कितने अभियान और...।

शिक्षा ही किसी देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकी विकास की नींव होती है। विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा।अगर हम थोड़ा मनन करें तो साफ दिखाई पड़ता है कि शिक्षित हो जाने से किसी व्यक्ति की सोच, उसकी जीवन शैली, उसका व्यवहार यानी कि उसका संपूर्ण व्यक्तित्व ही बदल जाता है।

 

डा. हेमंत कुमार

 

शिक्षा ही किसी देश के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकी विकास की नींव होती है। विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा।अगर हम थोड़ा मनन करें तो साफ दिखाई पड़ता है कि शिक्षित हो जाने से किसी व्यक्ति की सोच, उसकी जीवन शैली, उसका व्यवहार यानी कि उसका संपूर्ण व्यक्तित्व ही बदल जाता है। ठीक यही बात समाज या समुदाय के बारे में लागू होती है। चूंकि व्यक्तियों से मिलकर ही कोई समुदाय या समाज बनता है इसलिए जैसे-जैसे समाज शिक्षित होता जाता है वैसे ही वैसे वहां के लोगों में सकारात्मक सोच उभरती है।उनके अंदर अपनी स्थितियों को बदलने विकसित करने की सोच पैदा होती है और जिस क्षण से बदलाव लाने की सोच समाज में आती है, उसी क्षण से उसका विकास भी शुरू हो जाता है। सामाजिक विकास की यह अनवरत प्रक्रिया बराबर चलती रहती है।

 

हम सभी लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे आज के बच्चों के कंधों पर ही आगे चलकर समाज,देश की जिम्मेदारी आएगी।इसीलिए हमें अपनी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करना ज्यादा जरूरी है।लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश की प्राथमिक शिक्षा की स्थिति आज भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती।

 

हमारा देश 1947में आजाद हुआ। हमारे देश का अपना संविधान बना और उस संविधान में भी शिक्षा को हर बच्चे का मौलिक अधिकार कहा गया।यानी कि हर बच्चे को हर हालत में शिक्षा देनी ही है।अब जब कि इतनी जद्दोजहद के बाद हमारे देश में बच्चों की शिक्षा के अधिकार से संबंधित कानून भी बन गया है इसके बावजूद भी हम अभी तक शिक्षा को हर बच्चे तक पहुंचाने का रोना रो रहे हैं। यह वाकई बड़ी शर्मनाक बात है कि आजाद होने के 64 साल बाद भी हम अपने यहां के हर बच्चे को शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं।

 

ऐसा नहीं है कि इस दिशा में प्रयास नहीं हुए।प्रयास तो बहुत ढेर सारे हुए।आजादी के बाद से तमाम आयोग गठित हुए।कई समितियाँ बनीं।बहुत सी रिपोर्टें तैयार हुईं।पर नतीजा क्या रहा? 1986 में एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी बनाई गई। इसमें छः से चौदह साल तक के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मुहैय्या कराने की बात कही गई।इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लड़के लड़कियों को समान अधिकार देने,लड़कियों की शिक्षा के लिए विशेष प्रयास करने,स्कूल न आ पाने वाले बच्चों को अनौपचारिक शिक्षा देने, तथा 15 से 35 साल के प्रौढ़ों के लिए प्रौढ़ शिक्षा को गति देने की सिफारिश की गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बाद पूरे देश और हर प्रदेश में कई योजनाएं बनी और लागू की गईं। ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड नामक महायोजना, फिर सबको शिक्षा सबको स्वास्थ्य (लक्ष्य 2000), डी.पी.ई.पी.,सर्व शिक्षा अभियान और एम.डी.एम.यानी मिड डे मील और अब माध्यमिक शिक्षा अभियान।

 

इन सभी योजनाओं पर विश्व बैंक, भारत सरकार और प्रदेश सरकारों का अच्छा खासा धन खर्च हो चुका है और अभी भी खर्च हो रहा है।इन प्रयासों से कुछ सफलताएँ भी मिल रही हैं।पर सवाल यह है कि क्या इन सभी योजनाओं, खर्चों के बावजूद हम अपनी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था को वह स्वरूप दे पाए जो भारत वर्ष जैसे विकासशील देशों में होनी चाहिए थीं? अगर नहीं दे पाए तो इसके पीछे क्या कारण है?

 

अगर हम आजादी के बाद से अब तक हुए सभी प्रयासों को छोड़कर सिर्फ वर्तमान में चल रहे सर्वशिक्षा अभियान और मिड डे मिल पर ही बात करें तो भी सरकारी प्रयासों की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।यह सच है कि सर्वशिक्षा अभियान के अन्तर्गत विद्यालयों के नए भवन बने हैं।शिक्षकों,शिक्षा मित्रों की नियुक्तियाँ हो रही हैं।हर बच्चे को शिक्षा के अधिकार का लाभ दिलवाने यानि स्कूल तक पहुंचाने के लिए कक्षा आठ तक के सभी बच्चों को मुफ्त किताबें और ड्रेसें दी जा रही हैं।गाँव के सभी बच्चों को स्कूल लाने के लिए उन्हें मध्यान्ह भोजन भी दिया जा रहा है।प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को टी.वी. पर शैक्षिक कार्यक्रम दिखलाने के साथ ही उन्हें कम्प्यूटर की भी शिक्षा दी जा रही है।कुल मिलाकर काफी अच्छी कोशिशें हो रही हैं।यह सब कुछ हो रहा है प्राथमिक शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए।

 

बालक बालिकाओं के साथ ही अभिभावकों, समुदाय में जागरूकता पैदा करने के लिए।और कम से कम जूनियर हाई स्कूल तक के हर बच्चे को शिक्षित करने के लिए। पर बात फिर से वहीं आ कर अटक जाती है कि इन प्रयासों में हमें कितनी सफलता मिल रही है।क्या जितना धन खर्च किया जा रहा है उस अनुपात में परिणाम भी हमें मिल रहे हैं।सरकारी आँकड़े तो यही कहते है कि सब कुछ अच्छा हो रहा है।प्रगति भी हो रही है बदलाव भी आ रहा है।

 

लेकिन क्या सरकारी आँकड़े अखबार में छपने वाली खबरों को नकार सकेंगें कि अमुक प्राथमिक विद्यालय की छत ढह गई।मध्यान्ह भोजन खाने से बच्चे बीमार हो गए या मध्यान्ह भोजन में कीडे़ मिले।सच्चाई यह है कि सरकार की तरफ से जो भी योजनाएँ शुरू की जाती हैं उनमें तमाम लूप होल्स भी होते हैं। जिन पर न योजना बनाने वालों का ध्यान जाता है और न उन्हें अमली जामा पहनाने वालों का।उदाहरण के लिए मिड डे मिल योजना का एक परिणाम यह भी है कि मध्यान्ह भोजन बंटने के एक घण्टे पहले से एक घंटे बाद तक स्कूल के बच्चे उसी में संलग्न हो जाते हैं।उस दौरान वहाँ बस एक दावत का माहौल बन जाता है।पढ़ाई लिखाई हो ही नहीं पाती।बहुत सारे स्कूलों में तो बच्चे मध्यान्ह भोजन के बाद ही घर चले जाते हैं।इन हालातों में कहाँ से बढ़ पाएगी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता और कहाँ में शिक्षित हो पाएंगे बच्चे।

 

मुझे तो प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान हालत को देखकर गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की एक कहानी याद आ रही है।शीर्षक है तोता।कहानी का सारांश कुछ इस तरह है। एक राजा के बगीचे में कहीं से एक तोता आ गया।उसने कोई फल भी कुतर दिया और राजा को देख चिल्लाने लगा।राजा ने मंत्री से कहा इसे शिक्षा दो।तोते को पढ़ाने की व्यवस्था शुरू हुई।तमाम पंडित बुलाए गए।सबने पोथियाँ लिखनी शुरू कर दी।लाखों करोड़ों पोथियाँ लिखी गई।पण्डितों को खूब धन बंटा। पोथियों की कापियाँ (नकलें) तैयार करने के लिए हजारों कर्मचारी नियुक्त किए गए।धन से सबके घर भरने लगे।राज्य के तमाम मंत्रियों, राजा के रिश्तेदारों के महल खड़े हो गए।बीच में राजा पूछते तो बताया जाता तोता पढ़ रहा है।समय बीतता रहा।एक दिन राजा तोते की पढ़ाई का हाल लेने गया। तोते का पिंजरा पोथियों, कलमों, तख्तियों से भरा पड़ा था। यहाँ तक कि तोते के मुँह में भी किताबों के पन्ने और पेंसिलें ठुंसी थीं। और तोता बेचारा पिंजरें में मरा पड़ा था। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह कहानी बहुत पहले लिखी थी। उस समय उन्होने सोचा भी नहीं होगा कि उनकी कहानी का सच भविष्य में प्रत्यक्ष रूप से हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में दिखाई पड़ेगा।

 

सबसे दुःख की बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा का अधिकार बच्चों को देने के लिए सरकार ने कानून तो बना दिया लेकिन हमारी सरकार ने अभिभावकों के लिए अभी तक कोई कठोर नियम कानून नहीं बनाया है।नतीजतन आज भी बहुत से अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय उनसे खेती या अन्य कामों में सहायता लेना अधिक पसंद करते हैं। जबकि जिन देशों में शिक्षा ग्रहण करना या स्कूल जाना सबके लिए अनिवार्य कर दिया है गया वहां बच्चों को स्कूल न भेजने वाले अभिभावकों के लिए दंड भी तय किया गया है। उन्नीस सौ चौरानबे के आसपास चीन में नौ साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी गई।बच्चों को स्कूल न भेजने वाले अभिभावकों पर आर्थिक दंड का भी प्राविधान वहां है।

 

थाईलैण्ड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया आदि देशों में पहले ही शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी। फिर हमें किस बात का इंतजार है। जब हम स्कूल चलो अभियान के लिए तमाम जुलूस, विज्ञापन, नारे नौटंकी दुनिया भर के उपाय कर सकते हैं, फिर एक छोटा सा नियम क्यों नहीं बना सकते कि जो अभिभावक अपने बच्चे को स्कूल पढ़ने नहीं भेजेंगे उनके ऊपर दस, बीस या पचास रुपये का अर्थदंड लगेगा। जब स्कूल में मुफ्त किताबों, ड्रेस, मध्यान्ह भोजन सभी सुविधाएँ दी जा रही हैं तो बच्चे को स्कूल भेजने में क्या दिक्कत है? इस अर्थदंड का असर शायद विज्ञापनों, जूलूसों या मध्यान्ह भोजन से ज्यादा पड़ेगा।

 

हमें प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में एक बात पर और विचार करने की जरूरत है वह है पाठ्यक्रम की एकरूपता हमारे देश में कई तरह के स्कूल हैं।परिषदीय विद्यालय, नगरपालिका के स्कूल, मदरसे, कान्वेण्ट, शिशु मंदिर। कान्‍वेंट में भी मिशनरी कान्‍वेंट और गैर मिशनरी कान्‍वेंट और जितनी तरह के स्कूल हैं, उतनी ही तरह के पाठ्यक्रम भी। परिषदीय विद्यालयों में यहाँ की जनसंख्या के बड़े हिस्से से बच्चे जाते हैं।यहाँ की पाठ्य पुस्तकें सरकारी हैं, पढ़ाई का माध्यम हिन्दी।दूसरी ओर प्राइवेट और मिशनरी कान्वेण्ट हैं।यहाँ कक्षा एक से ही बच्चे की पीठ पर भारी-भारी बस्तों का बोझ लाद दिया जाता है। इनकी किताबें अंग्रेजी भाषा में हैं और प्राइवेट प्रकाशकों द्वारा छापी गई हैं।उनकी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हैं।

 

तीसरी तरफ हैं मदरसे, शिशु मंदिर या अन्य स्कूल।इनकी भाषा और पाठ्यक्रम अलग हैं।अब जब पूरे देश के बच्चे शुरू से ही दो-तीन स्तरों पर पढ़ाए जा रहे है तो जाहिर है उनकी सोच भी अलग-अलग तरह की विकसित होगी। ऐसी दशा में सारे बच्चे आगे चलकर कम्पटीशन में, राष्ट्र निर्माण में सामाजिक बदलाव में कहाँ से एक स्तर पर खड़े हो सकेंगे। हमारी सरकार क्यों नहीं पूरे देश में कम से कम जूनियर स्तर तक के पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने की कोशिश करती?

 

प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए अभी जो प्रयास चल रहे हैं उनमें होने वाली गड़बड़ियों, रास्ते में आने वाली रूकावटों को दूर करना तो जरूरी है ही उसके साथ ही यदि हमारी सरकार कम से कम इन दो मुद्दों पर भी विचार करे, पहला बच्चों को स्कूल न भेजकर उनसे काम करवाने वाले अभिभावकों के लिये कोई कठोर कानून बनाना। दूसरे जूनियर स्तर तक के पाठ्यक्रम तथा स्कूलों के स्तर में एकरुपता लाना और इसके संबंध में नियम बनाकर उन्हें लागू भी करें।तो संभवतः प्राथमिक शिक्षा की दिशा मे चल रहे प्रयासों को और सार्थकता मिल सकेगी।

 

(लेखक वतर्मान में शैक्षिक दूरदर्शन केंद्र,लखनऊ में लेक्चरर प्रोडक्शन पद पर कार्यरत हैं)

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