शिवनगरी में हर किसी को मोक्ष की कामना

काशी शहर जिसकी जड़ें खुद इतिहास भी नहीं समेट सकता , जो परंपराओं से भी प्राचीन है...जो महागाथाओं से भी परे है.. जटाधारी बाबा शिव की इस नगरी काशी के एक बेहद भीड़भाड़ भरे इलाके में, एक कोने में एक अनोखी इमारत है जिसके कमरे ‘मौत के लिए आरक्षित’ हैं।

वाराणसी : काशी शहर जिसकी जड़ें खुद इतिहास भी नहीं समेट सकता , जो परंपराओं से भी प्राचीन है...जो महागाथाओं से भी परे है.. जटाधारी बाबा शिव की इस नगरी काशी के एक बेहद भीड़भाड़ भरे इलाके में, एक कोने में एक अनोखी इमारत है जिसके कमरे ‘मौत के लिए आरक्षित’ हैं। इस दो मंजिला इमारत ‘काशी लाभ मुक्ति भवन’ में ऐसे बुजुर्ग डेरा डाले हुए हैं जो आध्यात्मिक मुक्ति की तलाश में अपनी जिंदगी के अंतिम दिन यहां बिताना चाहते हैं।
इस मंदिरनुमा इमारत के दस कमरों में से एक कमरे में 85 वर्षीय शांति देवी एक चादर में लिपटी लेटी हुई हैं। उनके कोने वाले कमरे में अगरबत्तियों की खुशबू तैर रही है। यह कमरा इसी परिसर के भीतर एक छोटे से मंदिर के पास है जहां सुबह और शाम के समय चहल पहल कुछ अधिक बढ़ जाती है।
बिहार के नेवादा से यहां लायी गयीं देवी अपने कमरे की खिड़की के समीप लेटी अधिकतर समय मंत्रों का जाप करती रहती हैं। यहां हर मरीज के साथ एक पुजारी है। देवी का पुजारी भी नियमित रूप से उनका हालचाल जानने उनके पास आता रहता है।
देवी के मुंह में दांत नहीं बचे हैं और वह बमुश्किल ही बोल पाती हैं। वह कहती हैं, हर घड़ी बीतने के साथ मैं बेचैन होती जाती हूं। मुझे मोक्ष हासिल करने में मदद की खातिर मेरे परिवार के लोग यहां हैं और मैं उन्हें निराश नहीं करना चाहती। मुझे पता है कि काशी नगरी मुझे शांति से अपने अंदर समाहित कर लेगी।
डालमिया चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा 1958 में स्थापित इस भवन में मोक्ष प्राप्ति के लिए आने वाले लोगों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता। इस भवन में रहने से लेकर , रोजाना के रीति रिवाज और यहां तक कि ‘देह से आत्मा के मुक्त होने के बाद’ अंतिम संस्कार तक का खर्चा ट्रस्ट द्वारा वहन किया जाता है।
भवन के प्रबंधक भैरव नाथ शुक्ला कहते हैं, यह एक पवित्र स्थान है और पैसा लेने का मतलब है कि हम एक कारोबार कर रहे हैं। हम इस प्रकार का ठप्पा नहीं लगवाना चाहते। हमारा ट्रस्ट भोजन से लेकर सभी रीति रिवाजों का खर्चा उठाता है क्योंकि हम आध्यात्मिक संतोष उपलब्ध कराने में विश्वास रखते हैं। शुक्ला इसके साथ ही कहते हैं, न केवल भारत से बल्कि इंग्लैंड, जापान और मारीशस तक से श्रद्धालु मोक्ष की अवधारणा को समझने के लिए हमारे यहां समय बिताते हैं।
वाराणसी ‘भारत की धार्मिक राजधानी’ के रूप में मशहूर है जहां हजारों लोग विभिन्न आध्यात्मिक मकसदों को लेकर आते हैं। कुछ अंतिम संस्कार के लिए आते हैं, कुछ अपने नवजात शिशुओं के जन्म संस्कार के आते हैं तो कुछ शांति से मृत्यु को पाने के लिए। शुक्ला कहते हैं, जो लोग मरने वाले हैं या मृत्युशैय्या पर हैं और ‘मोक्ष’ में यकीन रखते हैं वे आध्यात्मिक संतोष के लिए यहां आते हैं। और काशी ऐसी जगह है जहां मोक्ष हासिल करना आसान है। वह बताते हैं, यह आध्यात्मिक भवन पिछले 45 सालों से बुजुर्ग लोगों की सेवा कर रहा है।
किसी व्यक्ति को यहां कमरा देने से पूर्व पुजारी उसके स्वास्थ्य और उसकी बची हुई सांसों का हिसाब किताब लगाते हैं। यदि मरीज 15 से 20 दिन में नहीं मरता है और कई दिनों के ‘यज्ञ ’ तथा ‘तपस्या’ के बावजूद आत्मा शरीर नहीं छोड़ती है तो रिहायश की इस अवधि को कुछ दिनों के लिए बढ़ा दिया जाता है ।
प्रबंधक शुक्ला बताते हैं, हमारे अधिकतर मामलों में, मरीज मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अभी तक ऐसा एक बार भी नहीं हुआ है कि मरीज को वापस लौटना पड़ा हो। शांति देवी के बारे में वह कहते हैं कि यदि इस उम्र में भी वह मोक्ष हासिल करने में विफल रहती हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। अभी उनके पास 15 दिन का समय और है।
उनके परिवार के सदस्यों का कहना है कि यह ‘जिंदगी या मौत’ का मामला नहीं है बल्कि उन्हें वह हासिल होना चाहिए जिसके लिए वह आयी हैं।
देवी के पुत्र कहते हैं, मैं चाहता हूं कि मेरी मां को वह हासिल हो जिसके लिए वह यहां आयी हैं । मैं चाहता हूं कि उनकी यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो, फिर चाहे कितना ही समय क्यों न लग जाए। भवन से कोई आधा किलोमीटर दूर , गंगा नदी के किनारे वाराणसी का सबसे अधिक पवित्र माना जाने वाला प्रमुख घाट है। इसे मणिकर्णिका घाट कहा जाता है।
घाट पर मौजूद एक पुजारी बताते हैं कि जब आत्मा नश्वर शरीर को त्याग देती है तो देह को हिंदू परंपरा के अनुसार बांस की खप्पचियों से बनी एक चारपाई पर सफेद कपड़े में कस कर लपेट दिया जाता है। इस चारपाई को अर्थी कहा जाता है।
पुजारी ने बताया कि हर साल इस घाट पर करीब 32 हजार शवों का अंतिम संस्कार किया जाता है। उन्होंने बताया, पहले यहां महिलाओं को अंतिम संस्कार को देखने या उसमें भाग लेने की अनुमति नहीं थी। लेकिन अब यहां महिलाएं भी दिखने लगी हैं। शुक्ला महसूस करते हैं कि इस स्थान को लेकर कुछ भी डरावना नहीं है। इसके बजाय इस भवन को मोक्ष की ओर जाने वाले मार्ग के रूप में देखा जाना चाहिए।
वह कहते हैं, अधिकांश पर्यटक यहां इस स्थान की प्रकृति को देखने समझने के लिए आते हैं। क्योंकि इस स्थान का अनोखापन उन्हें आकषिर्त करता है। वह महसूस करते हैं कि मोक्ष की प्रक्रिया को इस प्रकार देखा जाना चाहिए कि जिस प्रकार हम वस्त्र बदलते हैं, उसी प्रकार अजर अमर आत्मा देह बदलती है।
(एजेंसी)

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