1956 में पाकिस्तान, 1979 में ईरान, 1980 में बांग्लादेश, और 2005 में इराक, जैसे देश या तो पूरी तरह से इस्लामिक देश बन गए.
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हिंदु दुनिया के 110 से ज्यादा देशों में रहते हैं लेकिन इसे मानने वालों की सबसे बड़ी आबादी भारत और नेपाल में रहती है. नेपाल कभी दुनिया का एक मात्र हिंदू राष्ट्र हुआ करता था लेकिन 2008 में नेपाल के संविधान में बदलाव करके उसे धर्म निरपेक्ष देश का दर्जा दे दिया गया. 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के संविधान में भी 42वां संशोधऩ करके प्रस्तावना में Secular शब्द जोड़ दिया था. यानी पिछले कुछ दशकों में भारत और नेपाल जैसे देशों के बहुसंख्यक हिंदुओं पर तो धर्म निरपेक्षता की जिम्मेदारी डाल दी गई. जबकि मुसलमान देश Secular से Islamic repblic या Islamic को राष्ट्र धर्म मानने वाले देश में बनते गए.
1956 में पाकिस्तान, 1979 में ईरान, 1980 में बांग्लादेश, और 2005 में इराक, जैसे देश या तो पूरी तरह से इस्लामिक देश बन गए. या फिर इस्लाम को अपना राष्ट्र धर्म मान लिया. हैरानी की बात ये है कि इनमें से कई देश अपने आगे Republic लगाते हैं जिसका अरबी भाषा में अर्थ होता है जम्हूरियत यानी लोकतंत्र. अब आप ये सोचिए कि ये कैसे लोकतांत्रिक देश हैं. जहां गैर मुसलमानों पर अत्य़ाचार किए जाते हैं और उन्हें काफिर कहा जाता है. जबकि भारत अगर ऐसे ही देशों में सताए जा रहे अल्पसंख्यकों को एक कानून बनाकर नागरिकता देना चाहता है तो हमारे यहां के लोग ही इसे एक सांप्रदायिक कदम बताने लगते हैं. ऐसे लोग कहते हैं कि नए कानून में इन देशों से आए मुसलमानों को नागरिकता देने का प्रावधान क्यों नहीं है? सवाल ये है कि जो देश खुद को इस्लामिक देश मानते हैं. या फिर जिन देशों का राष्ट्र धर्म ही इस्लाम है. वहां से आए मुसलमानों को किस आधार पर नागरिकता दी जानी चाहिए?
अब तक आप समझ गए होंगे कि कैसे गांधी जी के अपनों ने ही उन्हें धोखा दिया और आगे चलकर यही धोखेबाज़ी भारत और पाकिस्तान के बंटवारे का आधार बन गई. 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो भारत एक धर्म निरपेक्ष देश बन गया. जबकि पाकिस्तान आगे चलकर एक इस्लामिक देश में बदल गया और फिर 1971 में भारत ने बांग्लादेश को आजादी दिलाई. लेकिन कुछ वर्षों के बाद बांग्लादेश ने भी इस्लाम को राष्ट्र धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया. हालांकि 2018 में बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के खिलाफ बताया था. सवाल ये भी है कि भारत और नेपाल जैसे देशों पर तो Secular बनने का दबाव डाला जाता है..लेकिन ये दबाव मुसलमान देशों पर क्यों नहीं डाला जाता?
पूरी दुनिया में करीब 181 करोड़ लोग इस्लाम को मानते हैं. इनमें से करीब 160 करोड़ लोग इस्लामिक देशों में रहते हैं. इनमें से ज्यादातर देशों में धर्म का पालन करना Choice नहीं बल्कि मजबूरी होती है. क्योंकि लगभग सभी मुस्लिम देशों में धर्म के अपमान को अपराध माना जाता है और कुछ देशों में तो इसके लिए मौत की सज़ा का भी प्रावधान है. अब आप सोचिए धर्म निरपेक्ष भारत में एक कानून को लोग सांप्रदायिक बताने लगते हैं जबकि यही लोग जब इस्लामिक देशों की बात करते हैं तो वहां के कानून और धर्म का सम्मान करने की नसीहत देते हैं. ऐसी सोच रखने वालों से सावधान रहना बहुत ज़रूरी है .
पूरी दुनिया में प्राचीन काल से ही राजा को भगवान का रूप माना गया. और राजा भगवान बन कर राज करते रहे. राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप यहीं से शुरू हुआ. लेकिन, जैसे-जैसे विज्ञान का महत्व बढ़ा, वैसे-वैसे समाज में राजा की जगह प्रजा की ताकत बढ़ने लगी और लोकतंत्र का जन्म हुआ.
इस्लामिक राष्ट्र की मांग वही लोग करते हैं, जिन्हें विज्ञान पसंद नहीं है. ऐसे लोग परंपरा को बदलना नहीं चाहते हैं. और खुद को मज़हब का ठेकेदार बताकर जनता का शोषण करना चाहते हैं. इस्लाम को मानने वालों के दो प्रमुख ग्रंथ हैं - कुरान और हदीस . कुरान में मोहम्मद साहब के उपदेश हैं. लेकिन, इसमें इस विषय पर कोई चर्चा नहीं है कि शासन कैसे चलाया जाए.
मोहम्मद साहब की मौत के 200 वर्षों के बाद हदीस लिखी गई. हदीस अरबी शब्द है जिस्का अर्थ है रिपोर्ट. हदीस के कुल 6 संग्रह हैं. कुरान में जिहाद का अर्थ है- तपस्या लेकिन हदीस में जिहाद का अर्थ है- धर्म-युद्ध . ग़ज़वा-ए-हिंद का उल्लेख भी पहली बार हदीस में ही आता है.
ग़ज़वा-ए-हिंद का अर्थ है एक ऐसा युद्ध जो मोहम्मद साहब के निर्देश के मुताबिक लड़ा जाए. इस मान्यता के अनुसार हर मुसलमान का कर्तव्य है कि वो सुनिश्चित करे- दुनिया भर में बुत-परस्ती यानी मूर्ति पूजा बंद होनी चाहिए. क्योंकि मूर्ति पूजा बंद होने के बाद ही दुनिया में इस्लाम का राज कायम हो सकेगा. आप इस बात को ऐसे समझिए कि भारत में सबसे ज्यादा हिंदू रहते हैं. यानी भारत में सबसे ज्यादा मूर्ति पूजा की जाती है. इसीलिए भारत के हिंदुओं का जब तक धर्म परिवर्तन नहीं होगा, तब तक ग़ज़वा-ए-हिंद का सपना पूरा नहीं हो सकेगा. इस मानसिकता के अनुसार ग़ज़वा-ए-हिंद तभी संभव है जब या तो भारत के कई टुकड़े हो जाएं या फिर भारत पूर्ण रूप से इस्लामिक देश बन जाए. भारत में Two Nation Theory और इस्लामिक राष्ट्र की Ideology इसी मानसिकता का नतीजा है.
ग़ज़वा-ए-हिंद पाकिस्तान का सपना है और वहां के कट्टर मौलवी, आतंकवादी और सेना अक्सर भारत के खिलाफ गज़वा-ए-हिंद की धमकी देते रहे हैं. वर्ष 710 तक भारत में इस्लाम का नामो-निशान नहीं था. 711 में मोहम्मद बिन कासिम नें सिंध पर आक्रमण करके. पहला इस्लामिक राष्ट्र बनाने की कोशिश की थी. ये कोशिश अगले 12 सौ वर्षों तक चलती रही. भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने वाला शरजील का बयान इसी मानसिकता को दर्शाता है.
अब Two Nation Theory की बात. जिसकी नींव आज से 5 सौ वर्ष पहले बाबर के समय उलेमा ने रखी थी. पहले समझिए उलेमा क्या है. हिंदी में जो शब्द ज्ञान है उसे अरबी में इल्म कहते हैं. ज्ञानी को आलिमीन कहते हैं. और ऐसे आलिमीनों के समूह को उलेमा कहते हैं. हम आपको चार इस्लामी आलिमीनों के बारे में बताएंगे जिन्होंने भारत में हिंदू और मुसलमान के बीच दीवार खड़ी की.
एक आलिमीन था गंगोही जिसने बाबर से कहा था कि काफिरों को दबाए बिना हिंदुस्तान में इस्लाम पनप नहीं पाएगा. यानी गंगोही भारत को हिंदू और मुसलमान राष्ट्र के चश्मे से देख रहा था. इसी तरह बाबर के बाद. अकबर और उसके बेटे जहांगीर के समय एक ताकतवर आलिमीन था सिरहिंडी. इसी सिरहिंडी ने हिंदुओं को मिटाने के लिए शरियत यानी इस्लामी कानून और गोहत्या की परंपरा शुरू की थी.
औरंगजेब ने खुद इस परंपरा को आगे बढ़ाया. वर्ष 1707 में उसकी मृत्यु के बाद एक आलिमीन था- शाह वली उल्लाह. जिसने ऐलान किया था कि भारत में इस्लाम खतरे में है. उसने बताया था कि इस्लाम को खतरा हिंदुओं और शिया मुसलमानों से है.
शाह वली उल्लाह का बेटा और शिष्य था शाह अज़ीज जो खुद को जुबाने जिहादी कहता था. वर्ष 1824 में अपनी मौत से पहले वो प्रचार करता रहा कि भारत में हिंदुओं के रहते हुए इस्लाम का राज नहीं चल पाएगा. और फिर इस विचारधारा को मानने वालों की संख्या भारत में तेजी से बढ़ने लगी. लेकिन भारत में इस्लाम के जानकार गज़वा ए- हिंद को लेकर क्या कहते आपको ये भी जान लेना चाहिए.
14 मार्च 1888 को मेरठ में दिए एक भाषण में Sir Syed Ahmed Khan ने कहा कि अगर आज अंग्रेज देश छोड़कर चले जाते हैं तो हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते. अगर मुसलमान चाहते हैं कि इस देश में वो सुरक्षित रहें तो इसके लिए जरूरी है कि अंग्रेजों की सरकार चलती रहे. सैयद अहमद खान के विचार से प्रेरित होकर ही अंग्रेजों ने वर्ष 1905 में बंगाल का विभाजन किया था और वर्ष 1906 में ही मुस्लिम लीग का जन्म भी हो गया था. यानी अंग्रेज़ों ने बांटो और राज करो की जिस नीति को अपनाया Two Nation Theory के समर्थकों ने उसी नीति के सहारे भारत को धार्मिक आधार पर बांट दिया. हालांकि वर्ष 1911 में बंगाल के विभाजन का फैसला रद्द कर दिया गया था.
लेकिन, इस दौरान कांग्रेस का बंटवारा नरम दल और गरम दल में हो चुका था. स्वराज की मांग कमज़ोर पड़ चुकी थी और समाज भी बंट चुका था. वर्ष 1928 में गुलाम हसन शाह काज़मी नाम के पत्रकार ने पाकिस्तान नाम से एक अखबार शुरू करने की अर्जी दी थी. वर्ष 1933 में चौधरी रहमत अली ने Now Or Never नाम से एक बुकलेट निकाली थी. इस बुकलेट में पहली बार पाकिस्तान नाम के एक मुस्लिम देश का जिक्र किया गया था. वर्ष 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान अलग देश बनाने की बात कही थी.
INTRODUCTION TO THE CONSTITUTION OF INDIA नामक किताब में लिखा है कि 1942 में Sir Stafford Cripps एक प्रस्ताव लेकर भारत आए थे. इस प्रस्ताव में भारत को संविधान बनाने की स्वतंत्रता देने की बात तो थी. लेकिन उसमें ये भी कहा गया था कि ये संविधान किसी पर थोपा नहीं जा सकता है. मौके का फायदा उठाते हुए मुस्लिम लीग ने स्वतंत्र पाकिस्तान के लिए एक अलग संविधान सभा की मांग रख दी.
26 जुलाई 1947 को अंग्रेजी हूकूमत ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान के लिए एक अलग संविधान सभा का गठन किया जाएगा. और इस तरीके से भारत का बंटवारा तय हो गया. 14 अगस्त 1947 को पंजाब और बंगाल को धर्म के आधार पर आधे-आधे हिस्सों में बांट दिया गया. इस्लाम के आधार पर बने राष्ट्र में रहने की इच्छा रखने वाले लोग पाकिस्तान चले गए और जो मुसलमान भारत में रह गए उन्होंने ये प्रमाणित किया कि वे धर्म की राजनीती में विश्वास नहीं करते . लेकिन आगे चलकर ये विश्वास कमज़ोर पड़ने लगा.
1950 में पूर्ण हुए भारत के संविधान ने इसी प्रमाण को प्रावधान बना दिया. भारत के संविधान निर्माताओं ने Religion यानी पंथ को राजनीती से इतना दूर रखा कि उन्होने Secular शब्द को भी संविधान में रखना उचित नहीं समझा. संविधान सभा के सदस्य तजामुल हुसैन ने तो यहां तक कहा था कि RELIGION की शिक्षा देने का अधिकार सिर्फ माता-पिता के पास होना चाहिए... और ये शिक्षा भी सिर्फ घर में दी जानी चाहिए यानी स्कूलों और दूसरे संस्थानों का धर्म की शिक्षा से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए.
उनकी मांग थी किसी भी व्यक्ति को RELIGION संबंधी कपड़े SIGN या SYMBOL पहनने-ओढ़ने की छूट नहीं होने चाहिए. लेकिन बंटवारे ने भविष्य के लिए एक उदाहरण भी तय कर दिया था. वो उदाहरण ये था कि अगर कोई अगर चाहे तो वो अपने राजनैतिक स्वार्थ आजादी के बाद भी भारत में धर्म के नाम पर उनमाद फैला सकता है.
1977 में आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में 42वां संशोधन करके Secular शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिया. बिना किसी बहस या राय मशौरे के उठाया गया ये एकतरफा कदम राजनैतिक स्वार्थ का ही उदाहरण था.
1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी कि सरकार ने धर्म आधारित राजनैतिक स्वार्थ का एक और उदाहरण दिया. वर्ष 1978 में एक 62 वर्षिय महिला शाहबानो ने अपने पति के खिलाफ एक केस कर दिया था. क्योंकि उसके पति ने उसे तलाक दे दिया था.
1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानों पति को आदेश दिया कि वो हर महीने 500 रुपये शाहबानों को देंगे. शाहबानो के पति ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ बताया. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी शाहबानो के पति के पक्ष में आ गया. तब राजीव गांधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलट दिया समाज के रूढ़िवादियों का पक्ष लेते हुए सरकार ने मुस्लिम WOMEN PROTECTION ACT बनाया.
जिसके तहत शाहबानों जैसी महिलाओं को तलाक के बाद सिर्फ 3 महीने तक भरण-पोषण दिया जा सकता था. सरकार के इस कदम को तुष्टिकरण की नीति से जोड़ा गया. जब हिंदुओं में सरकार की छवि बिगड़ने लगी तो 1986 में ही राजीव गांधी सरकार ने रामलला के दर्शन के लिए बाबरी मस्जिद के ताले खुलवा दिए. यानी एक तरफ सरकार मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए एक महीला के खिलाई हो गई तो दूसरी तरफ अपनी छवि बचाने के लिए मंदिर मस्जिद की राजनीति क भी बढ़ावा देने लगी.
सांप्रदायिक आधार पर 1985-86 से ही देश के समुदायों में दूरी बढ़ती गई. आज एक तरफ दुकड़े टुकड़े गैंग भारत को खंडित करने पर अमादा है तो वहीं शरजील जैसे लोग पूरे भारत को ही इस्लामिक राष्ट्र बनाने पर तुल गए हैं. यानी जो हालात वर्ष 711 में भारत पर मोहम्म कासिम के हमले से पैदा हुए उन्हीं हालात की बुनियाद पर 1947 में भारत का बंटवारा हो गया. लेकिन आज देश ये सवाल पूछ रहा है कि भारत में कट्टर इस्लाम और शरिया के मुताबिक चलेगा या फिर संविधान के मुताबिक. जो लोग हाथ में संविधान लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. वही लोग कहीं ना कहीं भारत को एक इस्लामिक राष्ट्र बनते हुए देखना चाहते हैं य़
1947 में भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान बना, 1971 में भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए तो बांग्लादेश का जन्म हुआ. पाकिस्तान 1956 से लेकर आज तक एक इस्लामिक मुल्क है..जबकि बांग्लादेश के इस्लामीकरण की शुरुआत 1979 में हुई थी..जब बांग्लादेश ने अपने संविधान में सशोधन करके ...इस्लाम को अपना राष्ट्र धर्म घोषित कर दिया था..
हालांकि 2018 में बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को खारिज कर दिया था. लेकिन फिर भी बांग्लादेश में इस्लाम ही प्रमुख धर्म है है और वहां आज भी धर्म के खिलाफ बात करना आसान नहीं है . इन दोनों देशों के बीच भारत है...जो आज़ादी से लेकर आज तक...सभी धर्मों को सम्मान दे रहा है. जबकि इस दौरान पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की आबादी तेज़ी से घटी है.
जबकि भारत में मुसलमानों की आबादी तेज़ी से बढ़ी है . जो लोग भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का सपना देख रहे हैं..वो अब इस सपने को तलवारों और बंदूकों के दम पर नहीं बल्कि तेज़ी से बढ़ती मुस्लिम आबादी और जहरीली विचारधारा के दम पर पूरा करना चाहते हैं . आप इसे वैचारिक गज़वा-ए-हिंद भी कह सकते हैं . जिसे पूरा करने के लिए मुसलमानों की आबादी और इस्लाम के बढ़ते प्रभाव को Soft Power की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है . इसलिए आज आपको आबादी के अनुसार भी ये समझ लेना चाहिए कि भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने का सपना कैसे पूरा किया जा सकता है.
Pew रिसर्च के मुताबिक फिलहाल भारत में मुसलमानों की आबादी करीब 20 करोड़ है. जो 2050 तक बढ़कर 31 करोड़ हो जाएगी. यानी मुसलमानों की आबादी में करीब 11 करोड़ का इज़ाफा हो जाएगा. इसी तरह फिलहाल देश में हिंदुओं की आबादी करीब 105 करोड़ है. जो 2050 में बढ़कर 130 करोड़ हो जाएगी. लेकिन जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार की बात करें तो मुस्लिम आबादी हिंदुओं के मुकाबले तेज़ी से बढ़ रही है. हिंदुओं की आबादी 1.55 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही है जबकि मुस्लिमों की आबादी 2.2 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही है . Projections के मुताबिक 2050 तक भारत में पूरी दुनिया के मुकाबले सबसे ज्यादा मुसलमान होंगे, यानी इस्लामिक देशों से भी ज्यादा . आज भी मुसलमानों की जनसंख्या के हिसाब से भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है..पहले नंबर पर इंडोनेशिया है जहां करीब 22 करोड़ मुसलमान रहते हैं..जबकि भारत में मुसलमानों की संख्या 20 करोड़ है .
पूरी दुनिया में भी मुसलमानों की आबादी बाकी धर्मों के मुकाबले तेज़ी से बढ़ रही है. Pew रिसर्च के मुताबिक 2010 से 2050 के बीच दुनिया की आबादी में ईसाइयों का हिस्सा 31.4 प्रतिशत ही रहेगा . यानी इसमें कोई खास वृद्धि नहीं होगी . जबकि दुनिया की जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी 23 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 30 प्रतिशत हो जाएगी . इसके उलट दुनिया की आबादी में हिंदुओं की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत से घटकर 14.9 प्रतिशत हो जाएगी .
फिलहाल दुनिया में 16.4 प्रतिशत लोग ऐसे हैं..जो किसी धर्म को नहीं मानते लेकिन 2050 तक ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ 13 प्रतिशत रह जाएगी. यानी आने वाले वक्त में धर्म लोगों की ज़रूरत भी बन जाएगा और मजबूरी भी..क्योंकि जैसे जैसे कट्टर विचारधारा का विस्तार होगा....वैसे वैसे धर्म को मानना लोगों की मजबूरी भी बन जाएगी . कई इस्लामिक देशों में आज भी ईश्वर में विश्वास ना रखने वालों को हिंसा और अत्याचार का सामना करना पड़ता है . और शायद आने वाले समय में ऐसी घटनाएं और ज्यादा बढ़ जाएंगी.