वनटांगिया मजदूर भी भारतीय हैं

आज़ाद हिंदुस्तान के एक हिस्से में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका अपना कोई वजूद नहीं है। सरकारी कागजातों में उनकी कोई पहचान कहीं भी दर्ज नहीं है, जबकि ये लोग हमेशा से भारत के निवासी हैं और कई दशक तक प्रशासन इनसे काम लेता रहा है। इन्होंने आज तक चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लिया क्योंकि इनके पास वोटर आई कार्ड नहीं है। जब सरकारी कागजातों में कोई पहचान दर्ज नहीं है तो वोटर आई कार्ड, राशन कार्ड और जॉब कार्ड जैसे चीजों का तो सवाल ही नहीं उठता।

रंजना ठाकुर
आज़ाद हिंदुस्तान के एक हिस्से में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका अपना कोई वजूद नहीं है। सरकारी कागजातों में उनकी कोई पहचान कहीं भी दर्ज नहीं है, जबकि ये लोग हमेशा से भारत के निवासी हैं और कई दशक तक प्रशासन इनसे काम लेता रहा है। इन्होंने आज तक चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लिया क्योंकि इनके पास वोटर आई कार्ड नहीं है। जब सरकारी कागजातों में कोई पहचान दर्ज नहीं है तो वोटर आई कार्ड, राशन कार्ड और जॉब कार्ड जैसे चीजों का तो सवाल ही नहीं उठता।
ये हकीकत है गोरखपुर- महाराजगंज के जंगली इलाकों में रहने वाले वनटांगिया मजदूरों की। इन्हें वनटांगिया मजदूर इसीलिए कहा जाता है क्योंकि किसी वक्त में टांगिया पद्धति से जंगल उगाया करते थे। इसकी शुरुआत 1918 में हुई थी। भारत में रेलवे का विस्तार किया जा रहा था और पटरियां बिछाने के लिए साखू की लकड़ियों की बड़े पैमाने पर ज़रूरत पड़ने लगी। नतीजा ये हुआ कि साखू के जंगल साफ होने लगे। उस वक्त अंग्रेजी हुकूमत ने बड़े पैमाने पर साल या साखू के जंगल लगाने का फैसला किया और इसके लिए अंग्रेजों ने बर्मा की टांगिया पद्धति अपनाई। उस वक्त वन विभाग के कुछ अधिकारी बर्मा गए और वहां जाकर खेती करने की टांगिया पद्धति सीखी। वापस भारत आकर उन्होंने गरीब और मजदूर तबके के लोगों को टांगिया पद्धति का प्रशिक्षण दिया और भारी तादाद में कामगारों को जंगल उगाने में लगा दिया। टांगिया पद्धति से वन उगाने वाले इन मजदूरों को नया नाम मिला वनटांगिया ।
टांगिया पद्धति में मजदूरों का जत्था बनाकर अलग-अलग स्थानों पर अस्थाई रूप से बसाया जाता था। वनटांगिया मजदूरों के एक जत्थे के हिस्से में 30 हेक्टेयर ज़मीन आती थी और पांच साल तक मजदूरों को इसी जमीन पर काम करना होता था। जून-जुलाई के महीने में वन विभाग ज़मीन की प्लॉटिंग करता था, मजदूर इन ज़मीनों पर साखू के पौधे लगाया करते थे। पौधे लगाने के बाद उन्हें पौधों की पांच साल तक देखभाल करनी होती थी। इसके लिए मजदूर उस प्लॉट के आस-पास ही रहते थे। पौधों के बीच की ज़मीन वनटांगिया मजदूरों को खेती के लिए मिलती थी। इसमें भी उन्हें एक ही फसल लगाने की इजाज़त मिलती थी। बस्ती से कोसों दूर इनके पास कोई सुविधाएं नहीं होती थीं। इन्हें जानवरों से अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा करनी होती थी और फसल के रखरखाव की जिम्मेदारी भी इन्हीं की होती थी। पांच साल में जब साखू के पौधे मौसमी हालात का सामना करने के लिए तैयार हो जाते थे तब वनटांगिया मजदूरों को नई ज़मीनों पर नए सिलसिले की शुरुआत के लिए भेज दिया जाता था। फिर अगले पांच साल तक के लिए ये मजदूर किसी एक ज़मीन के टुक़डे से बंध जाते थे। ये एक तरह की बंधुआ मजदूरी थी।
आज़ादी के बाद देश के बाकी हिस्सों में वनटांगिया मजदूरी लगभग खत्म हो गई लेकिन उत्तर प्रदेश के तराई इलाकों में ये सिलसिला 80 के दशक की शुरुआत तक चलता रहा। इस दौरान वन विभाग और वनटांगिया मजदूरों के बीच संघर्ष की शुरुआत हो गई। वन विभाग चाहता था कि वन टांगिया जंगल से निकलकर बाहर चले जाएं लेकिन दशकों से जंगलों में रहते आए वन टांगियां मजदूरों के लिए ये बात समझ से बाहर थी। अभी तक जंगल ही इनकी दुनिया थी और इन्होंने अपनी जिंदगी में कभी भी खेती के अलावा कुछ नहीं किया था। ऐसे में जंगल के बाहर की दुनिया इनकी समझ से परे थी। वन विभाग से तनातनी बढ़ी तो साखू के पेड़ लगाने का काम दिहाड़ी मजदूरों को दिया जाने लगा। वन विभाग ने वनटांगिया मजदूरों से समझौते पर अंगूठे के निशान लेना शुरू कर दिया। समझौते में लिखा गया था कि वनटांगिया अपनी मर्जी से जंगल में आए हैं और वन विभाग जब चाहे इन्हें जंगल से निकाल सकता है। ज्यादातर अनपढ़ वनटांगिया मजदूरों ने इस समझौते पर अंगूठा लगा भी दिया लेकिन कुछ पढ़े लिखे मजदूर इसका विरोध करने लगे। गोरखपुर के जंगलों में रहने वाले वनटांगिया मजदूरों के मुताबिक उन्हें इस विरोध का खामियाजा भुगतना पड़ता था। उनके घर जला दिए जाते थे, फसलों को आग लगा दी जाती थी। 1985 में ये मामला सुर्खियों में आ गया जब वन विभाग के अधिकारियों ने गोरखपुर के तिलकुनियां बस्ती के खेतों में काम कर रहे वन टांगिया मजदूरों पर फायरिंग कर दी। इसमें दो वन टांगिया मजदूरों की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए। मामला अदालत पहुंचा आरोपी अधिकारियों को सज़ा मिली और वनटांगिया मजदूरों को ज़मीन से बेदखल करने की प्रक्रिया पर स्टे लग गया। इससे वनटांगिया मजदूरों को फौरी राहत तो मिल गई लेकिन उनकी जिंदगी जैसे वहीं रुक गई।
गोरखपुर और महाराजगंज से लगे जंगलों में रहने वाले वनटांगिया मजदूरों की आबादी करीब 27 हज़ार है। गोरखपुर में इनके 5 और महाराजगंज में 23 गांव हैं। इन गांवों में वन टांगिया मजदूरों के तकरीबन 4, 570 परिवार रहते हैं। ये लोग कई साल से यहीं बसे हुए हैं, लेकिन आज तक इनके गांवों को राजस्व गांव घोषित नहीं किया गया है। इसका मतलब है सरकार इनके गांवों को गांव नहीं मानती, लिहाजा विकास के लिए जो भी सरकारी योजनाएं बनती हैं, उससे वनटांगिया मजदूरों के गांव अछूते रह जाते हैं। ऐसे में आज़ादी के 6 दशक से ज्यादा बीत जाने के बाद भी ये मजदूर विकास की हर रोशनी से दूर हैं। देश-प्रदेश में चुनाव होते हैं लेकिन इनके इलाकों में कभी पोलिंग बूथ नहीं बनते। वनटांगिया मजदूरों ने आज तक अपने वोट के अधिकार का इस्तेमाल हीं नहीं किया क्योंकि इनके पास वोटर आई कार्ड नहीं है। अब ये सवाल उठाने लगे हैं कि जब बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को भारतीय होने का दर्जा मिल सकता है तो उन्हें क्यों नहीं ?
कुछ सामाजिक संगठनों की कोशिश और वनटांगिया मजदूरों की तरफ से लगातार मांग के बाद अब सरकार ने इनकी मदद की पहल जरूर की है। इन्हें जमीन के पट्टे दिए जाने लगे हैं लेकिन वो नाकाफी हैं। इनकी सबसे बड़ी मांग है कि इनके गांवों को राजस्व गांव का दर्जा दिया जाए ताकि इनका विकास हो सके और इन्हें मूलभूत सुविधाएं मिल सकें। इनके पास भी राशन कार्ड हो, रोजगार मिले, इनके बच्चे पढ़ लिख सकें। ये खुद को भारतीय कह सकें और इनका भी एक पता हो। इन्हें पीने का साफ पानी मिले, ये अपना ग्राम प्रधान चुन सकें, इनके गावों में स्कूल हो और इनके बच्चे पढ़-लिख कर सरकारी नौकरियों में जा सकें। हालांकि प्रशासन अभी तक इन गांवों को राजस्व गांव का दर्जा दिए जाने का सिर्फ प्रस्ताव तैयार कर पाई है।
किसी भी तरह के सरकारी मदद के अभाव में वनटांगिया आदिवासी आज भी काफी पिछड़े हुए हैं। वनटांगिया देसी शराब बनाकर, लकड़ियां बेचकर और शहरों में मजदूरी कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। गरीबी और भुखमरी झेल रहे वनटांगिया कई बार शराब माफियाओं के शोषण का शिकार भी हो जाते हैं। शराब माफिया कच्ची शराब बनाने में इनसे मजदूरों की तरह काम लेते हैं लेकिन इन्हें वाजिब मजदूरी तक नहीं मिलती। ऐसे में जानकार इस बात की आशंका से भी इनकार नहीं करते कि अगर ये लगातार इसी बदहाली में जीते रहे तो असामाजिक तत्व इन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल करने लगेंगे। इतिहास गवाह है कि ऐसे ही पिछड़े और अपने हक़ से बेदखल कर दिए गए लोग ही समाज के लिए खतरा बन जाते हैं, तो क्या सरकार ऐसी ही किसी घटना का इंतजार कर रही है, या फिर अब इन वनटांगिया आदिवासियों का इंतजार खत्म होगा?

(लेखक ज़ी न्यूज़ उत्तर प्रदेश में सीनियर प्रोड्यूसर हैं)

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