हमारे देश में गालियां अलग-अलग प्रदेशों में विभिन्न तरीके से दी जाती रही हैं. गालियों को लेकर हमारा समाज कभी पूरी तरह सजग इसलिए भी नहीं रहा, क्‍योंकि ज्‍यादातर गालियों के केंद्र में महिला वाचक थीं. उत्‍तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्‍थान में तो महिलाओं के सामने ही उनके परिवार के पुरुष दूसरों के लिए गालियां देते समय नहीं हिचकते. उत्‍तरप्रदेश के मिर्जापुर से सटे हनुमना नामक तहसील में तो बारात में महिलाएं अपने घर के पुरुषों के सामने बारातियों को मंडप के नीचे मां-बहनसूचक गालियां देती हैं. समधियों को और बुजुर्गों को बाकायदा उनके नाम और उनके परिवार की महिलाओं के नाम से संबद्ध करके गालियां देने का गवाह खुद इन पंक्तियों का लेखक भी रहा है.


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रोचक बात यह है कि जब यह सबकुछ हो रहा होता है तो बच्‍चों का वहां से चले जाना जरूरी नहीं माना जाता. बच्‍चे वहां रहकर क्‍या सीखते होंगे, समझना बहुत मुश्किल नहीं. लेकिन पूरे देश में यह सब जगह होता है, ऐसा भी नहीं है. इसलिए गालियों का सामान्‍यीकरण करना अनुचित है. कुछ बरस पहले, एक मीडिया कंपनी में काम करते हुए मैंने पाया कि कैसे पुरुष साथियों की गालियों के बीच महिलाएं खुद को सहज दिखाती थीं. सहज होने का भ्रम पैदा करती थीं. लेकिन कई बार खुद वह गालियां ऐसे देतीं मानो वह पुरुषों की बराबरी का ऐलान लालकिले से उन गालियों के माध्‍यम से ही देना चाहती हैं.


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गालियां एक बार फिर चर्चा में हैं. फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ में महिला किरदार जिस तरह गालियां दे रही हैं, वह भारतीय दर्शकों के लिए काफी हद तक नया है. बीबीसी संवाददाता सिन्धुवासिनी ने ‘वीरे दी वेडिंग’ में किरदारों से बुलवाई गई गालियों पर एक संजीदा लेख लिखकर इस विषय की ओर ध्‍यान दिलाया है. सिन्धुवासिनी लिखती हैं, ‘बात नैतिकता की भी नहीं है. बस इतनी है कि आज की आज़ाद ख़्याल महिलाएं सब जानते-समझते हुए भी उसी गड्ढे में क्यों जा गिरती हैं, जिससे निकलने की वो सदियों से कोशिश कर रही हैं? ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ़ शहरों की पढ़ी-लिखी औरतें ही गालियां देती हैं. गांवों की महिलाएं भी ख़ूब गालियां देती हैं. लेकिन गांव की और कम पढ़ी-लिखी औरतों की समझ शायद इतनी नहीं होती कि वो पितृसत्ता, मर्दों के वर्चस्व और महिलाविरोधी शब्दों का मतलब समझ सकें.’


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हमें इस विषय पर सिन्धुवासिनी जैसे अनेक सुलझे लेखों और बहस की जरूरत है. ‘वीरे दी वेडिंग’ के ट्रेलर को इंटरनेट पर मिल रही लोकप्रियता के पीछे इसके किरदारों के अभिनय से कहीं ज्‍यादा गालियां हैं. क्‍योंकि इससे पहले महिलाओं को पर्दे पर इस तरह गालियां देते हुए नहीं दिखाया गया. अगर ऐसा हुआ भी तो उसमें इस तरह की युवा एक्‍ट्रेस नहीं थीं जो युवाओं के बीच खासी लोकप्रिय हो, उनके समर्थकों की संख्‍या इतनी विशाल हो.


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ऐसा लगता है कि फिल्‍म की स्क्रिप्‍ट में गालियां नहीं भरी गई हैं, बल्कि गालियों को भरकर उसमें कहानी को ठूस दिया गया. आलोचना होने पर फिल्‍मकार इसे समाज में हो रही बातों की आड़ लेकर टाल देंगे जैसा कि ‘गैंग्‍स ऑफ वासेपुर’ के समय भी हुआ. हो सकता है, देश के कुछ हिस्‍सों में गालियां दी जाती हों, स्‍वीकार्य रही हों, लेकिन यह मानवाधिकारों के लिए गौरव की बात तो नहीं है. इसके मायने यह भी नहीं कि हम उनका गौरवगान करने, यशगान करने में जुट जाएं.


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समय-समय पर महिलाओं की आजादी के बारे में बात करने वाली स्‍वरा भास्‍कर और सोनम कपूर अपने नागरिक दायित्‍वों से कला के नाम पर इतनी दूर निकल गईं, यह खराब लगने से अधिक शर्मिंदा करता है. एक खतरा यह भी है कि इस लेख को महिला विरोधी करार दे दिया जाए, इस तर्क के आधार पर कि पुरुष भी तो भरपूर गालियों वाली फिल्‍में करते हैं, लेकिन ऐसा करके ऐसा करने वाली अभिनेत्रियां उस नकल कल्‍चर को ही बढा़वा दे रही हैं, जिसमें समानता का अर्थ केवल दूसरे जैसा आचरण है, उसके करने का उद्देश्य नहीं.


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यह ट्रेलर हर घर में पहुंच रहा है. फिल्‍म भी हर जगह पहुंच रही है. ऐसे में बच्‍चों की जुबान पर ऐसी गालियां चढ़ने का खतरा बहुत ज्‍यादा है. आश्‍चर्य है कि इस समाज, संस्‍कति और सरकार तीनों की ओर से ही कोई ठोस आपत्त्ति अब तक नहीं आई है.


बच्‍चे हमारे समाज की गुल्‍लक हैं. जैसा और जितना आप देंगे वह वैसा और उतना ही आपको लौटाएंगे, हम सबको यह बात याद रखनी चाहिए.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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