोड़ना पड़ा, जर्मनी ने पोलेंड पर आक्रमण कर दिया और उसके बाद की घटनाओं ने शुरूआत कर दी दूसरे विश्व युद्ध की. जाहिर है या तो हिटलर को गांधीजी का वो पत्र मिला नहीं या फिर हिटलर ने उसे इतनी भी तबज्जो नहीं दी कि गांधीजी को उस पत्र का जवाब भी दे सके. गांधीजी ने फिर भी कोशिश जारी रखी, हालांकि वो पत्र लिखने के अलावा कर भी क्या सकते थे.
दूसरे पत्र में शांति की अपील
दूसरा पत्र गांधीजी ने हिटलर को 24 दिसम्बर 1940 को लिखा यानी पूरे एक साल पांच महीने के बाद, ये थोड़ा लम्बा पत्र था, जिसमें गांधीजी ने भारत में ब्रिटिश राज की संगठित हिंसा की निंदा की, लेकिन ये भी साफ कर दिया कि वो जर्मनी की मदद से अंग्रेजों से मुक्ति नहीं चाहते हैं. गांधीजी ने फिर से हिटलर से इस पत्र में शांति की अपील की, युद्ध रोकने की अपील की.
हिटलर को चेतावनी
साथ ही हिटलर को चेताया कि अगर ब्रिटिश नहीं तो कोई और ताकत तुम्हें हराएगी, ऐसे में जर्मनी की जनता के लिए आप क्या विरासत छोड़ जाओगे, जिस पर कि वो गर्व करें? गांधीजी ने अपील की कि मानवता के नाम पर इस जंग को यहीं रोक दो. इतना ही नहीं गांधीजी ने हिटलर को एक रास्ता भी सुझाया कि वो अपनी पसंद का कोई अंर्तराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल चुन ले जो मध्यस्थता कर सके.
अहिंसा परमो धर्म:
गांधीजी ने इस पत्र की शुरूआत में ही हिटलर की वीरता और उसके देश के लिए उसके लगाव की तारीफ की और यहां तक लिखा कि आपके विरोधियों ने आपको जो शैतान की तरह प्रस्तुत किया है, उस पर भी हम भरोसा नहीं करते. साथ ही गांधीजी ने साफ लिख दिया कि जो चैक रिपब्लिक, पोलेंड और डेनमार्क के साथ किया, वो अमानवीय है. गांधीजी ने साफ कर दिया कि हम ब्रिटेन के राज के खिलाफ तो हैं, लेकिन हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे बल्कि उनकी सोच को बदलकर रख देंगे.
ज्वाइंट लेटर का जिक्र
उन्होंने अपने अहिंसा, सत्याग्रह से चल रहे आंदोलन के बारे में भी लिखा कि वो उन्हीं के जरिए आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं और लड़ते रहेंगे. इतना ही नहीं उन्होंने आखिर में इस पत्र को संयुक्त लेटर बताया जो हिटलर के साथ साथ मुसोलिनी को भी सम्बोधित था.
लेकिन हिटलर (Adolf Hitler) की तरफ से इस पत्र का भी कोई जवाब नहीं आया, या तो उसके स्टाफ ने गांधीजी (Mahatma Gandhi) का पत्र उस तक पहुंचाया ही नहीं, या खुद हिटलर ने उसको महत्व नहीं दिया होगा. ये भी संभव है कि जिन अंग्रेजों के हाथ में भारत की डाक व्यवस्था थी, उसने पत्रों को आगे ना बढ़ने दिया गया हो. इस तरह गांधीजी की ये बड़ी कोशिश एकतरफा होने के चलते नाकाम हो गई हो.
आप गांधीजी का दूसरा पत्र जो 24 दिसम्बर 1940 को हिटलर को लिखा गया था, वो यहां पढ़ सकते हैं-
As at Wardha,
December 24, 1940
DEAR FRIEND,
That I address you as a friend is no formality. I own no foes. My business in life has been for the past 33 years to enlist the friendship of the whole of humanity by befriending mankind, irrespective of race, colour or creed.
I hope you will have the time and desire to know how a good portion of humanity who have view living under the influence of that doctrine of universal friendship view your action. We have no doubt about your bravery or devotion to your fatherland, nor do we believe that you are the monster described by your opponents. But your own writings and pronouncements and those of your friends and admirers leave no room for doubt that many of your acts are monstrous and unbecoming of human dignity, especially in the estimation of men like me who believe in universal friendliness. Such are your humiliation of Czechoslovakia, the rape of Poland and the swallowing of Denmark. I am aware that your view of life regards such spoliations as virtuous acts. But we have been taught from childhood to regard them as acts degrading humanity. Hence we cannot possibly wish success to your arms.
But ours is a unique position. We resist British Imperialism no less than Nazism. If there is a difference, it is in degree. One-fifth of the human race has been brought under the British heel by means that will not bear scrutiny. Our resistance to it does not mean harm to the British people. We seek to convert them, not to defeat them on the battle-field. Ours is an unarmed revolt against the British rule. But whether we convert them or not, we are determined to make their rule impossible by non-violent non-co-operation. It is a method in its nature indefensible. It is based on the knowledge that no spoliator can compass his end without a certain degree of co-operation, willing or compulsory, of the victim. Our rulers may have our land and bodies but not our souls. They can have the former only by complete destruction of every Indian—man, woman and child. That all may not rise to that degree of heroism and that a fair amount of frightfulness can bend the back of revolt is true but the argument would be beside the point. For, if a fair number of men and women be found in India who would be prepared without any ill will against the spoliators to lay down their lives rather than bend the knee to them, they would have shown the way to freedom from the tyranny of violence. I ask you to believe me when I say that you will find an unexpected number of such men and women in India. They have been having that training for the past 20 years.
We have been trying for the past half a century to throw off the British rule. The movement of independence has been never so strong as now. The most powerful political organization, I mean the Indian National Congress, is trying to achieve this end. We have attained a very fair measure of success through non-violent effort. We were groping for the right means to combat the most organized violence in the world which the British power represents. You have challenged it. It remains to be seen which is the better organized, the German or the British. We know what the British heel means for us and the non-European races of the world. But we would never wish to end the British rule with German aid. We have found in non-violence a force which, if organized, can without doubt match itself against a combination of all the most violent forces in the world. In non-violent technique, as I have said, there is no such thing as defeat. It is all ‘do or die’ without killing or hurting. It can be used practically without money and obviously without the aid of science of destruction which you have brought to such perfection. It is a marvel to me that you do not see that it is nobody’s monopoly. If not the British, some other power will certainly improve upon your method and beat you with your own weapon. You are leaving no legacy to your people of which they would feel proud. They cannot take pride in a recital of cruel deed, however skilfully planned. I, therefore, appeal to you in the name of humanity to stop the war. You will lose nothing by referring all the matters of dispute between you and Great Britain to an international tribunal of your joint choice. If you attain success in the war, it will not prove that you were in the right. It will only prove that your power of destruction was greater. Whereas an award by an impartial tribunal will show as far as it is humanly possible which party was in the right.
You know that not long ago I made an appeal to every Briton to accept my method of non-violent resistance. I did it because the British know me as a friend though a rebel. I am a stranger to you and your people. I have not the courage to make you the appeal I made to every Briton. Not that it would not apply to you with the same force as to the British. But my present proposal is much simple because much more practical and familiar.
During this season when the hearts of the peoples of Europe yearn for peace, we have suspended even our own peaceful struggle. Is it too much to ask you to make an effort for peace during a time which may mean nothing to you personally but which must mean much to the millions of Europeans whose dumb cry for peace I hear, for my ears are attended to hearing the dumb millions? I had intended to address a joint appeal to you and Signor Mussolini, whom I had the privilege of meeting when I was in Rome during my visit to England as a delegate to the Round Table Conference. I hope that he will take this as addressed to him also with the necessary changes.
Your sincere friend,
M. K. GANDHI
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