मार्क्सवादियों का सूरज क्यों ढला
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मार्क्सवादियों का सूरज क्यों ढला

सच तो यह है कि मार्क्सवादी पार्टी ने अपने-आपको मात्र एक बौद्धिक पार्टी में तब्दील कर दिया है. इसकी बौद्धिकता भी ऐसी है, जो न तो आम लोगों की समझ में आती है और न ही जिनसे युवा वर्ग उस गर्व के साथ जुड़ पाता है, जिस तरह वह सत्तर के दशक में जुड़ रहा था.

मार्क्सवादियों का सूरज क्यों ढला

त्रिपुरा चुनावी नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कही गई उक्त मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी, इन दोनों के भविष्य का बहुत अच्छा प्रतीकात्मक विश्लेषण करती है. उन्होंने कहा था, ‘‘जब सूरज ढलता है, तो उसका रंग लाल होता है और जब सूर्योदय होता है, तो केसरिया.’’ स्पष्ट है कि वे त्रिपुरा में 25 साल पुरानी वामपंथी सरकार की इतनी बुरी हार पर सही टिप्पणी कर रहे थे. इससे पहले पश्चिम बंगाल में 34 साल तक लगातार शासन करने के बाद अब वह सत्ता से बाहर हो चुकी है. केरल में वह टुकड़ों-टुकड़ों में सत्ता में रही है और अभी भी है. लेकिन आने वाले चुनावों ने उसके भी भविष्य पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है. वैसे भी केरल में हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है.

यह बात भी गौर करने की है कि देश के 1952 के पहले आम चुनाव में 3.19 प्रतिशत मतों के साथ लोकसभा में कुल 16 सीट जीतकर दूसरी बड़ी पार्टी बनने का इसे श्रेय है. 1962 में लगभग 10 प्रतिशत मत पाकर वह अपने सर्वोच्च पर पहुंची. लेकिन सांसदों की दृष्टि से उसका सबसे अच्छा स्कोर 2004 में 43 सीटों का रहा. वर्तमान में इसकी संख्या घटकर दहाई से भी एक कम रह गई है.

93 साल पुरानी लेफ्ट पार्टी का इस तरह का अवसान भले ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की एक स्वाभाविक और सामान्य सी घटना होती है, लेकिन राजनीति में वैचारिक संतुलन बनाए रखने की दृष्टि से वामपंथी दलों का इस तरह छीजते जाना; विशेषकर बुद्धिजीवियों के लिए दुख और चिंता दोनों की बात है. निश्चित रूप से एक ऐसे समय में जब रूस की क्रांति के 100 साल तथा कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के लगभग पौने दो सौ साल होने जा रहे हैं, भारत में वामपंथियों के इस तरह से हाशिए पर चलते चले जाने की ओर पूरी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. लेकिन दुख और आश्चर्य की बात यह है कि यह सब कुछ देखने, जानने और भोगने के बावजूद इस दिशा में वामपंथियों में अभी तक कोई हरकत दिखाई नहीं देती. यहां तक कि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के प्रस्ताव तक को उन्होंने खारिज करके कहीं न कहीं अपने अड़ियल रुख का ही प्रदर्शन किया है.

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फिलहाल, वामपंथी दलों के दो सबसे बड़े संकट दिखाई देते हैं. पहला तो यह कि ये भले ही मजदूर और शोषित वर्ग की बात करते हों, लेकिन जनता के साथ जुड़ाव के इनके कोई वैसे प्रमाण और गतिविधियों के समाचार पढ़ने को नहीं मिलते, जैसी की दूसरी पार्टियों के मिलते हैं. और वह भी एक ऐसे दौर में; जबकि भारतीय जनता पार्टी लगातार लोगों से सम्पर्क बनाए रखने को अपनी मुख्य चुनावी रणनीति मानकर चल रही है. सच तो यह है कि मार्क्सवादी पार्टी ने अपने-आपको मात्र एक बौद्धिक पार्टी में तब्दील कर दिया है. इसकी बौद्धिकता भी ऐसी है, जो न तो आम लोगों की समझ में आती है और न ही जिनसे युवा वर्ग उस गर्व के साथ जुड़ पाता है, जिस तरह वह सत्तर के दशक में जुड़ रहा था. 130 करोड़ की आबादी वाले देश में किसी भी पार्टी के, और वह भी इतनी पुरानी पार्टी के सदस्यों की संख्या मात्र 11 लाख होना इसी चरित्र की ओर संकेत करता है.

इसकी दूसरी मूल कमी है - गरीबी को ग्लेमराइज करना. त्रिपुरा चुनाव के दौरान वहां के मार्क्सवादी मुख्यमंत्री की सादगी और न्यूनतम संपत्ति की बात बार-बार दोहराई गई. सादगी प्रशंसनीय है. लेकिन संपत्ति का न होना प्रशंसनीय कैसे हो सकता है? इससे कुछ ऐसा लगता है कि यदि कोई मुख्यमंत्री और प्रकारान्तर से व्यक्ति अपना पूरा जीवन सरलता और ईमानदारी से गुजारे, तो वह कभी भी धन अर्जित नहीं कर सकता. इस प्रकार मुख्यमंत्री की यह तथाकथित गरीबी कहीं न कहीं जनता के मन में व्यक्तिगत स्तर पर भय ही पैदा करती है, बावजूद कि उनके मन में ऐसे मुख्यमंत्री के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है.

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इसी से जुड़ी हुई बात है - राज्यों के विकास की. 34 वर्षों के निरंतर शासन के दौरान पश्चिम बंगाल में और एक चौथाई शताब्दी के शासन के दौरान त्रिपुरा में सत्तारूढ़ एक राजनीतिक पार्टी के रूप में वामपंथी राज्यों के विकास तथा लोगों के जीवन-स्तर का कोई भी ऐसा मानक स्थापित नहीं कर सकी, जो पूरे देश के लिए अनुकरणीय बन सके. जाहिर है कि यदि आगे भी सत्ता की बागडोर इनके हाथों में सौंप दी जाती है, तो जो कुछ अभी तक हो रहा है, उसी की निरंतरता बनी रहेगी. जबकि लोग विकास चाहते हैं, जो कि स्वाभाविक है.

अंत में एक बात और. श्रमिकों को वामपंथी दलों का आधार माना जाता है. शुरुआत में मजदूर संगठनों पर इसकी अच्छी पकड़ थी, लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है. किसानों के बीच तो इसकी पहुंच नहीं के बराबर ही है. अनुसूचित जाति और जनजातियों से इसका शुरू से कोई विशेष जुड़ाव नहीं रहा. नक्सलियों की बढ़ती हुई हिंसा ने भी कहीं न कहीं वामपंथियों की छवि को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है. इन सभी स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यदि किसी राजनीतिक दल के अपने अस्तित्व पर प्रश्न चिहन लग जाता है, तो यह आश्चर्य की बात नहीं है. 

 (डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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