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पुण्य प्रसून बाजपेयी
यह पहला मौका है जब किसी चुनाव प्रचार के दौरान गांधी परिवार के भीतर की राजनीतिक कश्मकश खुल कर उभर रही है। गांधी परिवार कांग्रेस और चुनावी तौर तरीकों को लेकर नये तरीके से परिभाषा भी गढ़ रहा है और गांधी परिवार के अक्स में कांग्रेस ही नहीं समूची चुनावी बिसात को देखने की उम्मीद भी जगा रहा है। सिर्फ सोनिया या राहुल गांधी नहीं बल्कि प्रियंका गांधी, रॉबर्ट बढेरा के साथ साथ मेनका गांधी औक वरुण गांधी ने भी मोर्चा संभाल रखा है। यानी पहली बार यूपी के लिये गांधी परिवार के छह सदस्य चुनाव प्रचार के लिये मैदान में हैं और इन छह में से कोई भी विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ रहा। फिर भी यह एक नायाब प्रयोग हो रहा है जो कांग्रेस के पहले परिवार के परंपरा को तोड़ भी रहा है और नयी लीक बनाने की जद्दोजहद भी कर रहा है। नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में अगर गांधी-नेहरु परिवार के अक्स में कांग्रेस की सियासत को देखे तो सोनिया गांधी के दौर में बहुत कुछ एकदम अलग नजर आ सकता है।
यह पहला मौका है कि समूचा गांधी परिवार ही चुनावी प्रचार के मैदान में है। यह पहला मौका है कि गांधी परिवार का हर कोई सक्रिय राजनीति में कूदने के लिये आमादा है। और यह भी पहला मौका है कि कांग्रेस के सत्ता होते हुये भी गांधी परिवार का कोई शख्स सीधे सत्ता को भोग नहीं रहा। अगर कांग्रेस के पन्नों को पलटें तो नेहरु के दौर में इंदिरा गांधी ने कभी सक्रिय राजनीति में आने की सोची जरुर लेकिन खुला इजहार कभी नहीं किया। नेहरु के सहायक के तौर पर ही इंदिरा गांधी उनके दफ्तर से देश संभालने तक पहुंची और कांग्रेस दोनों को समझती रही। 1964 में नेहरु के निधन के बाद ही राज्यसभा के जरिए इंदिरा गांधी लालबहादुर शास्त्री के कैबिनेट में शामिल हुई। और उसके बाद 1967 का चुनाव इंदिरा की अगुवाई में कांग्रेस ने लड़ा तो फिर 1984 तक गांधी परिवार का कोई दूसरा शख्स चुनावी राजनीति के जरिए सामने नहीं आया।
संजय गांधी भी सक्रिय राजनीति से इतर एक अपनी लकीर खिंचने में लगे रहे जो इंदिरा गांधी की मुश्किलों को इमरजेन्सी के दिनों में इंदिरा गांधी को हिम्मत दे रहा था। ना इंदिरा गांधी ने चाहा और ना ही संजय गांधी ने इंदिरा के 'औरा' को कम आंका, इसलिये संजय गांधी चुनावी मैदान में नहीं कूदे।
यही हाल राजीव गांधी का रहा जो संजय गांधी की 1980 में आकस्मिक मौत के बाद भी संजय की तर्ज पर राजनीति करने के घेरे से हमेशा बाहर ही रहे। जबकि उस वक्त देश की मानसिकता भी ऐसी थी कि गांधी परिवार और कांग्रेस को चाहने वाले यह मान बैठे थे कि राजीव गांधी को अब सक्रिय राजनीति में आ ही जाना चाहिये। और 1984 में जब इंदिरा गांधी की आकस्मिक मौत हुई तो खुद ब खुद राजीव गांधी को कांग्रेस की कतार में सबसे आगे सभी ने देखा।
इस दौर में कभी गांधी परिवार के किसी शख्स ने यह नहीं कहा कि वह प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहता है। यहां तक कि 1998 में सक्रिय राजनीति में आने के बाद सोनिया गांधी भी प्रधानमंत्री बनने के लिये इतनी उत्साह में थीं कि जब वाजपेयी सरकार गिरी तो समर्थन का आंकड़ा जोड़े बगैर ही सत्ता बनाने के लिये दस्तक दे दी। तब मुलायम ने ही समर्थन झटका और सोनिया गांधी को झटका लगा। लेकिन नया सवाल यह है कि केन्द्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार है लेकिन गांधी परिवार का कोई उसकी सीधी कमान थामे हुये नहीं है। जबकि 2004 में चुनाव के दौरान सोनिया गांधी को ही कांग्रेस ने बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किया था। लेकिन अब बात सोनिया से आगे राहुल गांधी यानी चौथी पीढ़ी की इसलिये है क्योंकि झटके में गांधी परिवार को लेकर देश यह आंकलन कर रहा है कि चुनाव के वक्त किसका औरा ज्यादा असरकारक है। जबकि गांधी परिवार की परंपरा बताती है कि एक वक्त एक ही व्यक्ति की महत्ता या औरा रहा है। लेकिन सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने के बाद जो पहला दांव फेंका वह राहुल गांधी को चुनाव मैदान में उतारना था।
यानी 2004 में गांधी परिवार के दो शख्स सोनिया-राहुल के सक्रिय राजनीति में होने के बावजूद प्रधानमंत्री के पद पर दोनों नहीं बैठे। ध्यान दें तो 2004 से लेकर 2009 के दौरान सोनिया और राहुल की महत्ता मनमोहन सिंह के उसी दांव के वक्त बनी जब जब सरकार पर संकट गहराया। वामपंथियों के समर्थन वापसी से लेकर परमाणु समझौते और खुली बाजार नीतियो से लेकर मंदी के दौर में बैंकों के संकट के मद्देनजर सोनिया गांधी की पहल ने अगर मनमोहन सिंह को राजनीतिक तौर पर बचाया तो राहुल गांधी की पहचान भी इस दौर में युवाओं को राजनीति में आने के लिये प्रेरणा देने और दलित के घर रात बिताने से आगे नहीं जा सकी।
यानी 2009 में जब दोबारा गांधी परिवार प्रधानमंत्री के पद पर बैठ सकता था तो मनमोहन सिंह की अर्थशास्त्री की बेदाग छवि और सरकार के कामकाज की छाव में ही गांधी परिवार के समूचे कामकाज के रहने ने फिर सत्ता से गांधी परिवार को जुड़ने नहीं दिया। और कांग्रेस का इतिहास ही इस दौर में पहली बार बदलता दिखा। क्योंकि जो गांधी परिवार सत्ता से लेकर पार्टी तक पर अपनी लगाम रखता था वही गांधी परिवार सत्ता पर सीधी लगाम तो दूर पार्टी संगठन को भी परिवार के कई हिस्से में बांट कर देखने लगा। और इसकी वजह सोनिया गांधी से इतर कही राहुल गांधी तो कहीं प्रियंका और धंधे में मशगूल कई कांग्रेसियों ने राबर्ट बढेरा की लीक पकड़ी। गांधी परिवार के इसी चौरस्ते ने नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक की परंपरा को उलटा दिया।
सिर्फ केन्द्र ही नहीं राज्यों में भी गांधी परिवार की छांव तले ही कांग्रेसी अपनी उम्मीद भी देखने लगे और कांग्रेसियों की उम्मीद बरकरार रहे इसलिये दिल्ली छोड क्षेत्रीय स्तर के राजनीतिक दलो के साथ भी गांधी परिवार की चौसर उपयोगिता को लेकर बनने-बिगडने लगी। बनी इसलिये क्योंकि कांग्रेस की पहचान ही हर स्तर पर गांधी परिवार में सिमटी। और बिगड़ी इसलिये क्योंकि गांधी परिवार को देश से इतर राज्य स्तर पर कांग्रेस के लिये सियासी दांव खेलने पड़े। इन परिस्थितियों ने गांधी परिवार की चौथी पीढी के सामने नये अंतर्विरोध भी पैदा कर दिये। मसलन कांग्रेस का आस्तित्व गांधी परिवार के बगैर कुछ भी नहीं है और गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस कुछ भी नहीं है, ऐसे में केन्द्र से लेकर राज्य तक में गांधी परिवार का मतलब क्या है अगर वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का पद नहीं संभालता है तो। केन्द्र में मनमोहन सिंह की नीतियां अगर कांग्रेस को राजनीति में मुश्किल खड़ी करती है तो फिर गांधी परिवार के अक्स में किसी भी कांग्रेसी को देखने को मान्यता कितनी दी जाये, यह सवाल कांग्रेस के पारंपरिक वोटरों के जेहन में लगातर गूंज रहा है।
संकट यह भी है कांग्रेस की नेहरुवादी धारा मनमोहन सिंह के दौर में इतनी बदल चुकी है कि गांधी परिवार को लेकर कांग्रेस का पारंपरिक मन भी बदल रहा है। और गांधी परिवार भी मनमोहन सिंह के दौर में धंधे की जमीन और कांग्रेस की सियासी जमीन से तालमेल बैठाने में मुश्किल भी पा रहा है। असर इसी का है अमेठी में प्रचार करते करते राबर्ट बढेरा भी झटके में कह जाते हैं कि अगर जनता ने चाहा तो वह भी चुनाव लड़ने को तैयार है। जाहिर है राबर्ट बढेरा का ऐसा बयान गांधी परिवार के तिलिस्म को तोड़ता भी है और 50 के दशक के गांधी परिवार से 21वी सदी की चौथी पीढी को अलग-थलग भी करता है। पचास के दशक में फिरोज गांधी बकायदा नेहरु से वैचारिक लड़ाई लड़कर रायबरेली से चुनाव लड़ने उतरे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी वाकई गूंगी गुड़िया ही थीं। लेकिन अब राबर्ट बढेरा के बयान के महज नब्बे मिनट बाद ही प्रियंका गांधी सार्वजनिक तौर पर यह कहकर राबर्ट वढेरा को बौना बना देती हैं कि राबर्ट अपने धंधे में खुश हैं। वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। जरुर उन्हें पत्रकारो ने सवालो में उलझा दिया होगा।
लेकिन यहा सवाल राबर्ड से आगे प्रियकां का भी आता है कि वह खुद राजनीति में आने के लिये जितना मचल रही है , उसके पीछे गांधी परिवार के टूटते तिलिस्म में अपने औरे को मापना है या फिर सोनिया-राहुल के राजनीतिक पहल में खुद को जोडकर गांधी परिवार को मजबूती देने की मंशा है। हो जो भी लेकिन यह परिस्थितियां पहली बार गांधी परिवार को सड़क से सियासत करने की ऐसी ट्रेनिंग दे रही हैं, जिससे कांग्रेस मनमोहन सिंह के दौर में चूक गई है। यानी जो सियासत कांग्रेसियों को सड़क से करनी चाहिये थी वही कांग्रेसी 10 जनपथ और राहुल -प्रियकां के ग्लैमर से लेकर राबर्ट के धंधे से ही जोड़कर खुद को कांग्रेसी मनवा भी रहे हैं और कांग्रेस पर मजबूत पकड़ भी बनाये हुये हैं।
असर इसी का है कि यूपी में काग्रेस के संगठन से लेकर उम्मीदवारों को जिताने या उन्हें मंच से पहचान देने के लिये भी गांधी परिवार को ही मशक्कत करनी पड़ रही है। या फिर मेनका गांधी और वरुण गांधी की चुनावी सभा भी गांधी परिवार को निशाने पर लेकर ही महत्ता पा रही है। इसीलिये यूपी की बिसात में गांधी परिवार की चौथी पीढी के सामने संकट खुद के संघर्ष से ज्यादा संघर्ष करने वाले काग्रेसियो को मान्यता देकर खडे करने का है। नहीं तो आने वाले वक्त में समूचा गांधी परिवार ही प्रचार से इतर चुनाव मैदान में ही नजर आएगा। (लेखक के ब्लॉग से साभार)
(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)