देविका रानी ने 'दिलीप कुमार' को बतौर एक्टर रखा था नौकरी पर, मिलती थी 1250 रुपये महीने की पगार
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देविका रानी ने 'दिलीप कुमार' को बतौर एक्टर रखा था नौकरी पर, मिलती थी 1250 रुपये महीने की पगार

दिलीप कुमार ने अभिनय की दुनिया में इत्तेफाक़ से ही कदम रखा था. बॉम्बे टॉकीज की संचालिका देविका रानी ने उन्हें लेखक के बजाए 1250 रुपए महीने की पगार पर दो साल के कांट्रेक्ट पर बतौर अभिनेता नौकरी पर रख लिया.

देविका रानी ने 'दिलीप कुमार' को बतौर एक्टर रखा था नौकरी पर, मिलती थी 1250 रुपये महीने की पगार

नई दिल्ली: कहते हैं वैसी प्रेम कथाएं ही ज्यादा मशहूर हुईं जिनका अंत दुखांत रहा. जहां प्रेमी-प्रेमिका मिल नहीं सके. ट्रैजिक लव के लिए हममें न जाने कैसा आकर्षण है. शीरी-फरहाद, लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट, मिर्जा-साहिबां, रूपमती-बाजबहादुर और क्या इस कड़ी में दिलीप कुमार और मधुबाला का नाम भी शामिल किया जा सकता है. वैसे दिलीप कुमार और सायरा बानो की प्रेम कथा भी कम नहीं लेकिन ट्रैजिक लव की दास्तां से मोह नहीं छूटता.

मधुबाला और ट्रैजिक लव
ये पहली नज़र का प्यार नहीं था. दोनों की पहली मुलाकात 'ज्वारभाटा' के सेट पर हुई थी. अपनी पहली फ़िल्म कर रहे दिलीप कुमार तब 29 साल के थे, मधुबाला 18 साल की थीं लेकिन प्यार परवान चढ़ा जब 1951 में दोनों की पहली फ़िल्म 'तराना' आई. इसके बाद आई 'संगदिल' और 'अमर'. 1960 में दोनों की आखिरी फ़िल्म  'मुगल-ए-आज़म'. तब तक दोनों का प्यार अलगाव के अंजाम पर पहुंच चुका था.

बेशक 'मुगल-ए-आज़म' तक ये प्यार अंजाम तक पहुंच चुका था लेकिन लौ सुलगती रही. मधुबाला को थप्पड़ मारने वाले शॉट में दिलीप कुमार ने उन्हें इतना झन्नाटेदार थप्पड़ मारा कि सेट पर मौजूद लोग सन्न रह गए. शॉट शानदार था लेकिन सभी लोग यही सोच रहे थे कि क्या मधुबाला अब आगे शूटिंग करेंगी. इससे पहले कि मधुबाला कुछ सोचतीं, डायरेक्टर के. आसिफ़ उन्हें कोने पर ले गए. फ़िल्म में दुर्जन सिंह का रोल करने वाले अजीत ने ये ज़िक्र किया है कि आसिफ़ ने मधुबाला से कहा कि, "मैं बहुत खुश हूं क्योंकि ये साफ़ हो गया है कि वह अब भी तुम्हें प्यार करता है." हालांकि इस प्यार को इसी तरह अधूरा रहना था. ट्रैजिक लव.    

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दरअसल, मधुबाला के हर फैसले उनके पिता अताउल्ला खान करते थे, कड़ुवी सच्चाई ये है कि मधुबाला, दिलीप कुमार से प्यार करें या न करें ये फ़ैसला भी उनके पिता ने किया. फ़िल्म लेखक बी.के. करंजिया लिखते हैं कि जब ख़ान साहब से दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते के बारे में पूछा गया तो, उन्होंने कहा, " मैं एक शर्त पर निकाह की इजाज़त दे सकता हूं, पहले दिलीप को अपनी पांचों बहनों की शादी करनी होगी, मैं नहीं चाहूंगा कि मेरी बेटी को कोई उन सबके कपड़े धोने को कहे."

दिलीप कुमार की खुद्दारी ये शर्त मंजूर नहीं कर सकी। फ़िल्म नया दौर के लिए भी दोनों की जोड़ी फ़ाइनल हुई थी, लेकिन अताउल्ला खान शूटिंग के लिए मधुबाला को भोपाल भेजने के लिए राजी नहीं हुए. मामला अदालत में पहुंच गया. दिलीप कुमार ने निर्माता बी.आर. चोपड़ा के हक में मधुबाला और उनके पिता के ख़िलाफ़ बयान दिया. हालांकि अदालत में ही उन्होंने ये भी कहा था कि "मधुबाला के मरने तक वह उन्हें प्यार करते रहेंगे. मगर, दो पठानों की जिद में मासूम प्यार की बलि चढ़ गई..."

सायरा बानो ने पूछा, मुझसे शादी करेंगे
'मुगल-ए-आज़म', दिलीप साहब के करियर में मील का पत्थर बन गई. प्रशंसक इसे उनकी प्रेम कहानी के तौर पर ही देखना पसंद करते रहे लेकिन दिलीप कुमार ने इसे दोबारा देखना तब पसंद किया जब उन्हें अपनी ज़िंदगी का प्यार मिला. सायरा बानो ने खुद एक बार बताया था, "हमने ये फ़िल्म देखी नहीं थी, आखिरकार पूना में फ़िल्म इंस्टीट्यूट के थियेटर में वी सैट टूगेदर एंड सी द फ़िल्म...और मैं देख सकती थी कि साहब कौन सा सीन पसंद कर रहे हैं, कौन सा सीन उन्हें ठीक नहीं लग रहा है..."

44 साल की उम्र में दिलीप कुमार ने जब सायरा बानो से शादी की तब वो महज 25 साल की थीं. दोनों की कहानी की शुरुआत 23 अगस्त 1965 को सायरा के जन्मदिन की पार्टी से हुई थी. दरअसल, सायरा तब शादीशुदा जुबली स्टार राजेंद्र कुमार से प्यार करती थीं. सायरा की मां नसीम बानो को सायरा और राजेंद्र कुमार का रिश्ता नापसंद था. उन्हीं के कहने पर दिलीप कुमार पार्टी में आए और उन्होंने सायरा से कहा कि उन्हें इस रिश्ते से दुख के सिवाए कुछ नहीं हासिल होगा. इस पर सायरा ने पलट कर उनसे पूछा तो क्या वह उनसे शादी करेंगे. इस सवाल का जवाब देने में दिलीप कुमार को एक साल लग गए.

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11 अक्टूबर 1966 को जब दिलीप कुमार दूल्हे का सेहरा बांध कर घोड़ी पर शादी के लिए पहुंचे तो बारात की अगुवाई पृथ्वीराज कपूर ने की. आजू-बाजू देवानंद और राजकपूर चल रहे थे. शादी के बाद भी शायरा ने फ़िल्मों में काम जारी रखा. 'विक्टोरिया नंबर 203' की शूटिंग के वक्त वो गर्भवती थीं, लेकिन उन्होंने काम नहीं रोका. उनका बच्चा मृत पैदा हुआ. वो फिर कभी मां नहीं बन सकीं. इस घटना ने दिलीप कुमार के संवेदनशील मन पर गहरा असर डाला. ट्रेजडी किंग तब असली जिंदगी में भी फूट-फूट कर रोया था.

आंसुओं से ये नाता उतना ही सच्चा था, जितना किसी किरदार में समा जाने के बाद निकलने वाले आंसू.  यश चोपड़ा ने एक बार कहा था," जब उनकी लाइफ़ में ट्रेजडी बिल्कुल नहीं थी, तब उन्होंने वैसे रोल किए थे.  बच्चे नहीं थे, औलाद नहीं थे, प्यार में नाकामी, ये सब बातें तो बाद की हैं. 44 साल की उम्र तक वह सारे रोल वे कर चुके थे."

द सब्सटेंस एंड द शैडो
भारतीय सिनेमा में दिलीप कुमार ने एक कामयाब और शानदार जिंदगी जी. उन्हें 7 बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए 'फिल्म फेयर' पुरस्कार से नवाजा गया. 1994 में उन्हें भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए 'दादा साहेब फाल्के' का खिताब दिया गया. 1997 में पाकिस्तान ने भी उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज' से सम्मानित किया. दिलीप कुमार की जिंदगी उस साए की कहानी है जो अपने सब्सटेंस यानी यूसुफ़ ख़ान की अज़ीम शख़्सियत की वजह से मिथक में बदल चुका है. यह वह मुकाम है जहां 'सब्सटेंस और शैडो' के बीच फ़र्क लगभग नामुमकिन है.

खुद दिलीप कुमार ने एक कार्यक्रम के मंच से एक बार कहा था, "यूसुफ़ ख़ान एक सब्स्टेंस है, दिलीप कुमार उसका साया है लेकिन आपने देखा होगा कि चढ़ते या उतरते सूरज में साया अक्सर शरीर से ज्यादा वसीहतर हो जाता है और जो साया ज्यादा वसीह हो जाता है...वो गुम भी हो जाता है..अंधेरे में."

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हालांकि दिलीप कुमार कोई अंधेरे में गुम हो जाने वाला साया नहीं है, वह साया जिसका सब्सटेंस यूसुफ़ ख़ान है. वह सब्स्टेंस जो गहरे सागर की तरह है, जिसके भीतर चलने वाले मंथन से अदाकारी का वो अमृत बाहर आता है, जहां ट्रैजेडी-कॉमेडी-मेलोड्रामा का इंद्रधनुष है. यूं तो भारतीय सिनेमा के रजट पटल पर बहुत से सुपर स्टार, मेगा स्टार और हिट स्टार आए लेकिन वक़्त के साथ अधिकतर सितारों का अफ़साना बिसरा दिया गया. याद रह जाता है तो एक दिलीप कुमार और उसके निभाए संवेदनशील किरदार.

वर्षों बाद दिलीप कुमार के अफ़सानों का सबसे मुकम्मल बयान 'द सब्सटेंस एंड द शैडो' को रूप में आया यानी वो किताब जो दिलीप कुमार की आधिकारिक जीवनी है. दिलीप कुमार की पारिवारिक मित्र उदय तारा नायर की लिखी दिलीप साहब की जीवनी का विमोचन महानायक अमिताभ बच्चन ने किया.  'सब्सटेंस एंड शैडो' से ये जाना जा सकता है कि दिलीप कुमार अपने किरादार को निभाने के लिए कैसी तैयारी करते थे.

देवदास, मुगल-ए-आज़म, मेला, शहीद, अंदाज, दाग़, यहूदी, गंगा-जमुना, लीडर, कर्मा, सौदागर. दिलीप कुमार की कुल 61 फ़िल्मों में ये चंद नाम हैं जिनके किरदार कभी भुलाए नहीं जा सकते. ये वो किरदार हैं, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में लाइटहाउस बन कर, आने वाली पीढ़ी के कलाकारों को मांजा है. हर वक़्त के दर्शकों को बताया है, क्या है दिलीप कुमार और क्या थी उसकी बकमाल अदाकारी. उस कलाकार की अदाकारी जिसे आज एक्टिंग की टेक्स्टबुक की तरह देखा जाता है.

जहांगीर, वासुदेव या दिलीप कुमार: नाम में क्या रखा है
दिलचस्प बात ये है कि अभिनय की दुनिया में उसने इत्तेफाक़ से ही कदम रखा था. बात 1943 की है जब साए का जन्म नहीं हुआ था सिर्फ सब्सटेंस का वजूद था यानी युसूफ खान-दिलीप कुमार नहीं बने थे. वे पुणे में फौजी कैंटीन में फल सप्लाई करते थे. उनकी जिंदगी के कई असफल प्रेम-संबंधों में पहला असफल रिश्ता भी यहीं बना था. वे एक मराठी लड़की के प्रेम में गिरफ्तार थे.  मगर, अपने अब्बा मोहम्मद सरवर ख़ान के असफल हो चुके फल व्यवसाय को दोबारा शुरू करने के लिए यूसुफ मुंबई लौट आए.

पिता ने उन्हें राय मश्विरे के लिए पारिवारिक मित्र डॉ. मसानी के पास भेजा. साहित्य, उर्दू और अंग्रेजी में यूसुफ की गहरी दिलचस्पी देखते हुए डॉ. मसानी उन्हें लेखक की नौकरी दिलवाने के लिए बॉम्बे टॉकीज की संचालिका देविका रानी के पास ले गए. यूसुफ की शख़्सियत और नफ़ीस अंदाज को देखकर देविका रानी ने उन्हें लेखक के बजाए 1250 रुपए महीने की पगार पर दो साल के कांट्रेक्ट पर बतौर अभिनेता नौकरी पर रख लिया.

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 यूसुफ़ ख़ान का जन्म पेशावर के एक पठान परिवार में हुआ था. दिलचस्प बात ये है कि राजकपूर का परिवार भी पेशावर से आया पठान परिवार था. यूसुफ के पिता मोहम्मद सरवर ख़ान फलों के कारोबारी थे और कारोबार की वजह से ही मुंबई आ बसे थे. वे फ़िल्मों में काम करने को अच्छा नहीं मानते थे और राजकपूर के दादा दीवान बशेशरनाथ को कंजर कह कर ताना मारा करते थे क्योंकि उनका बेटा पृथ्वीराज कपूर फ़िल्मों में काम करता था. पिता की सोच की वजह से ही यूसुफ़ नहीं चाहते थे कि उन्हें फ़िल्मों में काम करने के बारे में पता चल जाए लेकिन राजकपूर के दादा ने ये राज खोल दिया.
 
यूसुफ खान को नौकरी देने के बाद जब बांबे टॉकीज की देविका रानी ने उन्हें फिल्मों के लिए जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार में कोई एक नाम चुनने के लिए कहा तो युसूफ़ ने चैन की सांस ली. उन्हें लगा कि पिता को फ़िल्मों में काम करने के बारे में पता नहीं चलेगा. युसूफ़ की पहली फ़िल्म 'ज्वारभाटा' की शूटिंग तक बात छिपी भी रही लेकिन एक दिन राजकपूर के दादा दीवान बशेशरनाथ 'ज्वारभाटा' का पोस्टर ले कर यूसुफ़ के पिता की क्रॉफ़ोर्ड मार्केट की दुकान पर पहुंच गए. 1944 में 'ज्वारभाटा' के रिलीज होने के साथ ही यूसुफ़ नाम के सब्सटेंस के भीतर छिपा साया दिलीप कुमार दुनिया के सामने आ गया.

ट्रैजेडी किंग: दर्द का किरदार
यूसुफ से पिता काफी दिन तक नाराज़ रहे लेकिन 1947 में आई 'शहीद' ने पिता की नाराज़गी को पूरी तरह ख़त्म कर दिया. दिलीप कुमार की फ़िल्म 'शहीद' को पिता सरवर खान ने पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखा था. फ़िल्म उन्हें बहुत पसंद आई लेकिन उसका अंत देखकर उनकी आंखों में आंसू भी आ गया. उन्होंने यूसुफ से कहा कि आगे से अंत में मरने वाली फ़िल्में फिर न करनाट इत्तेफाक़ देखिए कि दिलीप कुमार ने फ़िल्मों में मरने के जितने किरदार निभाए हैं, उतने शायद किसी और अभिनेता ने नहीं निभाए. इसी वजह से दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के ट्रेजडी किंग के नाम से भी मशहूर हो गए.

 1948 में आई 'मेला' में दिलीप कुमार ने फिर एक दर्द भरा किरदार निभाया और इसी के साथ वे दुख के भाव को परदे पर उकेरने वाले चितेरे के तौर पर स्थापित हो गए. 1949 में बचपन के दोस्त राजकपूर के साथ आई 'अंदाज' ने उन्हें बाकायदा ट्रेजडी किंग का तमगा दिला दिया. ये वो वक़्त था जब जाति जिंदगी में भी दिलीप कुमार एक ट्रेजडी की तरफ बढ़ रहे थे. शहीद, नदिया के पार, शबनम और आरजू में उनके साथ कामिनी कौशल थीं. दोनों का प्यार परवान चढ़ रहा था लेकिन पहले से तय था कि इस प्यार का अंजाम वस्ल नहीं हिज्र है. कामिनी कौशल पहले से शादीशुदा थीं.

कामिनी कौशल के जाने के बाद दिलीप कुमार की जिंदगी के खालीपन को मधुबाला ने भरना शुरू कर दिया था. 1951 में दोनों की पहली फिल्म 'तराना' रिलीज हुई लेकिन किरदार में भीतर तक डूब जाने की दिलीप साहब की फ़ितरत ने ज़िंदगी और परदे के बीच के दुख को गढमढ कर दिया था. इसका ही चरम रूप 1955 में रिलीज हुई 'देवदास' में सामने आया.

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शरतचंद के उपन्यास देवदास का नायक प्यार की नाकामी में अपनी हस्ती मिटा कर जमाने से बदला लेने वाला किरदार है. परदे पर इससे पहले भी चार बार देवदास को उतारा गया लेकिन देवदास के भीतर छिपे आत्मघाती नायक के चरित्र को जिस बखूबी से दिलीप कुमार ने साकार किया वो किवदंती बन गया. देवदास में दिलीप कुमार का किरदार एक शाश्वत प्रेमी का है, जो सुचित्रा सेन के माथे पर छड़ी मार कर दाग़ बना देते हैं. पारो बनी सुचित्रा पूछती हैं कि ये तुमने क्या किया. दिलीप कुमार कहते हैं कि कोई पूछे तो झूठमूठ का कुछ बहाना बना देना, नहीं तो सच ही बता देना, निशान इसलिए बना दिया है कि जब तुम आइने में चांद सा मुखड़ा देखो तो हमारी आखिरी मुलाकात की शायद तुम्हे याद आ जाए.

धीरे-धीरे परदे पर उतारे गए दर्द भरे किरदारों ने दिलीप कुमार की 'ट्रेजेडी किंग' की छवि को भी किवदंति में बदल दिया.असली ज़िंदगी में भी दिलीप कुमार दर्द को जीने लगे. उन्हें नर्वस ब्रेक डाउन तक हो गया. इसे दिलीप कुमार ने खुद बयान किया है, " शहीद में भी मरा, मेला में मरा...धीरे-धीरे मरने के तरीके ख़त्म होने लगे मेरे पास, किस-किस ढंग से मरें कि एक ढंग दूसरे से अलग हो तो मुझे लगने लगा कि मेरी जाती जिंदगी ऐसी ही आलमिया होगी यानी कि इन्हीं कैरेक्टर की तरह मैं भी किसी कम में देवदास की तरह ही मर जाऊंगा. न जाने किसकी चौखट में मेरा दम निकल जाएगा."

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