लोकसभा चुनाव 2019 के बुखार ने पूरे दो महीने देश को अपनी गिरफ्त में रखा. राजनैतिक चर्चाएं हमारे जेहन में इस कदर छाईं कि आईपीएल जैसा क्रिकेट टूर्नामेंट तक शोहरत में इससे होड़ करने की कोशिश भर कर सका. मतदाताओं का वैसे तो काम कुछ मिनट का था कि वे जाएं और अपना वोट डाल आएं. लेकिन चुनावों की चर्चा ऐसी थी कि वह मोबाइल स्क्रीन से लेकर टीवी स्क्रीन तक लोगों के साथ चलती रही.
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नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव 2019 (lok sabha elections 2019) के बुखार ने पूरे दो महीने देश को अपनी गिरफ्त में रखा. राजनैतिक चर्चाएं हमारे जेहन में इस कदर छाईं कि आईपीएल जैसा क्रिकेट टूर्नामेंट तक शोहरत में इससे होड़ करने की कोशिश भर कर सका. मतदाताओं का वैसे तो काम कुछ मिनट का था कि वे जाएं और अपना वोट डाल आएं. लेकिन चुनावों की चर्चा ऐसी थी कि वह मोबाइल स्क्रीन से लेकर टीवी स्क्रीन तक लोगों के साथ चलती रही. व्हाट्सअप पर फुसफुसाकर आने वाली प्रचार सामग्री से लेकर टीवी स्क्रीन पर चीखते एंकरों को लोग इस आशा में सुनते रहे कि कहीं से कुछ सुराग लगे.
इन पूरे दो महीने में जनता खामोश और नेता मुखर रहे. दावों का ऐसा दौर चला कि लगा भारत की 542 लोकसभा सीटों पर कहीं हजार- दो हजार लोग तो नहीं जीतने वाले. कहने को चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ही रहीं, लेकिन सुर्खियां बटोरने में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी किसी से पीछे नहीं रहीं. ममता के अलावा बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव पर भी लोगों की निगाहें रहीं. चुनाव खत्म होते होते आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू विपक्षी एकता के मुख्य सूत्रधार की तरह सामने आए.
19 मई को आखिरी दौर की मतगणना के बाद एग्जिट पोल सामने आ गए. इस तरह, दावे करने का जो काम अब तक नेता कर रहे थे, वही काम अब टीवी चैनल्स के एंकर के पास आ गया. एग्जिट पोल ने विविधता में एकता का अनुपम उदाहरण पेश किया. मोटे तौर पर देखें तो उन्होंने एनडीए को 250 से 350 तक सीटें दे दीं. एग्जिट पोल के आंकड़ों में 100 सीट तक के अंतर का मतलब हुआ कि एग्जिट पोल 20 फीसदी का कैलकुलेशन एरर लेकर चल रहे हैं. जिस देश में कुछ हजार वोटों से जीत हार तय होती है, वहां इतना बड़ा मार्जिन अपने आप में एग्जिट पोल को अविश्वसनीय बना देता है. लेकिन इसके बावजूद सभी एग्जिट पोल ने एक राय से बीजेपी को बढ़त दी तो लोग यह तो मान ही रहे हैं कि सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ही रहेगी. खुद कांग्रेस ने भी कभी खुद के नंबर वन पार्टी होने का दावा नहीं किया है. यही एक चीज है जो एग्जिट पोल को थोड़ा विश्वसनीय बनाती है. लेकिन इतनी विश्वसनीयता के लिए इतना ताम-झाम करने की क्या जरूरत थी, यह बात तो राह चलता आदमी भी कह सकता था.
इसीलिए 19 मई को एग्जिट पोल आने के बाद भी लोगों को संतोष नहीं हुआ. नेताओं की विश्वसनीयता पहले ही संदिग्ध है. ऐसे में चर्चा सट्टा बाजार की तरफ मुड़ गई. देश के अलग-अलग सट्टा बाजारों में अलग-अलग पार्टियों के राजनैतिक भविष्य पर लग रहे दांव का आकलन होने लगा. कहने को सट्टा पूरी तरह गैरकानूनी है, यानी एक आपराधिक गतिविधि है, लेकिन चुनाव की भविष्यवाणी करने का लोभ ऐसा होता है कि उस समय इसकी चर्चा बहुत ही निष्काम भाव से होने लगती है. सट्टा बाजार ने एनडीए को बताया तो आगे ही है, लेकिन एग्जिट पोल के मुकाबले जरा यहां एनडीए की पोजीशन कमजोर रही है.
एग्जिट पोल और सट्टा बाजार भी भारतीय जनता और मीडिया की जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाए तो अंत में ज्योतिषियों की चर्चा होने लगी. क्या हिंदी, क्या अंग्रेजी हर भाषा के अखबारों ने अपनी वैज्ञानिक चेतना के दावों को स्थगित करते हुए ज्योतिषियों के हवाले से चुनाव के नतीजे बताने शुरू किए. ज्योतिषी भी कम कलाकार नहीं निकले, उन्होंने ग्रहों की ऐसी चाल बताई कि जो बात समझने चले थे वह और उलझ गई. किसी ने कहा एनडीए तो किसी ने उन्हीं ग्रहों में से यूपीए की जीत निकाल दी.
इस तरह एग्जिट पोल, सट्टा बाजार और ज्योतिषी बता तो कुछ नहीं पाए, लेकिन 19 मई से 23 मई के बीच पैदा हुए राजनैतिक समाचारों के शून्य को भरने में मददगार साबित हुए. आज 23 मई आ गई है. जल्द ही आपको रिजल्ट मिल जाएगा. रिजल्ट वैसा नहीं आएगा, जैसा आप चाहते हैं. रिजल्ट वैसा आएगा जैसी आपने तैयारी की होगी. कहने का मतलब यह कि जो आपने परीक्षा की कॉपी में लिखा होगा, वही मार्क शीट में दिखाई देगा. जहां जैसा वोट पड़ा होगा वैसा परिणाम आ जाएगा.
जाहिर है यह परिणाम किसी न किसी एग्जिट पोल, किसी न किसी स्वयंभू विशेषज्ञ, किसी न किसी नेता या पार्टी के अंदाजे से मेल खाएगा ही खाएगा. ऐसे में तुक्का लगाने वाला व्यक्ति या संस्थान अपने तुक्के को तीर साबित करने में जुट जाएगा. इसीलिए कहा गया है- कि जो मारे सो मीर.
वैसे, आप इतना जरूर समझ लीजिए कि आज के चुनाव परिणाम टी-20 की शैली में फटाफट नहीं आएंगे. हां ये टेस्ट मैच की तरह धीमे भी नहीं होंगे, लेकिन ये कम से कम एक डे-नाइट मैच तो साबित होंगे ही, जो एक से दूसरे दिन में घुस सकते हैं. एक बात और कि रिजल्ट से खुश होने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन नाराज बिल्कुल नहीं होना है. आखिर को यह हमारा सामूहिक फैसला है. एक बार फैसला होने के बाद हमारी निजी राय का बहुत मतलब नहीं रह जाता. जो भी सरकार आएगी वह भारत सरकार होगी. वह भी आपको उसी तरह के सुख-दुख में जीने देगी, जैसे पहले होते थे. इसलिए किसी नेता की हार जीत का गुस्सा अपने परिचित पर न उतारियेगा.