प्रवीण कुमार
दिल्ली में में 23 वर्षीय छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद मौत के मामले में इंसाफ की मांग को लेकर उपजे जन आक्रोश को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। न तो सरकार के स्तर पर और न ही समाज के स्तर पर। एक तरफ जहां समाज को प्रतिबद्धता के साथ इस लड़ाई को आगे बढ़ानी होगी, वहीं सरकार के स्तर पर कुछ ऐसे उपाय ईजाद करने होंगे ताकि गैंगरेप जैसे हालात पैदा ही न हों। अगर सरकार को लगता है कि देश में वाकई महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं है तो संसद का विशेष सत्र बुलाकर महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर एक सख्त कानून बनाया जाना चाहिए साथ ही दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को फांसी की सजा मुकर्रर किया जाना चाहिए।
मैं मानता हूं कि आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ देश में राजनीतिक उदारीकरण और पितृ सत्तात्मक भारतीय समाज का उदारीकरण भी होना जरूरी था जो नहीं हो पाया, लेकिन इसके साथ ही खासकर महिलाओं से जुड़े अपराध से संबंधित जो आदम जमाने के कानून की जिस छाया में हम जी रहे हैं उसे भी बदलने की सख्त जरूरत है। देश में आर्थिक उदारीकरण के जनक और हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पता नहीं क्यों भूल गए कि देश, समाज, सरकार और कानून-व्यवस्था का उदारीकरण किए बिना आर्थिक उदारीकरण कभी सफल नहीं हो पाता है। दुर्भाग्य से हमारा देश कुछ ऐसे ही हालात में जी रहा है और इसका दुष्परिणाम हत्या, लूट, डाका, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, अपहरण आदि के रूप में सामने आ रहा है।
दरअसल इस तरह के अपराध को अंजाम देने वाला शख्स आर्थिक उदारीकरण के बाद की पीढ़ी है जिसकी सोच तो भौतिकवादी है लेकिन वह चारों तरफ से पुरातन समाज के कायदे- कानून और सामाजिक ताने-बाने में इस तरह से जकड़ा हुआ है कि इन दोनों के बीच वह संतुलन नहीं बिठा पाता जिससे हादसे हो जाते हैं। निश्चित रूप से जिन युवा प्रजाति के लड़कों ने इस जघन्य सामूहिक बलात्कार को अंजाम दिया, इसके पीछे कोई सोची समझी रणनीति नहीं रही होगी। जहां तक मैं समझ रहा हूं, बस के अंदर दुर्भाग्य से कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी होगी (मसलन दोनों पक्षों में किसी बात को लेकर विवाद आदि) कि नशे में धुत्त आवारा किस्म के लड़कों ने इस जघन्य घटना को अंजाम दे दिया। लेकिन इतना तो तय है कि एक तो ये लड़के शराब के नशे में धुत्त थे और दूसरा ये कि इनको पुलिस और कानून का भय नहीं रहा होगा। ये सब कुछ क्यों हुआ और कैसे हुआ यह पुलिस जांच का विषय है लेकिन जो कुछ हुआ इससे वीभत्स घटना की कल्पना नहीं की जा सकती और इसमें आरोपियों को जो भी सजा मुकर्रर की जाएगी वो कम होगी। सजा होगी और सख्त से सख्त सजा होगी यह भी तय मानिए क्यों कि इस घटना की प्रतिक्रिया पूरे देश में जिस तरह से सामने आई वह भी कल्पना से परे है। लेकिन हम सबको मिलकर इस सूरत को बदलनी होगी वरना देश, समाज और सरकार उसी ढर्रे पर चलता रहेगा कि घटना घटी, हंगामा हुआ, सरकार की तरफ से सजा का ऐलान कर दिया गया और फिर वही मरघट की शांति।
महिलाएं भारतीय समाज में एक बेहतर जिंदगी कैसे जीएं, इसको लेकर आज पूरे देश में बड़ी-बड़ी बहस छिड़ी हुई है। कोई कह रहा है महिला अपराध से संबंधित मामलों की सुनवाई को फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाया जाए, कोई कहता है महिला अपराध रोकने से संबंधित कानून को बदला जाए तो कोई कहता है कि पुलिस को सुधारा जाए। इस बात पर कोई बहस नहीं हो रही कि कुछ ऐसे उपाय क्यों नहीं ईजाद किए जाएं कि पुलिस, थाना और कचहरी तक पहुंचने की नौबत ही न आने पाए। मेरा मानना है कि इसके लिए हमें समस्या की जड़ में जाना चाहिए और समाधान के रास्ते वहीं से निकालने चाहिए। जहां तक मेरा चिंतन कहता है, हमें सबसे पहले सामाजिक उदारीकरण का रास्ता तैयार करना पड़ेगा। जाहिर है यह बड़ा सवाल सबके मन में होगा कि यह सामाजिक उदारीकरण क्या बला है?
सामाजिक उदारीकरण कहिए या समाज सुधार, यह शब्द कोई अमेरिका से आयात नहीं किया गया है। सदियों से समय-समय पर भारतीय संस्कृति में सामाजिक सुधारीकरण की दिशा में काम होता रहा है और एक बार फिर इसकी जरूरत आ पड़ी है क्यों कि हमारे देश के कुछ नीति निर्माताओं ने पश्चिमी देशों के दबाव में आर्थिक उदारीकरण का जो जाल देश में फैला दिया है उससे संतुलन बिठाने के लिए सामाजिक उदारीकरण जरूरी हो गया है। एक आम आदमी की भाषा में अगर इसे परिभाषित करना हो तो इसे यूं कहें कि समाज का हर व्यक्ति चाहे वह महिला हो या पुरुष, सबकी तरक्की कैसे हो इस बारे में सहज भाव से सोचे, समझे और मदद को तत्पर रहे। अपनी बेटी और पड़ोसी की बेटी का फर्क मिटाना होगा, बेटी और बहू का भेद मिटाना होगा, लड़का और लड़की का भेद भी मिटाना होगा, जात-पांत, धर्म-संप्रदाय में दूरियां खत्म करनी होगी। ये सारी चीजें सामाजिक उदारीकरण के दायरे में आती है और जिस दिन हम अपने देश में सामाजिक उदारीकरण के पेड़ को उगा लिए समझिए समाज की किसी महिला के खिलाफ अपराध नहीं होगा।
अब हम आगे चलते हैं। सामाजिक उदारीकरण एक लंबी प्रक्रिया है जो एक दिन में नहीं आने वाली। इसपर हमें सतत और समयबद्ध तरीके से काम करना होगा, लेकिन इसके साथ जो तत्काल प्रभाव से एक काम करना चाहिए और जो संभव भी है वो है देश के सभी राज्यों में शराबबंदी कानून लागू करने का। कहते हैं कि पूरे देश में गुजरात एक ऐसा राज्य है जहां यह कानून लागू है। मेरा मानना है कि गुजरात की तर्ज पर इसे सभी राज्यों में लागू किया जाना चाहिए और अगर सरकार इस दिशा में आगे नहीं बढ़ती है तो इसके लिए जन आंदोलन छेड़ा जा सकता है।
मेरा मानना है और इसमें कोई दो राय भी नहीं है कि समाज में तमाम अपराधों की जड़ में शराब होता है। खासकर महिलाओं के खिलाफ अपराध में शराब की भूमिका सबसे अधिक होती है। अगर लोग शराब न पीएं तो महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा, बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, मारपीट आदि के साथ-साथ सड़क हादसों में भी काफी कमी आएगी और लोगों की आर्थिक संपन्नता भी बढ़ेगी। शराब के खिलाफ अभियान सामाजिक उदारीकरण को लागू करने में काफी सहायक होगा और भरोसे के साथ हम कह सकते हैं कि दिल्ली गैंगरेप जैसी वीभत्स घटनाओं की आशंकाओं को जड़ से मिटाया जा सकता है।
इस सबके बावजूद अगर महिलाओं के खिलाफ अपराध का कोई मामला सामने आता है जो एक सोची समझी रणनीति या साजिश का हिस्सा होता है तो उसके लिए महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित जो कानून सदियों से देश में चले आ रहे हैं उसमें संशोधन किया जा सकता है और पुलिस को आधुनिक तौर तरीकों से कुछ इस तरह से प्रशिक्षित किया जाए ताकि कोई भी पीड़ित लड़की जब थाने में शिकायत दर्ज कराने जाए तो उसे अपने घर जैसा अहसास हो। मेरा मानना है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध चाहे वह छेड़खानी हो, घरेलू हिंसा हो, अपहरण हो, बलात्कार हो या फिर सामूहिक बलात्कार, तीन साल की गैरजमानती सजा से लेकर फांसी तक की सजा का प्रावधान होना चाहिए।
जाहिर सी बात है कि यह सब राजनीतिक इच्चाशक्ति के बिना संभव नहीं है। अमेरिका के कहने पर अगर देश में परमाणु समझौता के लिए संसद में खास बहस हो सकती है, मल्टी ब्रांड रिटेल सेक्टर में प्रत्य़क्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) के लिए बहस हो सकती है, तो देश की महिलाओं की मुकम्मल सुरक्षा की बातचीत के लिए संसद क्यों नहीं बैठ सकती? देश की जनता चाहती है कि संसद समयबद्ध तरीके से व्यवस्था में सुधार के लिए एक कारगर कानून बनाए, यही रास्ता है। यानी संसद या विधायिका या विधानमंडल की यह संवैधानिक और नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि जनता के प्रति, जनता के लिए और जनता के हित में एक ऐसा कानून बनाए जो अपराधियों के दिलो-दिमाग में खौफ पैदा कर सके। यह जरूरी इसलिए भी है क्यों कि दिल्ली गैंगरेप की घटना ने पूरी दुनिया में भारत की छवि को खराब किया है। इस घटना को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार ने लिखा, `भारत का अपराध संबंधी न्याय तंत्र अयोग्यता, भ्रष्टाचार व राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार है। ऐसा लगता है कि यह प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया देने में सक्षम नहीं है। सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि पिछले 40 वर्षों में दुष्कर्म की घटनाओं में करीब 875 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 1971 में दुष्कर्म की 2487 घटनाएं हुई थीं। 2011 में ऐसी 24206 घटनाएं हुईं हैं।
बहरहाल, भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी पहचान बनानी है तो देश की सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को अपनी दैहिक भाषा बदलनी होगी। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हमारी भी तीन बेटियां हैं और गैंगरेप की इस घटना को लेकर हमें दुख है। देश के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तो गजब ही कर दिया। उनकी नजर में गैंगरेप केस में इंसाफ मांग रहे युवा लड़के-लड़कियों और माओवादियों में कोई फर्क ही नजर नहीं आया। इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर इंसाफ की मांग कर रहे युवाओं से मिलने के सवाल पर गृहमंत्री ने यहां तक कह दिया कि कल को अगर माओवादी हथियारों के साथ प्रदर्शन करने लगें तो क्या मैं वहां भी जाऊंगा’? शिंदे ने कहा कि वो महिलाओं के खिलाफ बढ़ती रेप की घटनाओं का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों से नहीं मिलेंगे। शिंदे ने यह भी कहा कि रेप कानून में संशोधन पर संसद का विशेष सत्र बुलाने की भी जरूरत नहीं है। इतने से साफ है कि जिस सरकार में सुशील कुमार शिंदे जैसे गृह मंत्री बैठे हो, न्याय की उम्मीद बेमानी ही होगी। इसलिए हमें राजनीतिक उदारीकरण या राजनीतिक सुधार की भी बात करनी होगी। भले ही इसके लिए आजादी की एक और लड़ाई क्यों न लड़नी पड़े। देश की जनता को जन नेता चाहिए राजनेता नहीं।
भारतीय राजनीति
सामाजिक व राजनीतिक बदलाव का वक्त
आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ देश में राजनीतिक उदारीकरण और पितृ सत्तात्मक भारतीय समाज का उदारीकरण भी होना जरूरी था जो नहीं हो पाया। अब वक्त आ गया है, भारतीय समाज व देश की राजनीति में सकारात्मक सोच के साथ सुधार की तरफ कदम बढ़ाया जाए।
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