‘मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा, जो अब घिसकर कुर्सी बन गया था. दरोगा जी उस पर बैठे भी थे और लेटे भी थे.’’ यह उस किताब की शुरुआत में थाने में रखी कुर्सी का वर्णन है, जिस किताब का नाम है-‘रागदरबारी.’ इस उद्धरण से कुछ-कुछ इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि यह किताब, जिसे उपन्यास कहा जाता है, किस विषय के बारे में होगी. साथ ही यह भी कि उस उपन्यास की शैली क्या होगी.


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श्रीलाल शुक्ल के इस व्यंग्य उपन्यास की 1968 में छपने के बाद से ही कुछ ऐसी वाहवाही हुई कि हिंदी जगत से काफी कुछ मोहब्बत सी होने लगी. कोई रचना, और वह भी अपेक्षाकृत मोटी रचना, जिसके नाम में साहित्यिक संस्कार शामिल हो, लोकप्रियता के इतने ऊंचे प्रतिमान स्थापित करेगी, यकीन नहीं होता. अगले ही साल इसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया और कुछ सालों के बाद इसे अलग-अलग विश्वविद्यालयों के हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में जगह मिल गई. बाद में गिरीश रस्तोगी जैसे नाटककार ने ‘रंगनाथ की वापसी’ नाम से इस पर नाटक भी खेला.


सन् 2018 में इस उपन्यास ने अपना अर्द्धशतक पूरा कर लिया है. जिस तेजी से समाज में बदलाव हो रहे हैं, उसके आधार पर तो इस उपन्यास को अब पुराना मानकर साहित्य के हाशिये पर डाल दिया जाना चाहिए था. लेकिन बल्कि इसकी ताजगी और इसका टटकापन कुछ इस तरह बना हुआ है कि साहित्य जगत बड़ी शान के साथ इसकी स्वर्ण जयंती मना रहा है. तो आखिर ऐसा क्या है, इस उपन्यास में?


एक देशज आधुनिक कवि का अवसान


दरअसल, यदि इस उपन्यास का मूल्यांकन साहित्यिक प्रतिमानों पर करें, तो समीक्षकों के हाथ विशेष कुछ नहीं लगेगा. यह उपन्यास एक प्रकार से रिर्पोताज जैसी शैली में लिखा हुआ जान पड़ता है. इसमें जिस प्रकार से शिवपालगंज नाम के गांव को रचा-गढ़ा गया है, उसे देखते हुए इसे एक यथास्थितिवादी पुस्तक कहा जाना गलत नहीं होगा. आजादी के 17 साल के बाद के उत्तरप्रदेश के एक गांव का जो खांचा श्रीलाल शुक्ल ने खींचा है, वह पाठक के मन को प्रसन्नता से नहीं भरता. इसके बाद भी इस उपन्यास को बार पढ़ने से अपने-आपको रोकना थोड़ा कठिन हो जाता है. यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है. इसमें रंगनाथ नाम का शहर में रहने वाला एक युवक शोध करने की दृष्टि से अपने चाचा के घर गोपालगंज आता है. चाचा, जिनका नाम वैद्य जी है, एक राजनेता है और यहीं से आजाद हिन्दुस्तान के वर्तमान की कथा की शुरुआत हो जाती है. 


इस गांव में तीन मुख्य संस्थाएं हैं. इनमें एक है-गांव का इंटर कॉलेज, दूसरा है गांव की पंचायत और तीसरी है- को-ऑपरेटिव सोसायटी. वैसे देखा जाए, तो ये तीनों संस्थाएं न केवल किसी भी भारतीय गांव के सबसे प्रमुख संस्थाएं ही हैं, बल्कि ये हमारे देश की लोकतंत्र की नर्सरियां भी हैं. लेकिन इनमें जो होता है, वह पाठक को विस्मृत कर देता है. इन तीनों संस्थाओं में चुनाव जीतने के तिकड़म, अपने-अपने आदमी फिट करने की अलग-अलग तरकीबें और सीना तानकर धड़ल्ले से गबन करने का जो साहस दिखाया जाता है, वह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर खुलेआम प्रश्नचिन्ह लगाता है.


पूरे के पूरे उपन्यास में गांव के माध्यम से न केवल भारतीय समाज ही, बल्कि पूरे देश की जड़ता, मूर्खता, पाखंड, मूल्यहीनता, अवसरवादिता, तानाशाही, भ्रष्टाचार, सरकारी दफ्तरों की काहिली, नेताओं का ओछापन, गांव की घटिया राजनीति तथा लोगों की आपसी खींचातानी की जो तस्वीर मिलती है, उसे आज भी ज्यों का त्यों, बल्कि यूं कहें कि उससे भी अधिक विकृत रूप में देखा और महसूस किया जा सकता है. और यही इस उपन्यास के अभी भी प्रासंगिक बने रहने का एकमात्र कारण भी है.


मार्क्सवादियों का सूरज क्यों ढला


यदि हम इस उपन्यास के 1968 के काल को आजादी के बाद के लगभग 20 वर्षों के मोहभंग का काल मान लें, तो उपन्यास के बाद के 50 वर्षों का दौर महामोहभंग का दौर जान पड़ता है. सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों का उदारीकरण भी 'रागदरबारी' के सूरते हाल में कोई बहुत अधिक तब्दीली लाने में निकम्मा साबित हुआ है.


यहां यह बात गौर करने की है कि इसके लेखक श्रीलाल शुक्ल स्वयं में एक प्रशासनिक अधिकारी रहे थे. गांव के इस जीवन को न केवल उन्होंने जिया और देखा ही था, बल्कि एक आईएएस अधिकारी के तौर पर उसके विभिन्न आयामों से जूझा भी था. इस उपन्यास के माध्यम से कहीं-न-कहीं उन्होंने अपनी उन प्रशासनिक विफलताओं से उपजी कुंठाओं को भी व्यक्त किया है, जो इसके आरम्भ में दिए गए उनके कथन से पुष्ट होता है.


उपन्यास का सबसे यादगार पात्र ‘लंगड’ जान पड़ता है, जो भारत के आम लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. इसके बारे में पढ़कर अचानक ही प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के होरी की याद आ जाती है. लंगड को सरकारी दफ्तर से एक दस्तावेज हासिल करना है. इसके लिए वह दफ्तरों के न जाने कितने चक्कर काटता है लेकिन दस्तावेज पाने में सफल नहीं हो पाता. इस लंगड़ की नियति होरी की उस नियति जैसी ही है, जो अपने घर के आंगन में गाय बांधने की एक छोटी-सी इच्छा को कभी पूरी नहीं कर पाता.


इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है-इसकी धारदार व्यंग्यात्मक शैली. इसके व्यंग्य को समझने के लिए न तो साहित्यिक ज्ञान और अभिरुचि की जरूरत होती है और न ही भाषा संबंधी विशेष समझ की. सामान्य सा पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी बड़े आराम के साथ इससे तादात्म्य बैठा लेता है. यह एक बहुत बड़ा कारण रहा, जिससे हर वर्ग के लोग इससे जुड़ते चले गए. यह कम बड़ी बात नहीं है कि हिंदी में जहां अच्छी-अच्छी किताबों को पाठकों के हाथ तक पहुंचने के लाले पड़े हुए हैं, वहां ‘रागदरबारी’ हर साल अभी भी 25 हजार पाठकों द्वारा खरीदी जा रही है.


यहां उपन्यास के कुछ चुटीले वाक्यों का आस्वाद लेना गलत नहीं होगा. आइये, कुछ इस तरह के वाक्यों को देखते हैं-
‘‘एक ट्रक खड़ा था. उस देखते ही यकीन हो जाता था कि उसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार के लिए हुआ है.’’
‘‘वर्तमान शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोेई भी लात मार सकता है.’’
‘‘किसी संस्था का फोकट में पैसा खा लेने भर से आदमी का सम्मान नष्ट नहीं होता.’’


वर्तमान समय में हम जिस ‘‘याराना दोस्ती’’ (कॉनिकल केप्टेलिज्म) की बात करते हैं, सामंतवाद के ध्वस्त किए जाने के बावजूद उसके अवशेष उपन्यास में राजमहल के कंगूरों की तरह चमककर भारतीय संविधान का मुंह चिढ़ाते रहते हैं. ग्रामीण परिवेश का चित्रित वातावरण इतना अधिक निराशा और खीझ पैदा करता है कि कभी-कभी अपने-आपसे ही वितृष्णा होने लगती है. सच तो यह है कि इस उपन्यास में हताशा का अंधकार इतना घना है कि यदि इसमें व्यंग्य के जुगनुओं की चमक न होती, तो उसे पढ़ पाना मुश्किल हो जाता. 


श्रीलाल शुक्ल ने इसमें जिस जमीनी व्यंग्य को हमारे सामने पेश किया है, वह अपने-आपमें इतना शास्त्रीय बन गया है कि उनकी कोई सानी दिखाई नहीं देता. इस लिहाज से हरिशंकर परसाई के बाद श्रीलाल शुक्ल हिंदी साहित्य के दूसरे महान व्यंग्यकार कहे जा सकते हैं. ज्ञान चतुर्वेदी में श्रीलाल शुक्ल की कुछ झलक दिखाई देती है. यह कहना गलत नहीं होगा कि जब तक कि तस्वीर आमूलचूल रूप में नहीं बदल जाती, तब तक ‘रागदरबादी’ अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखेगी. और यदि सामाजिक रूप में इसके प्रासंगिकता न भी रही, तो हिंदी साहित्य लेखन में इसने जो विशिष्ट प्रतिमान स्थापित किये हैं, उसके कारण इस रचना को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)