कुछ सालों पहले तक लोकगीत हमारे सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा होते थे.
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लखनऊ: उत्तरप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में आज भी हर उत्सव की पहचान लोकगीतों से होती है. शादी-विवाह से लेकर बच्चे के जन्म,मुंडन हर शुभ मौके पर खास लोकगीत गाए जाते हैं. हालांकि समय बदलने के साथ इन लोकगीतों का चलन कम हो रहा है. नई पीढ़ी अब इन लोकगीतों से अनजान भी हो रही है. ऐसे में लोकगीतों के रूप में मिली विरासत को सहेजना होगा.
किताब में होगा संकलन
योगी सरकार अब प्रदेश की संस्कृति की पहचान इन लोकगीतों को सहेजने के लिए उन्हें किताब की शक्ल देगी. यह सब लोकगीतों के डॉक्यूमेंटेशन के उद्देश्य से किया जा रहा है. प्रदेश के संस्कृति विभाग की पहल पर लोक एवं जनजाति कला व संस्कृति संस्थान विशेष भूमिका निभाएगा. बताया जा रहा है कि इसके लिए 60 लाख रुपये का बजट भी तय किया गया है. योजना के मुताबिक बिरहा, गारी, बन्ना, सोहर, फल्गुआ जैसे लोकगीतों का संकलन किताब के रूप में किया जाएगा.
जनजातियों की जीवनशैली में शोध
लोक संस्कृति को सहेजने के लिए शुरू की गई इस योजना के अंतर्गत जनजातियों की जीवनशैली, उनके रहनसहन, रिवाज, पर्यावरण के साथ संबंध आदि का अध्ययन किया जाएगा. विशेष रूप से यूपी की कोल, बैगा, थारु और संथाल जनजातियों की विलुप्त होती संस्कृति को ब्रांड के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा. इसी कड़ी में प्रयागराज का दशहरा, सुपारी से बनने वाले खिलौनों आदि का मोनोग्राफ भी बनाया जाएगा. इसी कड़ी में चार से 9 फरवरी के बीच लोक एवं जनजाति कला व संस्कृति संस्थान और रिहंद थर्मल पावर के संयुक्त तत्वाधान में रिहंद महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है. इस महोत्सव में प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों के लोक कलाकार अपनी संस्कृति व प्रतिभा का परिचय देंगे.
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