UP Lok Sabha Chunav 2024: जिस तरह से भाजपा ने मिशन 2024 की तैयारी की थी और 22 जनवरी को राम मंदिर का उद्घाटन हुआ, भगवा दल को उम्मीद थी कि दो महीने बाद उसके पक्ष में धुआंधार वोट पड़ेंगे. हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ. भाजपा की न सिर्फ लोकसभा में सीटें घटी हैं बल्कि वह अयोध्या यानी फैजाबाद सीट भी हार गई. यह भाजपा के लिए हार से कहीं ज्यादा बड़ी शर्मिंदगी है. सपा ने यहां अपनी साइकिल दौड़ा दी. अयोध्या क्यों हारे, इसकी तो कई वजह गिनाई जा रही है लेकिन यूपी में ऐसी कई महत्वपूर्ण सीटें भाजपा के हाथ से फिसल चुकी हैं. अब वक्त भाजपा के लिए आत्ममंथन और चिंतन का है. 


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जिस हिंदू वोटबैंक के सहारे भाजपा के नेता खुलकर अल्पसंख्यकों की बातें कर रहे थे, उसको भी शायद ये सब अच्छा नहीं लगा. लोकसभा चुनाव प्रचार में जब सरकार को अपने 10 साल का रिपोर्ट कार्ड देना था, भाजपा के नेता मुस्लिम, मटन, चिकन, मछली और मंगलसूत्र की बातें करते रहे. एक और बड़ी बात. योजनाओं के लाभार्थियों को अपना वोटबैंक समझना भी थोड़ा ज्यादा हो गया. बड़बोलेपन में नेता भूल गए कि जनता ही मालिक है. जनता को सुविधाएं देना सरकार का फर्ज होता है, यहां कोई एहसान की बात नहीं होती है. 


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वैसे भी कांग्रेस के शासन से नाराज होकर जिस तरह जनता ने 2014 और 2019 में प्रचंड बहुमत दिया था, उसी तरह 2024 के नतीजे जनता की नाराजगी को सामने ला रहे हैं. अब भाजपा में बैठकों का दौर शुरू हो चुका है. खबर मिल रही है कि राज्यों के कुछ अध्यक्ष, नेता, यहां तक कि सीएम-डिप्टी सीएम के भी इस्तीफे हो सकते हैं. फडणवीस ने पेशकश कर भी दी है. खैर, अपनी गलतियों को सुधार कर आगे बढ़ना आगे के लिए बेहतर मार्ग प्रशस्त करेगा लेकिन सवाल यह है कि राम मंदिर का मुद्दा नहीं चला तो भाजपा क्या काशी-मथुरा वाला नारा फिर लगाएगी?


ऐसे समय में संघ प्रमुख मोहन भागवत की कुछ समय पहले कही गई एक बात याद कर लेनी चाहिए. 2020 में भागवत ने मुरादाबाद में कहा था कि राम मंदिर बनने के बाद संघ खुद को इस अभियान से अलग कर लेगा, संघ के एजेंडे में काशी और मथुरा नहीं है. 


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इस बार जब 80 सीटों वाले यूपी में 37 सीटें सपा ने जीत ली और भाजपा की झोली में मात्र 33 आई है तो भगवा दल अब किस दिशा में बढ़ेगा? 1990 के दशक से भाजपा और RSS ने खुद को राम मंदिर अभियान से जोड़कर रखा है. इस बार देश में एक आम धारणा बनाने की कोशिश की गई कि कोई विकल्प ही नहीं है. यही वजह है कि 400 पार के नारे का भी खूब शोर हुआ लेकिन हिंदुत्व का मुद्दा पीछे रह गया. 


'ब्राह्मण-बनिया की पार्टी' वाली छवि से भाजपा आगे बढ़ी थी. कल्याण सिंह को यूपी में चेहरा बनाने से लेकर मोदी-शाह के दौर में भगवा दल ने ओबीसी वोटबैंक को खूब साधा. फायदा भी हुआ लेकिन इस बार अखिलेश यादव के पीडीए फॉर्मूले ने बाजी मार ली. सपा का वोट शेयर 2019 के 20 प्रतिशत से बढ़कर 33.59 प्रतिशत पर पहुंच गया जबकि यूपी में बीजेपी 49 से घटकर 41.37 प्रतिशत पर आ गई. सपा ने जबर्दस्त जातीय समीकरण सेट किए थे. उसने 15 दलित, 30 ओबीसी, 4 मुस्लिम और 9 अपर कास्ट के उम्मीदवारों को टिकट दिया था. सपा ने केवल 62 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 17 पर कांग्रेस ने कैंडिडेट उतारे थे. 


यूपी चुनाव में बड़ी फाइट होने वाली है


अब यही फॉर्मूला सपा 2027 के विधानसभा चुनाव में भी अपना सकती है. कई दिग्गज नेता पार्टी को मिल चुके हैं. पार्टी को उम्मीद है कि उसकी PDA रणनीति बीजेपी को रोकने में आगे भी सफल रहेगी. ऐसे में भाजपा मंदिर अभियान से कदम पीछे खींच सकती है. 


हां, फैजाबाद (अयोध्या) की हार ने भाजपा के आत्मविश्वास को पूरी तरह हिलाकर रख दिया है. अयोध्या तो झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है... अब पार्टी इससे खुद को दूर ही रखना चाहेगी. 4 अप्रैल को सीएम योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि अब अयोध्या, काशी के बाद फोकस हमारा मथुरा पर होगा. लेकिन अब चुनाव नतीजा देख भाजपा इन अभियानों से दूरी बना सकती है. इसके अलावा वह अल्पसंख्यकों को लेकर बयानबाजी से भी बच सकती है. उधर, सियासी जानकार तो यही कह रहे हैं कि कांग्रेस और सपा का गठबंधन आगे जारी रह सकता है. दोनों मिलकर जैसे-जैसे यूपी में अपनी पोजीशन मजबूत करेंगे, भाजपा के लिए मुश्किल बढ़ती जाएगी.