गिरती अर्थव्यवस्था, डावांडोल होती साख

अर्थव्यवस्था के निराशाजनक आंकड़ों के बीच हाल ही में नई दिल्ली की यात्रा पर आए सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सेन लूंग की यह टिप्पणी की निवेश की दृष्टि से भारत एक जोखिम भरा देश है और यहां आर्थिक उदारीकरण जारी रहने पर उन्हें संदेह है, पूरी आर्थिक एवं राजनीतिक नीति पर सवाल खड़ा करती है।

आलोक कुमार राव
भारतीय अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है, इसका अहसास रेटिंग एजेंसियां एसएंडपी, मूडीज एवं फिट्ज पहले ही करा चुकी हैं। अर्थव्यवस्था के निराशाजनक आंकड़ों के बीच हाल ही में नई दिल्ली की यात्रा पर आए सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सेन लूंग की यह टिप्पणी की निवेश की दृष्टि से भारत एक जोखिम भरा देश है और यहां आर्थिक उदारीकरण जारी रहने पर उन्हें संदेह है, पूरी आर्थिक एवं राजनीतिक नीति पर सवाल खड़ा करती है।
यह भी तब, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में विदेशी निवेश का माहौल सुरक्षित रखने का उन्हें भरोसा दिया। मनमोहन सिंह केवल प्रधानमंत्री ही नहीं हैं, वह अर्थशास्त्री भी हैं। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था को लेकर जब कोई बात कहता है तो उसकी बात गंभीरता से सुनी जानी चाहिए। लेकिन मनमोहन सिंह का यह भरोसा भी लूंग को विश्वास में नहीं ले सका। लूंग ने बड़ी साफगोई से कह दिया कि मौजूदा माहौल में सिंगापुर का भारत में निवेश की तस्वीर धुंधली है।
अतिथि के मुंह से अच्छी बातें सुनने को आदी देश को उसका आकलन कड़वा लग सकता है। लूंग की टिप्पणी उन्हीं रेटिंग एजेंसियों की धारणाओं एवं आशंकाओं का समर्थन करती है जिनकी तरफ वे पहले ही आगाह कर चुकी हैं।
लूंग ने भारत को जोखिम भरा देश करार देने के साथ ही यहां आर्थिक उदारीकरण जारी रहने पर शक जताया है। पूर्वी एशिया में भारत के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार सिंगापुर की यह टिप्पणी गंभीर एवं चिंताजनक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर सिंगापुर के प्रधानमंत्री का यह नकारात्मक रवैया हैरान करने वाला नहीं है। जाहिर है कि पिछले समय में हमारी अर्थव्यव्स्था हर आर्थिक मोर्चे पर फिसड्डी साबित हुई है। आर्थिक आंकड़े उत्साहजनक तो छोड़िए संतोषजनक भी नहीं रहे हैं।
अर्थव्यवस्था के सभी पहलू -औद्योगिक उत्पादन, आर्थिक वृद्धि दर, विदेशी निवेश, विदेशी मुद्रा भंडार, डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी, राजकोषीय एवं व्यापार घाटा निराशाजनक रहे हैं।
अर्थव्यवस्था के डांवाडोल होने में भारत की अंदरूनी आर्थिक परिस्थितियां एवं नीतियां भी जिम्मेदार हैं। देश का ऊंचा राजकोषीय घाटा 521980 करोड़ रुपये यानी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.9 फीसदी के बराबर हो गया है। 2011 की चौथी तिमाही में देश का जीडीपी 6.1 फीसदी रहा जो 2008 के बाद से सबसे कम है, वहीं चालू खाता घाटा शुरुआती नौ महीनों में जीडीपी का 4.3 फीसदी रहा। 2011-12 में राजकोषीय घाटा 5.9 फीसदी रहा जो बजट अनुमान 4.6 फीसदी से कहीं ज्यादा है। चालू वित्त वर्ष में यह 5.1 फीसदी रह सकता है।
किसी देश की साख उसके राजनीतिक एवं आर्थिक नेतृत्व पर निर्भर करती है। साख का गिरना नेतृत्व की कमजोरी माना जा सकता है। जानकारों का कहना है कि भारत की साख पर बट्टा लगना का सीधा अर्थ है कि भारत की आर्थिक वृद्धि की कहानी बीते समय की बात हो जाएगी।
अन्य रेटिंग एजेंसी ‘मूडीज’ ने अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली के लिए चुनावी राजनीति को जिम्मेदार ठहराया है। ‘मूडीज’ ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर इस समय राजनीति हावी है और यही वजह है कि यह अपनी वास्तविक क्षमता से कम गति से वृद्धि कर रही है।
मूडीज ने केंद्र सरकार को देश में व्यावसायिक गतिविधियों के मामले में सबसे बड़ी अड़चन बताया। जबकि प्रतिष्ठित पत्रिका ‘टाइम’ ने इस बदहाली के लिए सीधे तौर पर डॉक्टर मनमोहन सिंह को कठघरे में खड़ा कर दिया। सरकार की आर्थिक नीतियों में खामियां उजागर करते हुए पत्रिका ने मनमोहन सिंह को ‘फिसड्डी’ तक करार दे दिया।
जाहिर तौर पर अर्थव्यवस्था में सुधार और उसे पटरी पर लाने के जो मौके और क्षेत्र सरकार के पास हैं, उनमें सरकार बहुत कुछ कर नहीं पा रही है। आर्थिक बुनियाद मजबूत होने के बावजूद सुधार न होने से विकास का पहिया जाम हो गया है। सुधार के रास्ते पर आगे बढ़ने की कोशिश करने वाली सरकार को कभी उसके सहयोगी दल टांग अड़ा देते हैं तो कभी आगामी आम-चुनाव के नफा-नुकसान का गणित उसे बड़े फैसले करने से रोक देता है।
जिन क्षेत्रों से भारतीय अर्थव्यवस्था को उत्स और ताकत मिलनी है, वहां कथित सियासी मजबूरी मजबूती से सुधारों को ठेंगा दिखा रही है।
भूमि सुधार, ईंधन सब्सिडी, श्रम अधिकार, पेंशन और खुदरा क्षेत्र में सुधारों के विधेयक पर अब से अगले आम चुनाव तक किसी प्रगति की उम्मीद दिखाई नहीं देती है।
वर्ष 2014 में देश में आम चुनाव होने हैं, ऐसे में वित्तीय और सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार की दर कम रहने की उम्मीद है।
समस्याओं से निपटने के लिए सरकार को न सिर्फ विदेशी निवेशकों के मन में भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति भरोसा बहाल करना होगा बल्कि आर्थिक नीतियों में सुधार भी करनी होगा।

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