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नई दिल्ली: जब भी कोई हवाई जहाज या हेलिकॉप्टर क्रैश होता है तो हम ये देखते हैं कि वो विमान कितना पुराना था, उसमें कोई तकनीकी खराबी तो नहीं थी और वो उड़ाने लायक था भी या नहीं. लेकिन जब आप ट्रेन में सफर करते हैं, तो क्या कभी आप सोचते हैं कि इस ट्रेन का इंजन कितना पुराना है, इसकी बोगियां कितनी पुरानी हैं और जिन पटरियों पर ये ट्रेन दौड़ेगी, उनकी स्थिति कैसी है? हर रेल दुर्घटना के बाद हमें बस यही सुनने को मिलता है कि ट्रेन के कोच पटरी से उतर गए. जलपाइगुड़ी में हुई ताजा रेल दुर्घटना में भी यही सुनने को मिला. आइए आपको रेल दुर्घटनाओं का पूरा सच बताते हैं, जिसमें ट्रेन का इंजन, ट्रेन की बोगी और रेल की पटरी, तीनों का ही महत्वपूर्ण रोल है. साथ ही ये भी जानते हैं कि क्या हमारे देश में ज्यादातर रेल दुर्घटनाएं इसलिए हो रही हैं, क्योंकि हमारी रेल गाड़ियां अंग्रेजों के जमाने की Technology पर चल रही हैं. लेकिन सबसे पहले आपको इस पूरी दुर्घटना के बारे में बताते हैं.
ये दुर्घटना पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी में 13 जनवरी को शाम करीब पांच बजे हुई, जब ये ट्रेन राजस्थान के बीकानेर से गुवाहाटी जा रही थी और इस दौरान इस ट्रेन में कुल 1200 यात्री मौजूद थे. शुरुआती जांच में पता चला है कि ट्रेन के इंजन में तकनीकी गड़बड़ी होने के बाद पायलट ने इमरजेंसी ब्रेक लगा कर ट्रेन को रोकने की कोशिश की, लेकिन तभी यात्रियों से भरी कुल 10 बोगियां पटरी से नीचे उतर गईं और इस हादसे में 9 लोगों की मौत हो गई. जबकि 35 लोग गंभीर रूप से घायल हैं.
भारत की गिनती दुनिया के उन देशों में सबसे ऊपर होती है, जहां हर साल इस तरह से कई ट्रेनें पटरियों से उतर जाती हैं और सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा देते हैं. उदाहरण के लिए, वर्ष 2014 से 2018 के बीच, इस तरह की कुल 313 दुर्घटनाएं हुई. यानी औसतन हर साल 63 यात्री ट्रेनें पटरियों से उतर गईं और इन ट्रेनों में सफर करने वाले लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. तो सवाल है कि, ये दुर्घटनाएं रुक क्यों नहीं रही हैं?
इसके पीछे एक Point तो ये है कि 21वीं सदी का भारत आज भी 19वीं और 20वीं सदी में अंग्रेजों द्वारा बिछाई गई पटरियों पर ही अपनी ट्रेनें चला रहा है. आप इसे समझिए कि, भारतीय रेलवे अपने हाथों की लकीरें, आजादी के बाद से अब तक ज्यादा नहीं बदल पाया है. ये लकीरें अब भी लगभग वैसी ही दिखाई देती हैं, जैसी अंग्रेजों के समय थीं. कुछ बदलाव जरूर हुआ है और समय-समय पर पटरियों की मरम्मत भी की जाती है, लेकिन इनका पूरी तरह से कायाकल्प नहीं हुआ है.
इसके अलावा दूसरा Point ये है कि पटरियों की तरह ट्रेनों में लगने वाले Coaches, या जिन्हें आप बोगी कहते हैं, वो भी पुराने जमाने की हो चुकी हैं. उदाहरण के लिए, इस दुर्घटना में जो 10 कोच पटरी से उतरे, वो पुराने जमाने के थे, जिन्हें ICF कोच कहते हैं. ICF का मतलब होता है, Integral Coach Factory. ये भारत सरकार की कोच फैक्ट्री है, जिसने इन बोगियों का निर्माण किया है. लेकिन जो बात समझने की है, वो ये कि जिस तकनीक पर ये कोच बनाए गए हैं, वो तकनीक 71 वर्ष पुरानी हो चुकी हैं. यानी आप कह सकते हैं. ये कोच बूढ़े हो चुके हैं और शायद इसीलिए, जब ये दुर्घटना हुई, तब ये बोगियां इमरजेंसी ब्रेक का दबाव नहीं सह पाईं और ये हादसा हो गया. इस दुर्घटना के बाद केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने खुद ये बात दोहराई है कि, केन्द्र सरकार जल्द से जल्द इन पुराने जमाने की बोगियों को रिटायर कर देगी और इनकी जगह ट्रेनों में आधुनिक कोच लगाए जाएंगे, जो इस तरह की दुर्घटनाओं में काफी सुरक्षित साबित होते हैं.
भारत का रेल नेटवर्क अमेरिका, चीन और Russia के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है. इसकी कुल लम्बाई, 67 हजार 956 किलोमीटर है. भारत में पहली ट्रेन अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1853 में महाराष्ट्र के ठाणे में चलाई गई थी. इस समय भारतीय रेलवे में 15 लाख से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं और इस लिहाज से ये दुनिया की सातवीं सबसे ज्यादा रोजगार देने वाली कंपनी है.
भारत के पास लगभग 22 हजार ट्रेनें हैं, जिनमें लगभग 13 हजार यात्री ट्रेनें हैं जबकि 8 हजार से ज्यादा मालगाड़ी हैं. भारतीय रेलवे साढ़े सात हजार से ज्यादा रेलवे स्टेशनों का संचालन करता है और हमारे देश में ट्रेनें, करोड़ों लोगों की लाइफलाइन हैं. भारत में प्रति दिन लगभग ढाई करोड़ लोग ट्रेनों में सफर करते हैं. ये न्यूजीलैंड की कुल आबादी से पांच गुना ज्यादा है. जबकि ऑस्ट्रेलिया की पूरी आबादी के बराबर है. लेकिन इसके बावजूद भारत में अधिकतर ट्रेनें ना तो निर्धारित समय पर चल पाती हैं और ना ही निर्धारित समय पर अपनी मंजिल तक पहुंच जाती हैं और शायद इसका आपने निजी तौर पर अनुभव भी किया होगा. अब सोचिए, अगर ये 13 हजार ट्रेनें लेट होंगी, तो इनमें सफर करने वाले ढाई करोड़ लोग भी लेट होंगे और अगर ये करोड़ों लोग लेट होंगे, तो देश फुल स्पीड में विकास के Track पर कैसे दौड़ पाएगा?
वैसे तो भारत में ट्रेनों का लेट चलना, कोई नई बात नहीं है. माना जाता है कि अंग्रेजों के समय से ही भारत में ज्यादातर यात्री ट्रेनें कभी समय से नहीं चलीं. हालांकि पिछले कुछ समय में इसमें सुधार हुआ है. लेकिन लड़ाई अब भी बहुत लम्बी है. भारतीय रेलवे के सामने चुनौती ये है कि अगर आज ट्रेनों के इंजन बदले जाते हैं, तो बोगियां पुरानी रह जाती हैं. जब तक बोगियां बदली जाती हैं, तब तक इंजन पुराने हो जाते हैं और जब तक दोनों को बदला जाता है, तब तक रेलवे ट्रैक्स पुराने हो चुके होते हैं और ये सिलसिला इसी तरह चलता रहता है और हमारे देश की रेल व्यवस्था का वर्जन 2.O आ ही नहीं पाता. यानी पिक्चर बनती ही रहती है. कभी सिनेमा हॉल पर रिलीज नहीं हो पाती.
भारत का रेल नेटवर्क 170 साल पुराना हो चुका है. यानी ये रेल नेटवर्क ना सिर्फ बूढ़ा हो गया है बल्कि इसे Upgrade करने की काफी जरूरत है. वर्ष 1853 से 1947 के बीच अंग्रेजों ने भारत में 54 हजार किलोमीटर की रेल लाइन बिछाने का काम किया था. यानी 67 हजार किलोमीटर की रेल लाइन में से, 54 हजार किलोमीटर की रेल लाइन आज भी अंग्रेज़ों के जमाने का है और इसका इस्तेमाल भारत अब भी कर रहा है. किसी भी देश में आधुनिक और तेज स्पीड वाली ट्रेनें चलाने के लिए नए रेलवे ट्रैक की जरूरत होती है. जबकि भारत अपने पुराने रेलवे ट्रैक्स को भी सही से अपग्रेड नहीं कर पाया है. इससे रेलवे ट्रैक्स की मरम्मत का काम आए दिन होता रहता है, जिससे काफी ट्रेनें समय पर चल ही नहीं पाती. दूसरा इससे ट्रेन हादसों का भी खतरा रहता है और तीसरा आधुनिक ट्रेनें भी, इन Tracks पर अपनी क्षमता के हिसाब से नहीं दौड़ पाती. यानी इन ट्रेनों को तेज स्पीड के दौरान पुराने Tracks का ध्यान रखना होता है.
आजादी के बाद पिछले 70 वर्षों में इस क्षेत्र में ज्यादा आधुनिक विकास हुआ ही नहीं. भारत के पास लगभग 22 हजार ट्रेनें हैं. लेकिन इनमें से ज्यादातर ट्रेनों के या तो इंजन पुरानी तकनीक पर आधारित हैं या कोच पुराने जमाने के हैं. जिन ICF कोच का इस्तेमाल फिलीपींस जैसे देशों ने वर्ष 2009 में ही बन्द कर दिया था. उन Coaches का इस्तेमाल भारत में आज भी हो रहा है और इनकी वजह से कई बार ट्रेनें पटरियों से उतर जाती हैं. जैसा कि गुरुवार को बंगाल में हुआ.
भारत में ये स्थिति भी तब है, जब पंजाब की कपूरथला कोच फैक्ट्री में जर्मनी द्वारा विकसित आधुनिक कोच बनाए जाते हैं. इनमें LHB कोच कहते हैं. LHB का मतलब होता है, लिंके हॉफमन बुश.. और कई ट्रेनों में इन Coaches का इस्तेमाल भी हो रहा है. लेकिन इसके बावजूद ये काम इतना धीमा है कि, ऐसा लगता है कि भारत में केवल यात्री ट्रेनें ही नहीं बल्कि विकास की ट्रेन भी देरी से चल रही है. क्योंकि, ICF कोच के मुकाबले LHB कोच, इमरजेंसी ब्रेक लगने पर पटरियों से नहीं उतरते, और इन्हें इंजन के साथ 200 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से भगाया जा सकता है. जबकि ICF कोच, अधिकतम 100 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से ही दौड़ सकते हैं. ये एक बड़ा अंतर है, जो इस पूरी कहानी को बयां करने के लिए काफी है.
हालांकि ऐसा नहीं है कि भारतीय रेलवे में कभी कुछ अच्छा काम नहीं हुआ. पिछले कुछ वर्षों में हर साल होने वाली ट्रेन दुर्घटनाएं काफी कम हो गई हैं. वर्ष 2014 में 118 ट्रेन दुर्घटनाएं हुई थीं तो 2021 में इनकी संख्या केवल 22 ही रह गई. इसके अलावा ट्रेन हादसों में होने वाली मौतें भी पिछले 10 वर्षों में काफी कम हुई हैं. लेकिन इसके बावजूद भारत में रेल का विकास से मेल नहीं हो पाया है.
भारत में इतना बड़ा रेल नेटवर्क इसलिए बन पाया, क्योंकि अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में काफी काम किया. अंग्रेज भारत में व्यापार करने के लिए एक बड़ा रेल नेटवर्क चाहते थे, ताकि वो भारत के सभी संसाधनों का भरपूर फायदा उठा सकें और उन्होंने ऐसा किया भी. लेकिन आजादी के बाद जब ये रेल नेटवर्क हमारे देश के नेताओं को मिला तो उन्होंने इसका फोकस, व्यापार से परिवहन पर शिफ्ट कर दिया. सोचिए, आजादी के बाद भारत को अंग्रेजों ने दिया ही क्या था? वो सब तो हमसे लूट कर ले गए थे. वो चाहते तो भारत में बिछाई अपनी रेल लाइनें भी उखाड़ कर ले जाते लेकिन ऐसा करना उनके लिए सम्भव नहीं था और भारत के लिए ये बात एक अवसर जैसी थी. लेकिन हमारे देश के नेताओं ने इस अवसर को तलाशा ही नहीं, और भारत में आजादी के बाद ट्रेनों को एक Political टूल बना दिया गया और इस पर राजनीति होने लगी.
आजादी के बाद 74 वर्षों में भारत में 39 रेल मंत्री बन चुके हैं. इस दौरान किसी रेल मंत्री ने ट्रेन का किराया सस्ता किया तो किसी ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के लिए ट्रेन का सफर ही मुफ्त कर दिया. लेकिन रेलवे की हालत सुधारने के लिए जिस आधुनिक सोच की जरूरत थी, वो नहीं अपनाई गई.