वर्तमान पूँजी एवं उपभोक्तावाद का विरोध करते हुए केदारनाथ सिंह बड़े सहज तरीके से कुछ यूँ कह जाते हैं, ''मैं बाजार में टहलता रहा. खिड़कियों में सजे सामानों को देखता रहा और अंत में मैं बाजार से यूँ कहते हुए एक बादशाह की तरह निकल गया कि मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है.''
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सारा शहर छान लेने के बाद,
मैं इस नतीजे पर पहुँचा,
कि इतने बड़े शहर में,
मेरी सबसे बड़ी पूँजी है,
मेरी चलती हुई साँस,
मेरी छाती में बन्द मेरी छोटी-सी पूँजी,
जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा खर्च कर देता हूँ.
- केदारनाथ सिंह
हिन्दी के कवि केदार नाथ सिंह ने सोमवार रात को अपनी इस थोड़ी-सी खर्च होने वाली पूँजी को पूरी तरह खर्च कर दिया. इस प्रकार लोक अनुभूति एवं भाषा तथा आधुनिकतम विचार एवं जीवन पद्धति के बीच की सबसे मजबूत कड़ी हमेशा-हमेशा के लिए टूट गई. मुझे केदारनाथ सिंह से मिलने और उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सुनने के कई मौके मिले. सच बताऊँ तो हिन्दी का विद्यार्थी और इसी भाषा का एक छोटा-सा विनम्र लेखक होने के बावजूद मैं आधुनिक कविता का आस्वाद लेने में खुद को असमर्थ पाता हूँ. ये केदारनाथ सिंह ही थे जिनकी कविताओं ने मुझे हिन्दी की आधुनिक कविता से जोड़ा और इस प्रकार हिन्दी साहित्य की एक बड़ी संपदा से महरूम होने से उन्होंने मुझे बचा लिया.
मेरी इस बात पर यकीन करने के लिए केदार नाथ जी की शुरूआत में दी गई पंक्तियों को प्रमाण के तौर पर पढ़ा जा सकता है. इतने सीधे-साधे सरल शब्दों को इतने सीधे-साधे सरल रूप में प्रस्तुत करके काव्य की इतनी असाधारण अनुभूति करा देना केदार नाथ जी की अपनी अद्भुत विशेषता थी.
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अब जबकि केदारनाथ के व्यक्तित्व और कविताओं के अनेकानेक बिंब दिमाग में बुरी तरह कौंध रहे हैं, इन्हीं के बीच हिन्दी के दो अन्य कवियों के बिंब भी उसमें शामिल हो गये हैं और यह इत्तेफाक की बात है कि ये दोनों भी उन्हीं के पीढ़ी के हैं और दोनों के नाम के प्रथम अक्षर ‘क’ से ही शुरू होते हैं. इनमें एक हैं केदारनाथ अग्रवाल और दूसरे कुँअर बैचेन.
ये तीनों कवि भारतीय जीवन के जिन देशज अनुभूतियों को लेकर आए, उनमें रचे-बसे इनके विचारों ने इन तीनों कवियों को अपनी सहजता और साधारणीकरण के माध्यम से साहित्य की जो उच्चता प्रदान की, वह वंदनीय है. यदि इन तीनों कवियों की कविता एक साथ मिला दी जाए, तो यह कहना मुश्किल हो जाएगा कि कौन-सी कविता किस कवि की है. इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इन तीनों ने एक-दूसरे का अनुकरण किया है, बल्कि यह है कि अपनी विशिष्टताओं को बनाए रखते हुए इन तीनों ने अपनी-अपनी बातें बहुत गहराई के साथ लोगों के जेहन में उतारी हैं.
केदारनाथ सिंह के पास उत्तर प्रदेश के बनारस के आसपास की भावभूमि थी, जो बाद में बनारस विश्वविद्यालय से होती हुई दिल्ली जैसे महानगर तक पहुँची, वह भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का उल्लेख करना यहाँ इसलिए जरूरी है, क्योंकि उन्होंने अपना अध्यापकीय जीवन वहीं व्यतीत किया. वहाँ की मार्क्सवादी विचारधारा को कविता में ढालकर भारतीय परिवेश के अनुकूल प्रस्तुत किया. इसे मैं भारतीय कविता को उनकी बहुत बड़ी देन मानता हूँ.
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वर्तमान पूँजी एवं उपभोक्तावाद का विरोध करते हुए केदारनाथ सिंह बड़े सहज तरीके से कुछ यूँ कह जाते हैं, ''मैं बाजार में टहलता रहा. खिड़कियों में सजे सामानों को देखता रहा और अंत में मैं बाजार से यूँ कहते हुए एक बादशाह की तरह निकल गया कि मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है.'' इन विचारों में हम उपभोक्तावाद के विरोध के साथ-साथ अपने स्वाभिमान और अपने मानसिक साहस को बनाए रखने का भाव पाते हैं.
यहाँ हम उन्हें न तो व्यवस्था के समक्ष समर्पण करते हुए देखते हैं और न ही उसके खिलाफ सीधे-सीधे संघर्ष करते हुए. यहाँ संघर्ष है, लेकिन वह अपने ही अंदर और वे मानकर चलते हैं कि यह आंतरिक संघर्ष व्यक्ति को सही मायने में शक्तिशाली बनाता है.
कवि ने अपनी काव्य यात्रा की शुरूआत अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ से की थी. मुख्यतः उनके तीन काव्य संग्रह पाठकों के बीच सबसे अधिक चर्चित रहे-‘जमीन पक रही है’, ‘अभी बिल्कुल नहीं’ तथा ‘अकाल में सारस’. ‘अकाल में सारस’ काव्य संकलन में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था. बाद में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान कर साहित्य ने उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया. अब भले ही आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कविता की पंक्तियाँ हमेशा लोगों के जेहन में मौजूद रहेंगी. कविता की साँस कभी नहीं थमती.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)