संजय पाण्डेय
राष्ट्रपति चुनाव की किचकिच के बीच एनडीए के घटक दलों जेडीयू और बीजेपी की आपस में हुई झिक-झिक ने राजनीतिक चाट को और मज़ेदार बना दिया। ममता, मुलायम और प्रणब से सारा ध्यान हटा कर नीतिश ने मोदी की ओर मोड़ दिया। 2014 का होने वाला प्रधानमंत्री कौन होगा, किसको होना चाहिए इत्यादि-इत्यादि। धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री के नाम पर बिदके संघ ने हिन्दुत्ववादी प्रधानमंत्री की खुलेआम हिमायत कर दी। मोहन भागवत के मोदी समर्थक कथन ने भगवत गीता के सार जैसा असर किया और दिल्ली से बिहार तक दूसरी तीसरी पंक्ति के बीजेपी नेता नीतीश को आईना दिखाने का मौका ढूंढने लगे। सुषमा जेटली और कभी पीएम इन वेटिंग रहे आडवाणी को समझ ही नहीं आ रहा कि क्या कहें और क्या न कहें, अचानक ही कौन बनेगा प्रधानमंत्री का सवाल कौन बनेगा राष्ट्रपति से कही बड़ा हो गया।
मोदी इस पूरे घटनाक्रम में चुप ही बने रहे अलबत्ता पुरी जा कर भगवान जगन्नाथ का रथ जरूर खींच आये। तथाकथित विकासपुरूष अपना विशुद्ध हिन्दुतत्वादी चेहरा दिखाने का कोई मौका चूकना नहीं चाहता। विकास और हिन्दुत्व शब्दों की ऐतिहासिक ब्रान्डिंग और मार्केटिंग जैसी मोदी ने की है वैसा कोई भी इस देश में नही कर सका। इन दोनों शब्दों में दूर-दूर तक कोई समानता दिखाई नहीं देती लेकिन मोदी केमिस्ट्री कहती है कि सही मात्रा में विकास डालो उसमें आत्मसम्मान का तड़का लगाओ और फिर थोड़ा सा हिन्दुत्व डाल कर मिलाओ, केसरी रंग आने पर भारतीयता की थाली में परोस दो लेकिन ध्यान रखो कि हिन्दुत्व की मात्रा न ज्यादा हो, न कम। कट्टर हिन्दुत्व समर्थकों को ये रेसिपी खूब भाती है। मुसलमान वोट तो वैसे भी बीजेपी की झोली में गिरने से रहे, लेकिन मोदी की रेसिपी में हिन्दुत्व थोड़ा ज्यादा टपक गया तो नरमपंथी भारतीयों के बिदक जाने का खतरा है। वर्षों से अपनी गुजराती लैब में मोदी इस जबर्दस्त फार्मूले को कामयाबी से आजमा रहे है।
इस फार्मूले की धमक राजनीतिक गलियारों में महसूस की जा सकती है सबसे ज्यादा बेचैनी कांग्रेसी कैम्प में है क्योंकि मोदी थोड़े फेरबदल के साथ उसी रेसिपी को नई पैकिंग में बेच रहे है जो सालों से कांग्रेस पका रही थी। यानि विकास, नरम हिन्दुत्व, समाजवाद से बनी रेसिपी को धर्मनिरपेक्षता की पैकिंग में हिन्दुस्तान को परोसना, पर परेशानी यह है कि कभी भी कांग्रेस ने इस खास रेसिपी को पेटेंट कराने की कोशिश नहीं की और अब मोदी ने न केवल थाली बदल दी है बल्कि ज्यादा विकास और हिन्दुत्व की चटनी का वायदा भी किया है। हिन्दुत्ववादी प्रोडक्ट, वोटों की मार्केट में हॉट साबित हो इसके लिए मोदी ने सितम्बर 2011 से ही अहमदाबाद में सद्भावना उपवास नाम से दुकान शुरु कर दी थी। प्रॉडक्ट की इस फायर ब्रान्डिंग ने ही मोदी के विरोधियों की फेहरिस्त लम्बी कर दी है। बीजेपी और कांग्रेस के साथ तमाम दलों के नेता इस लिस्ट में शामिल है। भले ही मोदी ने अपनी चमक बिखेरी हो पर भारतीय राजनीति के छोर पर वो अकेले ही खड़े नजर आते हैं।
आंकड़े साबित करते हैं कि बीजेपी अपना प्रदर्शन सुधार कर ही सत्ता हासिल करसकती है। और जहां तक सवाल एनडीए का है तो वो भी तभी सत्ता सुख भोग सकते है जब बीजेपी जबर्दस्त प्रदर्शन करे। पिछले 21 सालों मे हुए चुनावों मे बीजेपी का वोट प्रतिशत लगभग 18.80 से 25.59 प्रतिशत के बीच झूलता रहा है और लोकसभा में सीटों की संख्या भी 116 से 182 के बीच रही है। 182 के आंकड़े पर बीजेपी ने इस देश को स्थाई सरकार दी है। सत्ता हासिल करने के लिए बीजेपी को कम से कम 180 सीटें तो जीतनी ही होगी। आडवाणी के नेतृत्व में लड़े गये 2009 के चुनाव में बीजेपी 120 सीटे भी नहीं जीत पाई थी। सुषमा और जेटली बिना जनाधार वाले नेता है और गडकरी की राष्ट्रीय नेता की छवि बनने में अभी वक्त लगेगा, मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह जैसे नेता तो रेस में ही नही हैं। बीजेपी को अगर सत्ता की दौड़ में बने रहना है तो उसे मोदी पर दाव लगाना ही होगा। मोदी के अलावा बीजेपी का कोई भी नेता जेडीयू के साथ भी चमत्कारी 272 के आंकड़े के नजदीक नहीं पहुंच सकता।
संघ की मदद से अगर बीजेपी अपने बड़े नेताओं की आंकाक्षाओ पर लगाम लगा सके तो मोदी को प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा सकता है लेकिन ये उनकी वोट बटोरने की काबलियत पर निर्भर करेगा। अगर मोदी लोकसभा मे बीजेपी की संख्या 180-200 तक पहुंचा सके तो उनके प्रधानमन्त्री बनने के आसार सबसे ज्यादा होगें हालांकि ये आसान नहीं है क्योंकि अपने उफान पर भी बीजेपी 182 का आंकड़ा ही छू सकी थी। मोदी और जयललिता की जुगलबन्दी यदि बनी रहती है तो जेडीयू की भरपाई एआईडीएमके 30 सीट जीतकर कर सकता है, शिवसेना और अकालियों ने मिल कर ओर 25-30 सीटें जीत ली तो 272 का चमत्कारी आंकड़ा अचानक ही पहुंच में लगने लगता है। नये बनते समीकरणों से साफ है कि बीजेपी, शिवसेना, अकाली, एआईएडीएमके मिल कर 2014 में सरकार बना सकते हैं। ऐसे में नवीन पटनायक, वाईएसआर कांग्रेस, कुछ छोटी पार्टियां और निर्दलीय भी समर्थन कर सकते है।
मोदी के समर्थन में संघ तो खुलकर आ ही गया है, बीजेपी के भी आज नहीं तो कल मोदी के नाम पर ही मोहर लगा देने की उम्मीद हैं। मोदी अगर प्रधानमन्त्री पद के दावेदार हुए तो कांग्रेस पर भी भारी दबाव बनेगा। मनमोहन सिंह के अभाव में राहुल को कांग्रेस में जिम्मेदारी मिलना बहुप्रतिशित है। हालांकि ये कयास ही है लेकिन 2014 में हिन्दुत्ववादी मोदी और धर्मनिरपेक्ष राहुल नाम के ब्रांड्स के बीच दिलचस्प जंग होगी।
(लेखक ज़ी न्यूज में एक्जीक्यूटीव प्रोड्यूसर हैं)